इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान विद्यार्थी राजनीतिक या पालिटिकल कामों में हिस्सा न लें। पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है। विद्यार्थियों से कॉलेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाए जाते हैं कि वे पालिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे। आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा मंत्री है, स्कूलों कालेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ाने वाला पालिटिक्स में हिस्सा न ले। कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था। वहां भी सर अब्दुल कादर और प्रोफेसर ईश्वरचंद्र नंदा ने इस बात पर जोर दिया कि विद्यार्थियों को पालिटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।
पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ politically backward कहा जाता है। इसका क्या कारण है? क्या पंजाब ने बलिदान कम किए हैं? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिलकुल ही बुद्धू हैं। आज पंजाब कौंसिल की कार्रवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है और विद्यार्थी युवा-जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता। उन्हें इस संबंध में कोई भी ज्ञान नहीं होता। जब वे पढ़कर निकलते हैं तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफसोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता।
जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज ही अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम इस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं – “काका, तुम पालिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमंद साबित होगे।”
बात बड़ी सुंदर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक “Appeal to the young,’ Prince Kropotkin (नौजवानों के नाम अपील, प्रिंस क्रोपोटकिन) पढ़ रहा था. एक प्रोफेसर साहब कहने लगे, यह कौन सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है. लड़का बोल पड़ा- प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे। इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफेसर के लिए बड़ा जरूरी था। प्रोफेसर की ‘योग्यता’ पर लड़का हॅंस भी पड़ा। और उसने फिर कहा – ये रूसी सज्जन थे। बस ! ‘रूसी’ कहर टूट पड़ा। प्रोफेसर ने कहा कि ‘तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पोलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो।’
देखिए आप प्रोफेसर की योग्यता। अब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते हैं?
दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वाइसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वह पालिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबंध से संबंधित कोई भी बात पालिटिक्स के मैदान में ही गिनी जाएगी, तो फिर यह भी पॉलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जाएगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज? फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का ही हुआ। क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चहिए? हम जो समझते हैं कि जब तक हिंदुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करने वाले वफादार नहीं, बल्कि गद्दार हैं; इंसान नहीं, पशु हैं, पेट के गुलाम हैं। तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें।
सभी मानते हैं कि हिंदुस्तान को इस समय ऐसे देशसेवकों की जरूरत है, तन मन धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश के लिए न्यौछावर कर दें। लेकिन क्या बूढ़ों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनियादारी की झंझटों में फॅंसे सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फॅंसे हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो।
क्या इंग्लैंड के सभी विद्यार्थियों का कालेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पॉलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहां थे जो उनसे कहते – जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो। आज नेशनल कॉलेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह में बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जाएंगे? सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहां के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपने देश का अस्तित्व बचा पाएंगे? नौजवान 1919 में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते। वे यह भी समझते हैं कि उन्हें एक भारी क्रांति की जरूरत है। वे पढ़ें। जरूर पढ़ें। साथ ही पालिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों का इसी में उत्सर्ग कर दें। वरन् बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता।
(प्रोफेसर चमनलाल द्वारा संपादित और आधार प्रकाशन, पंचकूला द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘भगतसिंह के संपूर्ण दस्तावेज’ में संकलित लेख)