— सत्यम पाण्डेय —
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में दुनिया भर में ‘नई आर्थिक नीतियों’ की शुरुआत हुई और ‘भूमंडलीकरण’, ‘उदारीकरण’ और ‘निजीकरण’ शब्द पहली बार लोकप्रिय होते दिखाई दिये। पूरी दुनिया में इन नीतियों के सफलतापूर्वक प्रसारित हो जाने और मान्यता हासिल कर लेने के पीछे आमतौर पर सोवियत संघ के पराभव को माना जाता है। सोवियत संघ के रहते दुनिया एक-ध्रुवीय नहीं हो सकती थी और न ही इस तरह की आर्थिक नीतियाँ बिना किसी प्रतिरोध के वैश्विक संस्थाओं द्वारा लागू कराई जा सकती थीं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि कोई विरोध हुआ ही नहीं हो। भारत में ही आश्चर्यजनक रूप से वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही विचारों की राजनीतिक पार्टियों ने इन नीतियों का अपने-अपने तरीके से प्रतिरोध किया था। स्वदेशी जागरण मंच के अभियान हम लोगों की स्मृतियों में हैं ही। यह अलग बात है कि उसी विचारधारा के लोग आज सत्ता में हैं और स्वदेशी की अवधारणा को ‘प्रत्यक्ष विदेशी निवेश’ (एफडीआई) की लहर में पूरी तरह से भुला दिया गया है।
वर्तमान सरकार ने आर्थिक विकास के लिए उन्हीं नीतियों का अनुकरण किया है जो पूर्ववर्ती सरकार की आर्थिक नीतियाँ थीं और जिन्हें ‘भूमंडलीकरण’ के साथ भारत में अपनाया गया था। फर्क सिर्फ इतना है कि पिछली सरकार धीमी गति से इस रास्ते पर आगे बढ़ रही थी और व्यापक राजनीतिक समर्थन से इतराई मौजूदा सरकार, अपने कॉरपोरेट मित्रों के पक्ष में पूरी ताकत और गति से काम कर रही है। इससे ‘निजीकरण’ की प्रक्रिया में आश्चर्यजनक ढंग से तेजी आयी है। कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों की संपत्ति में कई-कई गुने की बढ़ोतरी हर साल देखने को मिल रही है और साथ ही गरीब जनता की मुश्किलें भी रोज बढ़ती जा रही हैं। इसी प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा है ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ का ‘निजीकरण’।
सरकारें अब ‘निजीकरण’ के बजाय ‘विनिवेशीकरण’ शब्द का इस्तेमाल अधिक करने लगी हैं। इससे ‘निजीकरण’ शब्द की नकारात्मक ध्वनि कम हो जाती है और काम आसान हो जाता है। मौजूदा वित्तमंत्री तो एक कदम आगे बढ़ते हुए एक नया शब्द ही इस प्रक्रिया के लिए लेकर आयी हैं- मौद्रीकरण। बोलचाल की भाषा में इसका मतलब हुआ- घर की संपत्ति को बेचकर नकद रुपया खड़ा करना। फिलहाल सरकार यही कर रही है।
सवाल यह है कि इसमें गड़बड़ क्या है? दुनिया के अनेक देशों में ‘निजीकरण’ पहले से मौजूद रहा है। भाजपा हमेशा से, बल्कि जनसंघ के जमाने से निजीकरण की समर्थक और सार्वजनिक क्षेत्र के विरोध में रही है। हमारे प्रधानमंत्री यह कहने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं कि सरकार का काम उद्योग-धंधे चलाना नहीं होता, बल्कि सरकार को सिर्फ सरकार चलाने से मतलब होना चाहिए। उनके पहले भी उनकी ही पार्टी में ऐसा कहने वाले लोग मौजूद रहे हैं। सवाल है कि क्या सार्वजनिक क्षेत्र की वास्तव में कोई आवश्यकता है? अथवा यह सचमुच हाथी पालने जैसा महँगा शौक है, जैसा कि अनेक लोग कहते भी हैं?
सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र वास्तव में उन आकांक्षाओं का प्रतिफलन है जो आजादी की लड़ाई के दौरान प्रस्फुटित हुई थीं। आजादी के संघर्ष का एक बड़ा आयाम यह भी था कि आजादी के बाद कैसा भारत बनाएंगे? यह सपना सभी ने अपनी-अपनी तरह से देखा था, चाहे वे महात्मा गांधी हों या भगतसिंह, सुभाषचंद्र बोस हों या जवाहरलाल नेहरू। कम्युनिस्ट लोगों के सपने थे, तो कांग्रेसियों के भी थे, लेकिन इनमें से कोई निजीकरण का हिमायती नहीं था।
सुभाषचंद्र बोस जब कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो उन्होंने सोवियत संघ की नीति-निर्माण प्रक्रिया से प्रभावित होकर पार्टी के अंदर योजना आयोग का गठन किया था जिसका उपाध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को बनाया गया था। इस आयोग ने आजादी के बाद देश में नियोजित विकास और सार्वजनित क्षेत्र की आवश्यकता पर जोर दिया था। आजादी के बाद नेहरू ने योजना आयोग तथा उपरोक्त नीतियों पर अमल किया जो वास्तव में आजादी के आंदोलन की उम्मीदों के अनुरूप ही था।
इसी तरह यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि सार्वजनिक क्षेत्र में बनाये गये भारी एवं मूलभूत उद्योगों, बड़े बाँधों, सड़कों, रेलमार्गों आदि के कारण ही, बाद में निजी क्षेत्र भी फल-फूल सका। यदि हमने सार्वजनिक क्षेत्र में बड़ा निवेश नहीं किया होता तो बहुत संभव है कि हमारे यहाँ निजी उद्योग भी उस अनुपात में नहीं पनप सके होते और हम विकास के मामले में अपने अन्य पड़ोसियों के आसपास ही होते।
सार्वजनिक क्षेत्र ने न केवल हमारे देश में बल्कि दुनिया भर में सामाजिक-आर्थिक विकास और राजनीतिक स्थायित्व को जन्म दिया है जिसके चलते लोकतंत्र मजबूत हुआ है। भारत में लोकतंत्र अपने सार्वजनिक क्षेत्र की तरह ही व्यापक, गहराई तक फैला, विकसित हुआ है, जबकि हमारे पड़ोसी देशों खासकर पाकिस्तान में लोकतंत्र बहुत कमजोर रहा है क्योंकि वहाँ कभी भी सार्वजनिक क्षेत्र को विकसित नहीं किया गया।
अगर आप दुनिया के विकसित देशों की तरफ देखेंगे तो समझ में आएगा कि जिन देशों में उल्लेखनीय सामाजिक-आर्थिक विकास हुआ है वहाँ लोकतंत्र, स्थायित्व और सार्वजनिक क्षेत्र मौजूद है। यह पूँजीवादी देशों में भी है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र दरअसल आजकल शासकीय स्वामित्व के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है, न कि सार्वजनिक स्वामित्व के अर्थ में। तमाम विकसित, पूँजीवादी देशों में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएँ सार्वजनिक क्षेत्र में ही हैं। अनेक विकसित देशों में आधारभूत ढाँचा निजी क्षेत्र के पास नहीं है।
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र ने एक व्यापक मध्यम वर्ग तैयार किया है जो परंपरागत कृषि अर्थव्यवस्था और अनौपचारिक बाजार में संभव नहीं था। यह सार्वजनिक क्षेत्र ही है जिसने देश में आर्थिक प्रक्रियाओं को संगठित स्वरूप प्रदान किया और बहुत कम संख्या में ही सही, लेकिन आर्थिक रूप से सशक्त संगठित क्षेत्र के कामगार वर्ग को तैयार किया जो धीरे-धीरे मध्यम वर्ग के रूप में विकसित हुआ। इस मध्यम वर्ग ने देश में उपभोग और उत्पादन की प्रक्रियाओं को गति देकर बाजार को मजबूत करने में अहम भूमिका अदा की है। हाल के वर्षों में दुनिया में जब-जब आर्थिक संकट और मंदी के खतरे सामने आए हैं, भारत को उनसे बचाए रखने में सार्वजनिक क्षेत्र, मध्यम वर्ग और कृषि-केन्द्रित ग्रामीण अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा योगदान रहा है।
हमारे देश में सार्वजनिक क्षेत्र के एक महत्त्वपूर्ण योगदान के बारे में आमतौर पर बहुत कम चर्चा की जाती है, वह है- सामाजिक न्याय का समृद्धिकरण। भारत ऐतिहासिक रूप से विभिन्न सामाजिक वर्गों, खासकर जातियों में विभाजित समाज रहा है और यहाँ दलितों, आदिवासियों, पिछड़े वर्ग और महिलाओं को शिक्षा, रोजगार, गरिमा एवं अवसरों से वंचित रखा गया है।
यदि आजादी के बाद भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से विकास का रास्ता नहीं अपनाया जाता तो बहुत संभव था कि अपने सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के कारण ये वर्ग न बेहतर शिक्षा हासिल कर पाते और न ही सम्मानजनक रोजगार हासिल कर आर्थिक-सामाजिक बराबरी के उस स्तर पर पहुँच पाते जहाँ बहुत-से लोग आज पहुँच सके हैं।
भारत जैसे देशों में सार्वजनिक क्षेत्र का कोई विकल्प नहीं है और उसे हर हाल में बचाए रखना होगा। यह सिर्फ आर्थिक विकास और संपन्नता का उपकरण भऱ नहीं है बल्कि इसे आजादी की लड़ाई के सपने, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय तथा गरिमा के माध्यम की तरह भी देखा जाना चाहिए। बेशक यह आलोचना के परे नहीं है, इसकी चुनौतियाँ भी बहुत हैं और उन पर भी बात की जानी चाहिए।
(सप्रेस)