कोरोना काल में धर्मनिरपेक्ष राजनीति को आक्सीजन

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— अरुण कुमार त्रिपाठी —

सांप्रदायिकता से जूझ रहे भारतीय लोकतंत्र को कोरोना काल में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के परिणाम से आक्सीजन मिली है। हालांकि कोरोना की दूसरी लहर में आक्सीजन की जरूरत और कीमत देश का हर नागरिक समझ गया है और शायद यही कारण है कि उसने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को तो दो तिहाई बहुमत देकर जिताया ही लेकिन भाजपा को महज दो अंकों तक समेट कर न सिर्फ भाजपा के सत्तारूढ़ होने के सपनों को चकनाचूर किया है बल्कि नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों को खारिज करनेवाला जनादेश भी दिया है।

भाजपा के लोग यह कह कर खुश हो सकते हैं कि हम तो 2016 में तीन सीट पर थे और अब 75 सीट तक की हमारी यात्रा बहुत बड़ी है। उसके एक सांसद ने अपने जहर उगलने वाले स्वभाव के अनुसार लिखा है कि कांग्रेस और वाममोर्चा ने हमारी एक आंख फोड़ने के लिए अपनी दोनों आँखें फोड़ ली हैं। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और माकपा, भाकपा के खत्म होने का हवाला देकर भाजपा यह कह कर लोगों को डराने का अभियान जारी रख सकती है कि वह कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के अपने अभियान में सफल हो रही है और अपने परंपरागत शत्रु लेफ्ट को भी कुचलने में कामयाब हो रही है। लेकिन इस चुनाव परिणाम की इस तरह की व्याख्या शरारतपूर्ण है।

वास्तव में अगर पश्चिम बंगाल में भाजपा जीत जाती तो यह तय हो जाता कि इस देश में एक पार्टी का ही शासन रहेगा और जनता की ओर से विकल्प आने की संभावना अब शून्य हो चुकी है। यह स्थिति अधिनायकवाद की ओर मजबूत और ठोस कदम होती। लेकिन ममता बनर्जी ने अपनी टूटी टांग से व्हील चेयर पर बैठकर और 212 सीटें हासिल कर यह दिखा दिया है कि अगर आप में नैतिक बल है तो आप बड़ी से बड़ी शक्ति का सामना कर सकते हैं। ममता बनर्जी में लाख कमियां हैं और तमाम क्षेत्रीय दलों की तरह उनकी राजनीति भी व्यक्ति केंद्रित, परिवार केंद्रित और तुनकमिजाजी है। उनका रिकार्ड पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष राजनीति करने का नहीं है। वे एनडीए में भी रह चुकी हैं और वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी थीं। ममता ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान शुभेंदु अधिकारी पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने नंदीग्राम संघर्ष के दौरान जानबूझ कर हिंसा करवाई थी। यह आरोप उनकी उस पूरी राजनीति पर जाता है जिसके माध्यम से उन्होंने किसानों के हित में लड़ाई लड़ते हुए अनशन किया था और 2011 में सत्ता हासिल की थी। शायद यही कारण था कि नंदीग्राम में उन्हें कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा और वे हार भी गईं। लेकिन उस प्रतीकात्मक लड़ाई से उन्होंने पूरा बंगाल जीत लिया।

ममता बनर्जी ने अपने शासन में उन योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया जो उन्होंने बनाई थीं। उनके पार्टी के कार्यकर्ता इलाका दखल के बहाने हिंसा करते हैं इसमें भी कोई दो राय नहीं। इन सबके बावजूद ममता बनर्जी की राजनीति भाजपा की तरह से खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक नहीं है। इसका प्रदर्शन उन्होंने स्वयं प्रधानमंत्री के उस कार्यक्रम में किया जब उनके भाषण के लिए खड़ी होते ही जयश्रीराम के नारे लगने लगे और उन्होंने विरोध करते हुए अपना भाषण समाप्त कर दिया इस चुनाव में दोनों तरफ से भड़काऊ और व्यक्तिगत आक्षेप लगानेवाली बातें ज्यादा की गईं। लेकिन जब उस तरह के आरोप भारत के प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी की ओर से लगाए जाते हैं तो मामला गंभीर हो जाता है। क्योंकि मोदी जी सिर्फ भाजपा के नेता ही नहीं इस देश के प्रधानमंत्री भी हैं। प्रधानमंत्री इस देश के संविधान की रक्षा शपथ लेता है और उस शपथ के अनुसार उसे मुख्यमंत्री की इज्जत करनी चाहिए। यह देश के संघीय ढांचे की रक्षा की शपथ है और उसे एनडीए सरकार लगातार तोड़ रही है।

बंगाल चुनाव में भाजपा के सत्ता में आने के निश्चित दावे को चकनाचूर करके जनता ने बता दिया है कि किसी महिला और मुख्यमंत्री के प्रति अपमानजनक व्यवहार करनेवाले प्रधानमंत्री के प्रति देश के सभी हिस्सों में आदर नहीं होगा। यहीं पर वह बांग्ला राष्ट्रवाद आकर खड़ा हो गया जिसे बहिरागत बनाम स्थानीय लोगों के बहाने ममता बनर्जी ने छेड़ दिया था। ममता बनर्जी अपनी सारी तुनकमिजाजी और व्यक्ति केंद्रीयता के बावजूद वैसी प्रतिक्रियावादी नहीं हैं जैसा भाजपा का नेतृत्व है। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की उदार संस्कृति में पली-बढ़ी हैं और उनमें स्त्रियों, युवाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रति सम्मान है और वे उसकी रक्षा करना चाहती हैं। जबकि हिंदुत्ववादी पश्चिम बंगाल को वहां रह रहे डेढ़ करोड़ हिंदीभाषी लोगों के सहारे यूपी, बिहार और गुजरात बनाना चाहते थे। वे उसे सांप्रदायिक और सामंती युग में ठेलना चाहते थे। यही कारण था कि योगी आदित्यनाथ अपनी सभाओं में लव जेहाद के बारे में कानून लाने और आपरेशन मजनूं चलाने की बात करते थे। उदार माहौल में रहनेवाले और खुले तरीके से जीनेवाले पश्चिम बंगाल के युवाओं को यह बात पसंद नहीं आई और भाजपा हिंदू मुस्लिम का वैसा ध्रुवीकरण नहीं कर पाई जैसा करना चाहती थी।

लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि ममता बनर्जी की विजय के लिए कांग्रेस और वाममोर्चा ने खाद का काम किया। उनके वोटों में तकरीबन दस प्रतिशत की कमी आई है और उन्हीं वोटों ने तृणमूल कांग्रेस के साथ जुड़कर उसे 49 प्रतिशत का असाधारण आंकड़ा छूने की स्थिति प्रदान की है। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने तीन से 79 सीटों का उछाल लगाया है और उसे 39 प्रतिशत वोट मिले हैं। वहीं असम में एनआरसी और सीएए पर खामोश रहकर भाजपा दोबारा सत्ता में आ गई है। भाजपा ने एआईएनआरसी और अन्नाद्रमुक के साथ मिलकर पुदुच्चेरी में जीत दर्ज की है। इससे लगता है कि भाजपा का विस्तार जारी है और वह पूर्वोत्तर के अपने गढ़ों को बचाने की क्षमता भी रखती है। वह अगले चुनाव में पश्चिम बंगाल में भी बड़ी चुनौती पेश कर सकती है।

इन सबके बावजूद अगर इन विधानसभा चुनावों को मिनी आम चुनाव माना जाए तो विपक्ष और लोकतंत्र के लिए यह स्थिति उत्साहवर्धक है कि तमिलनाडु में दस साल बाद द्रमुक की वापसी हुई है और केरल में एलडीएफ के नेता पेनाराई विजयन दोबारा चुनकर आए हैं। निश्चित तौर पर कांग्रेस को किसी राज्य में जीत नहीं हासिल हुई है और यह स्थिति भाजपा के विकल्प के रूप में एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कांग्रेस के दावे को कमजोर करती है। इसके बावजूद पश्चिम बंगाल से लेकर तमिलनाडु और केरल तक विपक्षी दलों की शानदार जीत से भारत के संघीय ढांचे को ताकत मिली है और यह उम्मीद बनी है कि संविधान की रक्षा के लिए इस देश में बेचैनी है। अगर विपक्ष समझदार है तो उसे भाजपा के लेफ्ट विहीन बंगाल या कांग्रेस मुक्त भारत के जुमलों से निराश हुए बिना अपने आंदोलनों और संघर्षों से जनता के बीच लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का काम जारी रखना चाहिए।

निश्चित तौर पर पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु का चुनाव केंद्र सरकार की कृषि नीति, तीन कानूनों और कोरोना के बारे में उसके कुप्रबंधन के विरुद्ध एक जनादेश है। लेकिन सिर्फ इतने से न तो विपक्ष की वापसी होनेवाली है और न ही भाजपा अपनी नीतियां बदलने वाली है। यह एक संभावना पैदा करनेवाली स्थिति है लेकिन इससे चमत्कार नहीं होनेवाला है। ममता बनर्जी को अचानक प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर देना भी जल्दबाजी होगी। इसके बावजूद वे एन.टी. रामराव, बीजू पटनायक, करुणानिधि और फारुक अब्दुल्ला की तरह से विपक्षी एकता के लिए एक बड़ी भूमिका निभा सकती हैं। क्षेत्रीय विपक्षी दलों की इस भूमिका को कांग्रेस और वामपंथ को समझना चाहिए और उनके लिए न सिर्फ स्पेस बनाना चाहिए बल्कि उनके लिए विचार और रणनीति का ईंट-गारा भी तैयार करना चाहिए।

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