— हजारीप्रसाद द्विवेदी —
जिस स्थान पर बैठकर लिख रहा हूँ, उसके आसपास कुछ थोड़े-से पेड़ हैं। एक शिरीष है, जिस पर लंबी-लंबी सूखी छिम्मियाँ अभी लटकी हुई हैं। पत्ते कुछ झड़ गये हैं और कुछ झड़ने के रास्ते में हैं। जरा-सी हला चली नहीं कि अस्थिमालिका वाले उन्मत्त कापालिक भैरव की भाँति खड़खड़ाकर झूम उठते हैं। ‘कुसुमजन्म ततो नव पल्लवा:’ का कहीं नाम-गन्ध भी नहीं है। एक नीम है। जवान है, मगर कुछ अत्यन्त छोटी किसलियकाओं के सिवा उमंग का कोई चिह्न उसमें भी नहीं है। फिर भी यह बुरा मालूम नहीं होता। मसें भीगी हैं और आशा तो है ही। दो कृष्णचूड़ाएँ हैं। स्वर्गीय कविवर रवीन्द्रनाथ के हाथ से लगी वृक्षावली में ये आखिरी हैं। इन्हें अभी शिशु ही कहना चाहिए। फूल तो इनमें कभी आए नहीं, पर ये अभी नादान हैं। भरे फागुन में इस प्रकार खड़ी हैं मानो आषाढ़ ही हो। नील मसृण पत्तियाँ और सूच्यग्र शिखान्त। दो-तीन अमरूद हैं, जो सूखे सावन भरे भादों कभी रंग नहीं बदलते- इस समय दो-चार श्वेत पुष्प इन पर विराजमान हैं; पर ऐसे फूल माघ में भी थे और जेठ में भी रहेंगे। जातीय पुष्पों का एक केदार है; पर इन पर ऐसी मुर्दनी छायी हुई है कि मुझे कवि-प्रसिद्धियों पर लिखे हुए एक लेख में संशोधन की आवश्यकता महसूस हुई है।
एक मित्र ने अस्थान में एक मल्लिका का गुल्म भी लगा रखा है, जो किसी प्रकार बस जी रहा है। दो करबीर और एक कोविदार के झाड़ भी उन्हीं मित्र की कृपा के फल हैं, पर वे बुरी तरह चुप हैं। कहीं भी उल्लास नहीं, उमंग नहीं और उधर कवियों की दुनिया में हल्ला हो गया, प्रकृति रानी नया श्रृंगार कर रही है, और फिर जाने क्या-क्या! कवि के आश्रम में रहता हूँ। नितान्त ठूँठ नहीं हूँ; पर भाग्य प्रसन्न न हो तो कोई क्या करे? दो कांचनार वृक्ष इस हिन्दी-भवन में हैं। एक ठीक मेरे दरवाजे पर और दूसरा मेरे पड़ोसी के। भाग्य की विडंबना देखिए कि दोनों एक ही दिन के लगाये गये हैं। मेरा वाला ज्यादा स्वस्थ और सबल है। पड़ोसी वाला कमजोर, मरियल। परन्तु इसमें फूल नहीं आए और वह कम्बख्त कन्धे पर से फूल पड़ा है। मरियल-सा पेड़ है, पर क्या मजाल कि आप उसमें फल के सिवा कुछ और देखें! पत्ते हैं नहीं और टहनियाँ फूलों से ढक गयी हैं। मैं रोज देखता हूँ कि हमारे वाले मियाँ कितने अग्रसर हुए! कल तीन फूल निकले थे। उनमें दो तो एक सन्थाल बालिका तोड़कर ले गयी। एक रह गया है। मुझे कांचनार फूलों की ललाई बहुत भाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि इन फूलों की पकौड़ियाँ भी बन सकती हैं। पर दुर्भाग्य देखिए कि इतना स्वस्थ पेड़ ऐसा सूना पड़ा हुआ है और वह कमजोर दुबला लहक उठा है! कमजोरों में भावुकता ज्यादा होती होगी!
पढ़ता-लिखता हूँ। यही पेशा है। सो दुनिया के बारे में पोथियों के सहारे ही थोड़ा-बहुत जानता हूँ। पढ़ा हूँ, हिन्दुस्तान के जवानों में कोई उमंग नहीं है, इत्यादि-इत्यादि। इधर देखता हूँ कि पेड़-पौधे और भी बुरे हैं। सारी दुनिया में हल्ला हो गया कि वसन्त आ गया। पर इन कमबख्तों को खबर ही नहीं! कभी-कभी सोचता हूँ कि इनके पास तक सन्देश पहुँचाने का कोई साधन नहीं हो सकता! महुआ बदनाम है कि उसे सबके बाद वसन्त का अनुभव होता है; पर जामुन कौन अच्छा है! वह तो और भी बाद में फूलता है। और कालिदास का लाड़ला यह कर्णिकार? आप जेठ में मौज में आते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि वसन्त भागता-भागता चलता है। देश में नहीं, काल में। किसी का वसन्त पंद्रह दिन का है तो किसी का नौ महीने का। मौजी है अमरूद। बारह महीने इसका वसन्त-ही-वसन्त है। हिन्दी-भवन के सामने गन्धराज पुष्पों की पाँत है। ये अजीब हैं, वर्षा में ये खिलते हैं, लेकिन ऋतु-विशेष के उतने कायल नहीं हैं। पानी पड़ गया तो आज भी फूल ले सकते हैं।
कवियों की दुनिया में जिसकी कभी चर्चा नहीं हुई, ऐसी एक घास है- विष्णुकान्ता। हिन्दी-भवन के आँगन में बहुत है। कैसा मनोहर नाम है। फूल और भी मनोहर होते हैं। जरा-सा तो आकार होता है, पर बलिहारी है उस नील मेदुर रूप की। बादल की बात छोड़िए, जरा-सी पुरवैया बह गयी तो इसका उल्लास देखिए। बरसात के समय तो इतनी खिलती है कि मत पूछिए। मैं सोचता हूँ कि इस नाचीज लता को सन्देश कैसे पहुँचता है! थोड़ी दूर पर वह पलाश ऐसा फूला है कि ईर्ष्या होती है। मगर उसे किसने बताया कि वसन्त आ गया है? मैं थोड़ा-थोड़ा समझता हूँ, वसन्त आता नहीं ले आया जाता है। जो चाहे और जब चाहे अपने पर ले आ सकता है। वह मरियल कांचनार ले आया है। अपने मोटेराम तैयारी कर रहे हैं, और मैं?
मुझे बुखार आ रहा है। यह भी नियति का मजाक ही है। सारी दुनिया में हल्ला हो गया है कि वसन्त आ रहा है, और पास आया बुखार। अपने कांचनार की ओर देखता हूँ और सोचता हूँ, मेरी वजह से तो यह नहीं रुका है? कारण मान लेने पर भी यह प्रश्न बना रह जाता है कि विज्ञान और प्रतिभाशाली व्यक्ति भी साधन की अशुचिता के शिकार क्यों बन जाते हैं। कोई ऐसा बड़ा कारण होना चाहिए, जो बुद्धिमानों की अक्ल पर आसानी से परदा डाल देता है। जहाँ तक कबीरदास का संबंध है, उन्होंने अपनी ओर से कारण का इशारा कर दिया था। घर जोड़ने की अभिलाषा ही इस प्रवृत्ति का मूल कारण है। लोग केवल सत्य को पाने के लिए देर तक नहीं टिके रह सकते। उन्हें धन चाहिए, मान चाहिए, यश चाहिए, कीर्ति चाहिए। ये प्रलोभन ‘सत्य’ कही जाने वाली बड़ी वस्तु से अधिक बलवान सिद्ध हुए हैं। कबीरदास ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जो उनके मार्ग पर चलना चाहता हो, अपना घर पहले फूँक दे-
कबीर खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ।
जो घर फूँके आपना सो चले हमार साथ।।
घर फूँकने का अर्थ है धन और मान का मोह त्याग देना, भूत और भविष्य की चिन्ता छोड़ देना और सत्य के सामने सीधे खड़े होने में जो कुछ भी बाधा हो, उसे निर्ममतापूर्वक ध्वंस कर देना। पर सत्यों का सत्य यह है कि लोग कबीरदास के साथ चलने की प्रतिज्ञा करने के बाद भी घर नहीं फूँक सके। मठ बने, मंदिर बने, प्रचार के साधन आविष्कार किये गये और उनकी महिमा बताने के लिए पोथियाँ रची गयीं! इस बात का बराबर प्रयत्न होता रहा कि अपने इर्द-गिर्द के समाज में कोई यह न कह सके कि इनका अमुक कार्य सामाजिक दृष्टि से अनुचित है! अर्थात् विद्रोही बनने की प्रतिज्ञा भूल गयी; सुलह और समझौते का रास्ता स्वीकार कर लिया गया। आगे चलकर ‘गुरु-पद’ पाने के लिए हाईकोर्ट की भी शरण ली गयी!
यह कह देना कि सब गलत हुआ, कुछ विशेष काम की बात नहीं हुई। क्यों यह गलती हुई? माया से छूटने के लिए माया के प्रपंच रचे गये, यह सत्य है। कबीरपन्थ का नाम तो यहाँ इसलिए आ गया है कि ये बातें कबीरपन्थी साहित्य पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में आयी हैं;नहीं तो सभी महापुरुषों के प्रवर्त्तित मार्गों की यही कहानी है। माया का जाल छुड़ाए छूटता नहीं है, यह इतिहास की चिरोद्घोषित वार्त्ता सब देशों और सब कालों में समान भाव से सत्य रही है।
स्पष्ट ही मालूम होता है कि घर जोड़ने की माया बड़ी प्रबल है और संसार का विरला ही कोई इसका शिकार होने से बच सकता है। इतनी प्रबल शक्ति के यथार्थ को उलटा नहीं जा सकता। उसको मानकर ही उसके आकर्षण से बचने की बात सोची जा सकती है। स्वयं कबीरदास ने न जाने कितनी बार इस प्रबल माया की शक्ति के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है :
ई माया रघुनाथ की बौरी खेलन चली अहेरा हो।
चतुर चिकनिया चुनि-चुनि मारे काहु न राखे नेरा हो।
गौरी पीर दिगम्बर मारे ध्यान धरते जोगी हो।
जंगल में के जंगम मारे माया किनहु न भोगी हो।
वेद पढ़ंते बेदुआ मारे पूजा करते स्वामी हो।
अरथ विचारत पंडित मारे बाँधे सकल लगामी हो।
इत्यादि।
मैं ज्यों-ज्यों कबीरपन्थी साहित्य का अध्ययन करता गया, त्यों-त्यों यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती गयी कि इर्द-गिर्द की सामाजिक व्यवस्था का प्रभाव बड़ा जबर्दस्त साबित हुआ है। उसने सत्य, ज्ञान, भक्ति और वैराग्य को बुरी तरह दबोच लिया है। केवल कबीरपन्थ में ही ऐसा नहीं हुआ है। सब बड़े-बड़े मतों की यही अवस्था है। समाज व मान-प्रतिष्ठा का साधन पैसा है। जब चारों ओर पैसे का राज हो तब उसके आकर्षण को काट सकना कठिन है। पन्थ की प्रतिष्ठा के लिए भी पैसा चाहिए। जो लोग इस आकर्षण को न काट सकने वालों की निन्दा करते हैं, वे समस्या को बहुत ऊपर-ऊपर से देखते हैं।
मैं बराबर सोचता रहा कि क्या कोई ऐसा उपाय नहीं हो सकता कि समाज से पैसे का राज खत्म हो जाय! हमारे समस्त बड़े प्रयत्न इस एक चट्टान से टकराकर चूर हो जाते हैं। क्या कोई ऐसी अवस्था हो सकती है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने मतलब भर का पैसा पा जाय और उससे अधिक पा सकने का कोई उपाय ही न हो? यदि ऐसा हो सकता तो वह समूचा बेहूदा साहित्य लिखा ही न जाता, जो केवल ग्रन्थों और उनके प्रवर्त्तकों की महिमा बढ़ाने के उत्साह में बराबर उन बातों को ढँकने का प्रयत्न करता है, जिन्हें पन्थ के प्रवर्त्तक ने कठिन साधना से प्राप्त किया था। पुराने तान्त्रिक आचार्यों ने बताया था कि जो राग बन्धन के कारण होते हैं, वे ही मुक्ति के भी कारण होते हैं। काम-क्रोध आदि मनोवृत्तियाँ, जिन्हें शत्रु कहा जाता है, सुनियन्त्रित होकर परम सहायक बन जाती हैं। क्या कोई ऐसी सामाजिक व्यवस्था नहीं बन सकती, जिसमें ‘घर जोड़ने की माया’ जीती भी रहे और सत्य के मार्ग में बाधक भी न हो?
मेरा मन कहता है कि यह संभव है।