मिल के चलो…ये वक़्त की आवाज़ है, मिल के चलो

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प्रेम धवन (13 जून 1923 - 7 मई 2001)


— ज़ाहिद ख़ान —

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) और हिंदी सिनेमा दोनों में ही प्रेम धवन की पहचान एक वतनपरस्त गीतकार की रही है। जिन्होंने अपने गीतों से देशवासियों में वतनपरस्ती का जज़्बा जगाया। एकता और भाईचारे का पैग़ाम दिया। अंबाला में जनमे और लाहौर की गलियों में पले-बढ़े प्रेम धवन के पिता लाहौर जेल में वार्डन थे। देश के अलग-अलग हिस्सों में उनकी पोस्टिंग होती रहती थी। यही वजह है कि प्रेम धवन का बचपन कई शहरों में गुज़रा। उनकी नौजवानी का दौर, मुल्क की आज़ादी के लिए जद्दोजहद का दौर था। जेल में सियासी क़ैदियों का आना-जाना लगा रहता था। ख़ासतौर से गदर आंदोलन के नेता। प्रेम धवन ने ना सिर्फ़ इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को क़रीब से देखा, बल्कि उनके युवा मन पर उनकी शख़्सियत और ख़यालात का गहरा असर पड़ा। आला तालीम के वास्ते वे जब लाहौर के मशहूर एफ.सी. कॉलेज में पहुंचे, तो वहां उनकी मुलाक़ात साहिर लुधियानवी से हुई। वैचारिक पृष्ठभूमि एक होने की वजह से यह मुलाक़ात, ज़ल्द ही गहरी दोस्ती में बदल गई।

प्रेम धवन-साहिर को आपस में जोड़ने की एक और वजह थी, दोनों को लिखने का बड़ा शौक़ था। दोनों ही प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे। साहिर ग़ज़ल लिखते थे और प्रेम धवन को गीत रचने में महारत थी। कॉलेज की पत्रिका में दोनों ने उस वक़्त ज़मकर लिखा, छात्र राजनीति की। लाहौर में इप्टा का गठन हुआ, तो प्रेम धवन इससे भी जुड़ गए। इप्टा की गतिविधियों और नाटकों आदि में हिस्सा लिया। तालीम पूरी होने के बाद, नौकरी न करके उन्होंने ‘इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन’ यानी इप्टा को चुना। ताकि कुछ रचनात्मक काम कर सकें। आज़ादी के आंदोलन में अपना भी कुछ योगदान दे सकें।

लाहौर के बाद उस वक़्त बंबई, सांस्कृतिक गतिविधियों का एक बड़ा केन्द्र था। सभी बड़े कलाकारों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की आख़िरी मंज़िल बंबई होती थी। प्रेम धवन भी अपने सपनों को साकार करने के लिए बंबई पहुंच गए। उस वक़्त इप्टा की बंबई शाखा अपने उरूज पर थी, जिसमें बड़े-बड़े कलाकार, गीतकार, संगीतकार, लेखक और निर्देशक जुड़े हुए थे। प्रेम धवन थोड़े से ही अरसे में इस महान टीम का हिस्सा हो गए।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव कॉमरेड पीसी जोशी ने अपने एक लेख में प्रेम धवन की इप्टा में शुरुआती यात्रा को कुछ इस तरह से बयां किया है, ‘‘उसकी आवाज़ ख़ूब सुरीली थी और उसने पंजाब किसान सभा की सांस्कृतिक टीम में गीत गाना शुरू किया। विश्वयुद्ध के दौरान विजयवाड़ा में संपन्न हुए अखिल भारतीय किसान सभा के सम्मेलन में उसकी योग्यता को परखा गया। उसे तुरंत ही केंद्रीय टीम के लिए चुन लिया गया और फिर वह एक गायक और एक प्रतिभावान कम्पोजर के रूप में आगे ही बढ़ता गया। उसने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। वह विभिन्न अवसरों पर मज़दूरों के संघर्षों में और राष्ट्रीय आंदोलनों के समय, जैसे ही कहा जाता समयानुकूल गीत रचने लगा। उसे गीत तैयार करने में समय ही नहीं लगता था।’’

प्रेम धवन की इस खू़बी का इप्टा को आगे चलकर बहुत फ़ायदा मिला। रॉयल इंडिया नेवी के विद्रोह और आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों पर से मुक़दमा वापस लिये जाने के बाद, देश में व्यापक जन उभार पैदा हुआ। अंग्रेज़ हुकूमत इन घटनाओं से हिल गई। भारतीय नेताओं से समझौता वार्ता के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने कैबिनेट मिशन भेजा। इप्टा ने इस मौक़े को माकू़ल समझा और प्रेम धवन से एक विशेष गीत तैयार करवाया। इस गीत में प्रेम धवन ने ब्रिटिश कैबिनेट मिशन को ब्रिटिश बंदर का परंपरागत खेल बताया। जैसे ही यह गीत जनसभा में गाया गया, जनता की ज़बान पर चढ़ गया। उस वक़्त आलम यह था कि यह गीत देश की गली-गली में गूंज रहा था।

आज़ादी के पहले, देश में जब रेलवे के मज़दूरों ने अखिल भारतीय हड़ताल का फ़ैसला लिया, तो इस मौक़े पर प्रेम धवन ने फिर एक लोकप्रिय गीत लिखा। इस गीत का सार कुछ यह था कि –
‘‘जब रेल का चक्का जाम होगा, तो ब्रिटिश शासकों का क्या हाल होगा?’’

उम्मीद के मुताबिक़ उनका यह गीत भी ख़ूब लोकप्रिय हुआ। यह गीत सिर्फ़ रेल मज़दूरों में ही नहीं, बल्कि बाक़ी मज़दूरों में भी दूर-दूर तक मशहूर हुआ।

देश में साम्प्रदायिक दंगों की आग फैली, तो वह इप्टा ही थी, जिसने अपने गीतों, नुक्कड़ नाटक, नाटक और एकांकियों के ज़रिए हिंदू-मुस्लिम एकता और भाईचारा का पैग़ाम दिया। अमर शेख़, अण्णा भाऊ साठे, दशरथ और शैलेन्द्र के साथ प्रेम धवन ने बड़ी तादाद में गीत तैयार किए। ये गीत सड़क, नुक्कड़ और सभाओं में गाए जाते थे। जिनका गहरा असर जनता पर पड़ता। इप्टा की इस साम्प्रदायिकता विरोधी मुहिम में लोग जुड़ते चले जाते। प्रेम धवन का ऐसा ही एक दिलों को जोड़ने वाला शानदार गीत है –
‘‘मिल के चलो, मिल के चलो/ये वक्त की आवाज़ है, मिल के चलो।’’

इप्टा के नाटकों के लिए प्रेम धवन ने अनेक गीत लिखे। गीत लिखने के अलावा उन्हें नृत्य और संगीत में भी गहरी दिलचस्पी थी। उनकी दिलचस्पी का ही सबब था कि उन्होंने पं. रविशंकर से संगीत और पं. उदय शंकर और शांति रॉय बर्धन से विधिवत नृत्य की शिक्षा ली। पूरे चार साल तक प्रेम धवन ने संगीत और नृत्य का प्रशिक्षण लिया। इस तरह प्रेम धवन गीतकार के साथ-साथ कोरियोग्राफ़र और कम्पोजर भी बन गए। इस दौरान उनका लिखना-पढ़ना भी जारी रहा। उन्होंने कई भाषाएं सीखीं। इप्टा के ‘सेंट्रल स्क्वॉड’ में प्रेम धवन का प्रमुख स्थान था। शैलेन्द्र के साथ वे इप्टा के स्थायी गीतकार थे। प्रचलित लोक धुनों पर नई धुन बनाने में उन्हें महारत हासिल थी। हर प्रांत के लोकगीत उन्हें मुंहज़बानी याद रहते थे। प्रेम धवन ने लोक धुनों में ज़रूरत के मुताबिक प्रयोग किए।

इप्टा के सेंट्रल स्क्वॉड यानी केन्द्रीय दल में प्रेम धवन के अलावा अबनी दासगुप्ता, शांति बर्धन, पंडित रविशंकर, सचिन शंकर, गुल बर्द्धन, अली अकबर ख़ान, पंडित उदय शंकर, मराठी के मशहूर गायक अमर शेख़, अन्ना भाऊ साठे, ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे बड़े नामों के साथ-साथ देश के विविध क्षेत्रों की विविध शैलियों से संबंधित सदस्य एकसाथ रहते थे। इनके साहचर्य ने ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’, ‘इंडिया इम्मॉर्टल’, ‘कश्मीर’ जैसी लाजवाब पेशकशों को जन्म दिया। ‘सेंट्रल स्क्वॉड’ अपने इन कार्यक्रमों को लेकर, पूरे देश में जाता था। प्रेम धवन भी इस स्क्वॉड के साथ देश के अनेक हिस्सों में गए और वहां की संस्कृति को करीब से देखा-समझा। इप्टा के चर्चित कार्यक्रम ‘स्पिरिट ऑफ इंडिया’ यानी ‘भारत की आत्मा’ में कथा जैसी जो टीका होती थी, उसकी रचना प्रेम धवन ने ही की थी। जिसे बिनय रॉय गाते थे। प्रेम धवन की देशभक्ति भरी स्क्रिप्ट और गीतों का देशवासियों पर गहरा असर होता था। उनमें वतनपरस्ती का सोया हुआ जज़्बा जाग उठता था।

प्रेम धवन एक कलाकार के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक एक्टिविस्ट भी थे। इप्टा के कलाकार अपनी कला के ज़रिए समाज में एक चेतना फैलाने का काम कर रहे थे। इप्टा उस देशव्यापी जन आंदोलन से जुड़ा हुआ था, जो देश की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था। प्रेम धवन हरफ़नमौला कलाकार थे। नाटकों में गीत लिखने के अलावा उन्होंने कुछ नाटकों में अभिनय भी किया। भीष्म साहनी के निर्देशन में हुए प्रसिद्ध नाटक ‘भूतगाड़ी’ में उनका भी एक रोल था।

देश को आजा़दी मिलने तक इप्टा और उससे जुड़े कलाकारों एवं संस्कृतिकर्मियों का संघर्ष जा़री रहा। आख़िर वह दिन भी आया, जब मुल्क आज़ाद हुआ। आज़ादी की पूर्व संध्या से लेकर पूरी रात भर देशवासियों ने आज़ादी का जश्न मनाया। बंबई की सड़कों पर भी हज़ारों लोग आज़ादी का स्वागत करने निकल आए। इप्टा के सेंट्रल स्क्वॉड ने इस ख़ास मौके के लिए एक गीत ‘‘झूम-झूम के नाचो आज/गाओ ख़ुशी के गीत” रचा, जिसे प्रेम धवन ने लिखा, पंडित रविशंकर ने इसकी धुन बनाई और मराठी के मशहूर गायक अमर शेख़ ने इस गीत को अपनी आवाज़ दी। देश की आज़ादी के बाद, जब इप्टा में बिखराव आया, तो प्रेम धवन भी कुछ समय के लिए इससे अलग हो गए।

इस्मत चुग़ताई की कोशिशों से प्रेम धवन को साल 1948 में ‘बॉम्बे टॉकीज’ की फ़िल्म ‘जिद्दी’ में पहला गाना लिखने का मौका मिला। उनका पहला ही गीत ‘चंदा जा रे जा रे…’ हिट रहा। फ़िल्म की कामयाबी के बाद ‘बॉम्बे टॉकीज’ ने उन्हें गीत लेखन और नृत्य निर्देशन के लिए अनुबंधित कर लिया। संगीतकार अनिल बिस्वास, सलिल चौधरी, मदनमोहन और चित्रगुप्त के साथ उन्होंने काम किया। साल 1955 में आई फ़िल्म ‘वचन’ के गीतों ने प्रेम धवन को वह पहचान दी, जिसका कि वे इंतज़ार कर रहे थे। कमोबेश फ़िल्म के सारे गाने हिट हुए। जिसमें ‘‘चंदा मामा दूर के..’’ गीत तो आज भी श्रोताओं में उतना ही लोकप्रिय है। फ़िल्म ‘वचन’ के बाद साल 1956 में आई, राज कपूर की फ़िल्म ‘जागते रहो’ का ‘‘ते कि मैं झूठ बोल्या…’’ गीत भी प्रेम धवन ने ही लिखा, जो सुपरहिट साबित हुआ।

प्रेम धवन ने अपने फ़िल्मी गीतों में भी अपना सियासी नज़रिया नहीं छोड़ा। जहां उन्हें मौक़ा मिलता, वे अपने गीतों के ज़रिए लोगों को जागरूक करने का काम करते थे। देशभक्ति भरे गीत तो जैसे उनकी पहचान ही बन गए थे।ख़ासतौर से ‘काबुलीवाला’ का ‘‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन..’’ और ‘हम हिंदुस्तानी’ फ़िल्म के ‘‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’’ गीतों ने पूरे देश में धूम मचा दी। देशप्रेम में डूबे, ये गीत खूब पसंद किए गए। इन गीतों की कामयाबी ने प्रेम धवन को फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया।

साल 1965 में निर्देशक मनोज कुमार ने प्रेम धवन की क़ाबिलियत पर यक़ीन जताते हुए, अपनी महत्वाकांक्षी फ़िल्म ‘शहीद’, जो कि क्रांतिकारी भगतसिंह और उनके साथियों के जीवन पर आधारित थी, एकसाथ तीन ज़िम्मेदारी सौंपी। प्रेम धवन को इस फ़िल्म में न सिर्फ गीत लिखने थे, बल्कि संगीत और नृत्य निर्देशन की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। बहरहाल, जब ‘शहीद’ रिलीज हुई, तो इस फ़िल्म का गीत-संगीत बच्चे-बच्चे की ज़बान पर चढ़ गया। ‘जट्टा पगड़ी संभाल’, ‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम’ और ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ और ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ ग़ज़ब के लोकप्रिय हुए। देशभक्ति से भरे उनके ये गीत आज भी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के मौक़े पर पूरे देश में बजते हैं। इन्हें सुनकर हर देशवासी का दिल देशभक्ति के जज़्बे से भर जाता है।

प्रेम धवन ने अपने फ़िल्मी करियर में तक़रीबन 300 फ़िल्मों के लिए गीत लिखे और 50 से ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत दिया। अपने बेमिसाल काम के लिए वे कई मान-सम्मानों से नवाज़े गए। पंजाबी भाषा की फ़िल्म ‘नानक दुखिया सब संसार’ के गीतों के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, तो साल 1970 में भारत सरकार ने फ़िल्मों में प्रेम धवन के महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए, उन्हें देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। अपने जीवन के संध्याकाल में वे फ़िल्मों से दूर हो गए और अपना ज़्यादातर वक़्त उन्होंने पढ़ने-लिखने और इप्टा की गतिविधियों में लगाया। देश की नई पीढ़ी को इप्टा के गौरवशाली इतिहास से जोड़ा। एक लंबा और सार्थक जीवन जीने के बाद, यह देशभक्त आवाज़ 7 मई, 2001 को ख़ामोश हो गई। प्रेम धवन आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके जनवादी और देशभक्ति भरे गीत हमेशा हमारे साथ रहेंगे।

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