— किशन पटनायक —
शिक्षा के प्रयोगों में वैसे तो मेरा अनुभव नहीं के बराबर है फिर भी अस्सी के दशक में मैंने एक प्रयोग किया था तब बेंगलुरु से चालीस किलोमीटर दूर एक देहात में थोड़ी पथरीली जमीन खरीदकर हमलोगों ने कुछ बच्चों को, जो छोटी कक्षाओं में स्कूल छोड़ चुके थे, इकट्ठा किया। फिर कुछ उपेक्षित महिलाओं को इकट्ठा किया और पास के गांव से एक सामाजिक कार्यकर्ता और उनकी पत्नी को भी साथ लिया। छह महीने में यह प्रयोग असफल हो गया। साधनों की कमी असफलता का एक कारण था। लेकिन सांस्कृतिक कारण बड़े रहे। हुआ यूं कि सामाजिक कार्यकर्ता ने अपनी पत्नी की पिटाई शुरू कर दी। हमारे स्थान में पुरुष और महिला को बराबर का दर्जा प्राप्त था और यह बात उस बेचारे पति से बर्दाश्त नहीं हुई। दो-तीन बार मना करने पर जब स्थिति नहीं बदली तो हमें उस प्रयोग से हट जाना पड़ा। मैं वहां स्थायी तौर पर नहीं रहता था। जो व्यक्ति पैसे से मदद करते थे और विद्यालय की कल्पना जिन्होंने की थी वे खुद बेंगलुरु में रहते थे। इस प्रयोग से हमें यह सबक मिला कि जिसको प्रयोग करना है, जिसके पास दृष्टि है और जो प्रतिबद्ध है, उसे उसी क्षेत्र में रहना चाहिए जहां प्रयोग हो रहा है।
शिक्षा के हजारों प्रयोग पिछले पांच-दस सालों में हुए होंगे। लेकिन वे सारे प्रचलित धारा में समा गए। मेरी स्मृति में केवल दो सफल प्रयोग हैं। एक शांतिनिकेतन का और दूसरा सेवाग्राम का। प्रयोग के तौर पर वे सफल प्रयोग थे। सफल इस मायने में कि शिक्षा की जो महत्त्वपूर्ण भूमिका है उस भूमिका को समझ कर ही वे किए गए। दोनों का लक्ष्य एक ही था- नए भारत के निर्माण। हालांकि दोनों में काफी फरक भी था। शांतिनिकेतन में कला की संस्कृति पर ज्यादा जोर था जबकि सेवाग्राम में कर्तव्य/सेवा की संस्कृति पर। पर दोनों इस मायने में एक थे कि उनका लक्ष्य प्रचलित सभ्यता का विरोध करने के लिए, उनका हिस्सा न बनने के लिए भारत को तैयार करना था।
1950 के आसपास दुनिया के तीन चौथाई देशों को औपनिवेशिक बंधन से मुक्ति मिली। ये देश दूसरों के द्वारा थोपी गई संस्कृति, सभ्यता और शिक्षा से गुजर रहे थे। औपनिवेशिक दासता से मुक्ति का समय वह समय था जब हम अपना कुछ बना सकते थे। लेकिन उसके 50 साल बाद भी हमने वही बनाया जो हम पर थोपा गया था। आज ज्यादा मुश्किल लगता है कि शिक्षा को माध्यम बनाकर हम एक नए विश्व का आरंभ कर सकें।
एक कार्यशाला में मुझसे एक प्रश्न पूछा गया। उस प्रश्न का आशय कुछ ऐसा था कि आज की परिस्थितियों में कोई व्यक्ति देश और समाज के लिए कुछ करना चाहे तो वह क्या करे? मैंने कहा था कि करने लायक तो दो ही चीजें हैं- राजनीति या शिक्षा। ये दो छोर हैं या दो हथियार हैं जिनके द्वारा आप कुछ नया बना सकते हैं। राजनीति की बात इसलिए भी कह रहा था क्योंकि एक सज्जन ने यह कहा कि शांतिनिकेतन जैसे प्रयोग मुख्यधारा का अंग बन गए और यह राजनीति के कारण हुआ। गांधीजी जिस शिक्षा की बात कहते थे उससे उनकी राजनीति का एक संबंध था। अपनी राजनीति के द्वारा वे एक नई सभ्यता की नींव डालना चाहते थे, लेकिन वह राजनीति गांधीजी के साथ ही खत्म हो गई। उसके बाद जो राजनीति आई और उसने जिस शिक्षा, जिस संस्कृति, जिस अर्थव्यवस्था और जिस सामाजिक ढांचे को प्रोत्साहित किया उसके साथ शांतिनिकेतन और सेवाग्राम का कोई मेल नहीं बैठता। इसलिए इन संस्थाओं को या तो मर जाना था या मुख्यधारा में जुड़ जाना था। शांतिनिकेतन जुड़ गया और सेवाग्राम मर गया। और इस प्रकार इन दो प्रयोगों का यह हश्र हुआ।
शिक्षा का सभ्यता से एक रिश्ता है। यह माना जाता है कि पांच से 15 साल की आयु तक शिक्षा अनिवार्य हो और शिक्षा समाज में संस्थागत ढंग से दी जाए। इसलिए पाठ्यक्रम होना भी बहुत जरूरी है। सभ्यता के मूल्यों को और संस्थाओं को ज्यादा मजबूत करने के लिए यह शिक्षा दी जाती है। जब तक औपनिवेशिक पद्धति से शिक्षा का विकल्प तैयार करने की संभावना थी, तब तक मैकाले की निंदा करते थे, लेकिन आज की चर्चा में उसका उल्लेख अप्रासंगिक है।
हमने जब सर्वसम्मति से मैकाले की शिक्षा व्यवस्था को स्वीकार कर लिया है तो फिर मैकाले की निंदा अप्रासंगिक हो जाती है। मैकाले का उल्लेख किए बिना हम क्या उस वैकल्पिक शिक्षा पद्धति की बात कर सकते हैं, जो इस सभ्यता का विकल्प खड़ा करे। यदि शिक्षा द्वारा आज की सभ्यता का विकल्प नहीं देना है तो शिक्षा पद्धति में बहुत तब्दीली व्यर्थ है। विद्या तो वैसी ही बनेगी जैसी हम अपनाना चाहते हैं।
स्थिति यह है कि हमने मौजूदा सभ्यता को स्वीकार कर लिया है लेकिन यह नहीं चाहते कि उसमें एक सीमा से ज्यादा गिरावट आए। जैसे चुनाव में धांधली हो तो लेकिन इतनी न हो कि बूथ पर कब्जा हो जाए, अशिक्षा और गरीबी हो तो लेकिन हद से ज्यादा न हो। इसी तरह मूल्यों में गिरावट भी इतनी ज्यादा न हो, तो हम जो शिक्षा इस स्थिति को कायम करने के लिए देंगे वह अतिरिक्त शिक्षा होगी। वह कुछ ऐसी होगी कि बच्चे दून स्कूल में पढ़ें, कंप्यूटर सीखें लेकिन साथ ही उनको ऐसी शिक्षा भी दी जाए, ओरियंटेशन कोर्स जैसी कि उनके जीवन में कुछ निखार आए, कुछ व्यवहार में बदलाव आए। यह अतिरिक्त शिक्षा होगी और मेरी इसमें दिलचस्पी नहीं है। मेरी दिलचस्पी तो इसी में है कि हम इस सभ्यता का विकल्प खड़ा करने के लिए नई शिक्षा की नींव डालें।
मूल्यों की गिरावट हर एक समाज में, हर युग में होती है। लेकिन आज खुछ खास प्रकार की गिरावट है। इसको समझते हुए हम ऐसी शिक्षा विकसित करें कि शुरू में तो कोई बड़ा दावा न भी हो, लेकिन कुछ समय के बाद वह काम धीरे-धीरे और जगह भी फैले। तब एक महत्त्वपूर्ण धारा खड़ी हो सकती है।
मूल्यों के एक-दो उदाहरण देना चाहता हूं। मोटरगाड़ी खरीदी जाए या नहीं? जब आय पर्याप्त होती है। लेकिन खरीदें या नहीं, ऐसा सवाल उठना अपने में एक खुशी की बात है। इसके दो उत्तर नहीं हो सकते। एक ही उत्तर है, खरीदना। इस प्रकार की विकट स्थिति में मूल्य को स्थापित करना है।
शारीरिक मेहनत की बात एक मूल्य के रूप में बिल्कुल लुप्त हो रही है। आधुनिक तकनीक और भारत की जातिप्रथा ने शारीरिक काम को एक निम्न, एक दलित, एक शूद्र मूल्य बना दिया है। जितनी बड़ी सांस्कृतिक क्रांति गांधीजी ने शुरू की उतनी किसी ने नहीं की। पाखाना साफ करना एक सच्चे देशसेवक के लिए जरूरी काम बनाया किंतु योजनाबद्ध ढंग से शारीरिक मेहनत को अवमूल्यित करने की कोशिश हो रही है। शारीरिक मेहनत करने वाला नगण्य व्यक्ति लगता है। पाखाना साफ करने, शारीरिक मेहनत करने जैसे मूल्यों को हमारी शिक्षा पद्धति का एक अंग बनाना होगा।
आज विश्व ग्राम की बात होती है। इस सभ्यता की शायद वह आखिरी पराकाष्ठा होगी। उसमें 20 से 30 करोड़ लोगों का जीवन आपस में एक प्रकार से बंधा हुआ होगा। बाकी भी (500 करोड़) उस बनावट में तो रहेंगे पर उनकी हैसियत श्रेणीक्रम में बहुत दयनीय, खराब, कंगालीवाली होगी। इस प्रकार की दुनिया बनेगी तो उसके मुताबिक सारे मूल्य एवं धारणाएं भी बनेंगी। 40 साल पहले यह मानना मुश्किल नहीं था कि बराबरी हो। तब बात यह होती थी कि क्या लोग बिल्कुल बराबर हो जाएंगे? लेकिन आज बराबरी वाली बात मानी नहीं जा सकती। सोची ही नहीं जाती है।
हम आधुनिक सभ्यता की बहुत चीजों की निन्दा करते हैं। बम, मशीन, प्रदूषण आदि। बहुत सारी निंदा के बाद विरोध बिखर जाता है, कोई केंद्र नहीं मिलता। एक केंद्र है- आधुनिक विज्ञान या टेक्नोलॉजी। इस विज्ञान को हम अभी भी एक मूल्य मानकर चल रहे हैं। जब भी आधुनिक तकनीकी की निन्दा होती है तो प्रश्न उठता है कि क्या हम आदिम (प्रीमिटिव) युग में चले जाएंगे। लोग काल को वर्तमान और इतिहास में ही देख पाते हैं, भविष्य में नहीं।
एक प्रश्न उठा था। कथनी और करनी के फरक को लेकर। कथनी और करनी में भेद तीन कारणों से होता है। एक कारण यह है कि हमारी कथनी वेद और बाइबल से आती है और करनी व्यावहारिक शास्त्र (लिखित या अलिखित) से। दूसरा कारण है शंकराचार्य। उन्होंने सत्य को दो भागों में बांटा। एक ब्रह्म सत्य और एक लौकिक सत्य। जो भी हो रहा है करो लेकिन वह माया है। माया और सत्य में भेद है। भारत का हिंदू भगवान को हर जगह देख लेता है फिर भी दलितों को अस्पृश्य मानकर पास नहीं बैठने देता। तीसरा कारण है- दो व्यवस्थाओं के बीच संघर्ष। एक जमी हुई व्यवस्था और एक कल्पित व्यवस्था। हम कल्पित व्यवस्था के नियम बनाते हैं और जमी हुई व्यवस्था में जकड़े हुए हैं।
आधुनिकता से संबंधित तीन शब्द प्रचलन में हैं- आधुनिक, आधुनिकीकरण और आधुनिक सभ्यता। आधुनिक मुझे अभी भी सकारात्मक लगता है जबकि आधुनिक सभ्यता और आधुनिकीकरण नकारात्मक हैं।
आधुनिक सभ्यता की मूल कसौटी क्या है? आधुनिकतम यंत्रों का प्रयोग जहां है वहां आधुनिक सभ्यता है। किसी भी जगह केवल यदि केवल दो प्रतिशत लोगों के लिए सेलफोन, इंटरनेट और रोल्स रायल हो जाए तो आधुनिक सभ्यता बन जाएगी, गुलामी और गैरबराबरी आ जाएगी। इस सभ्यता के कुछ खास यंत्र हैं। जिनके समावेश से आधुनिकीकरण हो जाता है। इसमें गैरबराबरी अनिवार्य है। अगर जिद्द करके चार-पांच जिलों के किसी इलाके में बराबरी स्थापित कर दें तो आधुनिक सभ्यता वहीं खत्म हो जाएगी। आधुनिक सभ्यता के वश में यह नहीं है कि दिल्ली के हर एक परिवार को एक शौचालय दे सके। आधुनिक नगर निर्माण, भवन निर्माण की कला को तिलांजलि देकर ही हम किसी शहर के हर परिवार को शौचालय दे सकेंगे।
कोई एक यंत्र आधुनिक सभ्यता निर्धारित नहीं करता। उसका एक पैकेज और एक अनुपात यह निर्धारित करता है। क्यूबा यदि ग्लोबीकरण नहीं करना चाहता तो बहुत सारे यंत्रों से अपने लोगों को वंचित कर रहा है। फिडेट कास्त्रो आधुनिक सभ्यता को मानते हैं, लेकिन अपने देश में नहीं लाना चाहते हैं। वो कोई नई चीज को इसलिए नहीं बना पाएंगे क्योंकि आधुनिक सभ्यता को उन्होंने अपने दिमाग से नहीं निकाला है। नकारने से ही विकल्प आएगा।
अब रही औपनिवेशीकरण की बात। 50 साल में हमने वह मौका खो दिया कि उससे मुक्त हो जाएं। हमारे विश्वविद्यालयों ने, हमारे सचिवालयों ने हमें आधुनिक सभ्यता का अंग बना दिया है। ग्लोबीकरण का एक हिस्सा बना दिया।
चीन और थाईलैंड और भारत के आदमी का दिमाग एक सा हो रहा है। चीन और थाईलैंड में प्रत्यक्ष उपनिवेश नहीं रहा। हमने औपनिवेशिकता को अंतःकरण में इस तरह बसा लिया है कि वह हमें स्वाभाविक जान पड़ने लगी है। ऐसे में ग्लोबीकरण को स्वीकार करना सहज हो गया है। ग्लोबीकरण और औपनिवेशिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आधुनिक सभ्यता, ग्लोबीकरण और उपनिवेशवाद कैसे जुड़ गए हैं यह समझना आवश्यक है। हम बैलगाड़ी और विश्व ग्राम दोनों के विरुद्ध हैं। सारे यंत्र हमारी विरासत का हिस्सा हैं। बैलगाड़ी भी और स्कूटर भी। इनमें से किस चीज को कितना इस्तेमाल करें, फेंक दें, परिवर्तित करें, वह अपने ऊपर है, यही नई सभ्यता के निर्माण का काम है। नई शिक्षा पद्धति में इसको पाठ्यक्रम का रूप कैसे दें?
(‘सिद्ध’ मसूरी द्वारा शिक्षा पर आयोजित कार्यशाला, 3-5 अगस्त, 1998, में की गई टिप्पणी)