आज अगर डॉ राममनोहर लोहिया होते…

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मकबूल फिदा हुसेन का बनाया चित्र


— शशि शेखर प्रसाद सिंह —

ज का दिन यानी 23 मार्च दो कारणों से भारत का एक ऐतिहासिक दिन है। आज के दिन 1910 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी तथा समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया का जन्म हुआ था और आज ही के दिन 1931 में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के तीन युवा क्रांतिकारियों भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को ब्रिटिश साम्राज्य ने फांसी पर लटकाया था। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु भारत की आजादी का सपना सॅंजोये देश के लिए कुर्बान हो गए किंतु लोहिया समाजवादी भारत के निर्माण का सपना लिये भारत की राजनीति में 1967 में असमय मृत्यु तक सक्रिय रहे। ब्रिटिश साम्राज्य से देश की आजादी युवा समाजवादी लोहिया और इन युवा क्रांतिकारियों का सपना था लेकिन लोहिया और क्रांतिकारी भगतसिंह दोनों स्वतंत्र भारत को समाजवादी भारत बनाना चाहते थे…किसानों, श्रमिकों, मेहनतकशों का भारत बनाना चाहते थे।

आजाद भारत और समाजवादी भारत का सपना लिये भगतसिंह और अन्य क्रांतिकारी शहीद हो गये लेकिन लोहिया ने अपनी आँखों के सामने भारत को आजाद होते देखा और स्वतंत्र भारत को समाजवादी भारत बनाने के सपने को साकार करने में सड़क से संसद तक जुट गये। आजादी के आंदोलन में समाजवादी लोहिया ने अपने अन्य समाजवादी साथियों के साथ मिलकर 1934 में पटना में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की क्योंकि वे राष्ट्रीय आंदोलन को विचारधारा और दल के आधार पर विभाजित नहीं करना चाहते थे और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लक्ष्य को गांधी के नेतृत्व में समाजवादी विचारधारा की राह पर चलते हुए हासिल करना चाहते थे। यद्यपि कांग्रेस के कई फैसले और उसकी कार्यप्रणाली से मतभेद होते हुए भी उन्होंने आजादी पाने तक कांग्रेस से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को अलग नहीं किया। 1946 में कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव के अंतर्गत स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण के लिए प्रांतों की विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष मतदान के आधार पर चुनी गयी संविधान सभा में भाग नहीं लिया क्योंकि समाजवादी चाहते थे स्वतंत्र भारत की संविधान सभा वयस्क सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर गठित संप्रभु सभा हो लेकिन कांग्रेस को तब भी नहीं छोड़ा।

ब्रिटिश साम्राज्य ने जब अपनी परम्परागत नीति ‘फूट डालो और शासन करो’ की कुटिल नीति की जगह ‘तोड़ चलो छोड़ चलो’ की नीति अपनाई तब भी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने मुस्लिम लीग के देश विभाजन की सांप्रदायिक मांग पर असहमत होते हुए भी विभाजित आजादी को अंततः स्वीकर कर लिया लेकिन आजादी के ठीक पूर्व समाजवादियों को लगने लगा था कि अब समय आ गया है जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को कांग्रेस से नाता तोड़कर स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र की राह चलकर समाजवादी भारत के निर्माण के सपने को साकार करने के लिए सत्ता की डगर की जगह सड़क से संसद तक के संघर्ष की डगर चुनना चाहिए, और यही कारण था कि आजादी के कुछ ही महीनों के भीतर 1948 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के समाजवादी साथी कांग्रेस से अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर संसदीय लोकतंत्र की राजनीति में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए, मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए तैयार हो गए।

कोरी सत्ता की चाह कभी समाजवादियों का राजनीतिक लक्ष्य नहीं रहा, तभी तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में शामिल होने के प्रस्ताव को समाजवादी जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया ने समाजवादी भारत के उद्देश्य के लिए सहर्ष अस्वीकार कर दिया।

समाजवादी लोहिया और अन्य समाजवादी नेताओं की बिल्कुल साफ समझ थी कि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के समक्ष संसद में मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है तभी सरकार के ऊपर अंकुश रह पाएगा और लोकतंत्र में सरकार के अधिनायकवादी होने की संभावना खत्म हो पाएगी। उनकी यह स्पष्ट मान्यता थी कि निर्वाचन में जनता के समक्ष भविष्य की वैकल्पिक सरकार की छवि होनी चाहिए अन्यथा एक ही दल की सरकार बार बार जीतती जाएगी।

1951-52 के प्रथम लोकसभा चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समक्ष एक राजनैतिक चुनौती पेश की। यद्यपि सोशलिस्ट पार्टी को कोई बड़ी राजनैतिक सफलता नहीं मिली, कुल मतों के 10.59 प्रतिशत मत के साथ उसे मात्र 12 सीटें ही प्राप्त हुईं लेकिन मतों के प्रतिशत के हिसाब से यह नेहरू की कांग्रेस के बाद लोकसभा में दूसरे नंबर की पार्टी थी। समाजवादी और खासकर लोहिया ने यद्यपि नैतिकता की सैद्धांतिक राजनीति से कभी समझौता नहीं किया किंतु उनकी स्पष्ट समझ थी कि विधायिका में संख्याबल में कमजोर विपक्ष की उपस्थिति, सरकार और उसके नेतृत्व को, नागरिक स्वतंत्रता को सीमित कर अधिनायकवाद के लिए प्रोत्साहित करेगी। इसलिए उन्होंने 1951-52 के चुनाव के बाद समाजवादी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी के विलय का समर्थन किया और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विरोध के पीछे वैचारिक मतभेदों के साथ-साथ यह लोकतांत्रिक धारणा भी सदैव काम करती रही कि कांग्रेस का सत्ता पर चुनावी एकाधिकार लोकतंत्र के हित में नहीं है और कांग्रेस को पराजित करने के लिए चुनावी रणनीति की तात्कालिक आवश्यकता लोकतंत्र की जरूरत है।

1963 में गैरकांग्रेसवाद की अवधारणा लोहिया की उसी चुनावी रणनीति का हिस्सा थी। लोहिया ने देखा था कि 1952 से लेकर 1962 के तीसरे लोकसभा चुनाव और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस का लगभग वर्चस्व स्थापित हो गया था हालांकि केरल में 1957 के विधानसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कांग्रेस को हराने में कामयाबी मिली तो निर्वाचित मुख्यमंत्री नंबूदरीपाद की सरकार को नेहरू की सरकार के सुझाव पर 1959 में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 356 का सहारा लेकर हटा दिया गया। लोहिया की आशंका सही प्रमाणित हो रही थी कि लोकतंत्र में एक दल के वर्चस्व वाली निर्वाचित सरकार भी अलोकतांत्रिक आचरण कर सकती है। भारतीय लोकतंत्र में राज्यों की चुनी हुई सरकारों को हटाने के अधिकांश मामलों में संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग के लिए संघ (केंद्र) में एक दल के वर्चस्व वाली सरकारें उत्तरदायी रही हैं। यही कारण था कि लोहिया को लगा कि तात्कालिक चुनावी रणनीति के तहत गैर-कांग्रेसवाद के आधार पर गैरकांग्रेसी मतों को विभाजित होने से रोकने का यही बेहतर विकल्प है।

1967 में कई राज्यों के चुनाव में गैरकांग्रेसी दलों के आपसी चुनावी तालमेल का राजनीतिक परिणाम भी निकला और कांग्रेस को कई राज्यों की विधानसभाओं में बहुमत नहीं मिला तथा वहाँ मिलीजुली (संविद) गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं। इतना ही नहीं, 1967 के चौथे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बहुमत पाने में तो कामयाब रही लेकिन न सिर्फ कांग्रेस की लोकसभा सीटों में 78 सीटों की बड़ी कमी आयी और 283 पर कांग्रेस रुक गयी बल्कि कांग्रेस के कुल मतों के प्रतिशत में भी भारी कमी आयी और उसे लगभग 40.78 फीसद मत मिले।

आज भी लोहिया के वैचारिक आलोचक के अलावे पूर्वाग्रही बुद्धिजीवी तथा पत्रकार लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद को अकसर भारतीय राजनीति में हिंदुत्ववादी भारतीय जनसंघ और उसके नये अवतार भाजपा की चुनावी सफलता के लिए उत्तरदायी ठहराकर अपने कर्तव्य की पूर्णाहुति मान लेते हैं।

लोहिया तो आजादी के 20 वर्ष बाद ही असमय भारतीय राजनीति में एक दीर्घकालीन शून्य छोड़कर संसार से विदा हो गए किंतु एक कमजोर विपक्ष किस तरह से लोकतंत्र में भी सरकार को तानाशाह बना सकता है उसका उदाहरण लोगों ने अपनी आंखों से 25 जून की आधी रात को 1975 में आपातकाल की घोषणा के रूप में देखा और भुगता। 1973 में गुजरात में कांग्रेस के चिमन भाई पटेल की सरकार के खिलाफ नवनिर्माण आंदोलन के बाद 1974 में बिहार में छात्र आंदोलन, जो जेपी आंदोलन के नाम से इतिहास में दर्ज है, के बाद जिस प्रकार से कांग्रेस की बिहार की अब्दुल गफूर सरकार से लेकर केंद्र की इंदिरा सरकार ने लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचलने की कोशिश की और अंततः संविधान के अनुच्छेद 352 का दुरुपयोग कर रात के अंधेरे में देश को 19 महीने के लिए अंधेरे में डाल दिया। नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा दिया गया, प्रेस पर सेंसरशिप लग गई, जेपी सहित तमाम विपक्षी नेताओं को मीसा जैसे काले कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया गया और मानो ऐसा लगा कि लोकतंत्र का अंत हो गया।

यहां ध्यान रखने की बात है लोहिया कहते थे कि अगर सरकार बहुत मजबूत हुई तो जनतांत्रिक अधिकारों को भी खतरा होगा और लोकतंत्र भी तानाशाही में बदल जाएगा.

इसलिए आपातकाल के 19 महीने बाद जब 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो लोहिया के ही एक समाजवादी साथी जयप्रकाश नारायण ने उसी गैरकांग्रेसवाद की अवधारणा को मूर्त रूप देते हुए कई गैरकांग्रेसी पार्टियों के विलय से एक नये राजनीतिक दल ‘जनता पार्टी’ का निर्माण करवाया और 1977 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा के वर्चस्व वाली कांग्रेस पार्टी की भारी पराजय के साथ जनतंत्र की रक्षा हुई।

जनता पार्टी की सरकार बनी और उसने अपने ढाई साल के काल में संविधान में आवश्यक संशोधन कर भविष्य में अनुच्छेद 352 के दुरुपयोग को रोकने के साथ नागरिक स्वतंत्रताओं को भी सुरक्षित बनाया। जेपी के 1977 के तात्कालिक राजनीतिक प्रयोग के पीछे लोहिया की अदृश्य प्रेरणा थी। अतः यह समझने की आवश्यकता है कि लोहिया एक दूरदर्शी राजनेता के रूप में अपनी मृत्यु के बाद भी कितने समसामयिक बने रहे। आज भी भारतीय जनतंत्र की चुनौतियों के समाधान का लोहिया के राजनीतिक विचारों में, लोहिया के राजनीतिक कार्यकलापों में और उनकी दूरदृष्टि में उपादेयता बनी हुई है।

लोहिया अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करते थे। यही कारण है कि आज भारतीय राजनीति में एक भी नेता लोहिया के आसपास भी नहीं क्योंकि लोहिया एक नाम नहीं, समाज, अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक परिवर्तन की सामयिक दृष्टि है। किस राजनीतिक नेता में आज यह दम है कि अपनी ही सरकार की गलत नीतियों का, किसान विरोधी नीतियों का, मजदूर विरोधी नीतियों का विरोध कर सके और अपने दल की सरकार से इस्तीफा मांग ले। लोहिया ने त्रावणकोर की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की सरकार के द्वारा किसानों पर पुलिस द्वारा गोली चलाने के खिलाफ 1954 में सरकार से इस्तीफे की मांग की थी।

लोहिया मान कर चलते थे कि सड़कों पर जन प्रतिरोध से ही संसद की आवारगी पर रोक लग सकती है और इसके लिए प्रतिपक्ष को न सिर्फ संसद में बल्कि संसद के बाहर भी निरंतर सरकार की गलत नीतियों का शांतिपूर्ण संगठित विरोध करना होगा।

आज लगातार ऐसा लग रहा है कि फिर से भारतीय राजनीति में एक दल के वर्चस्व का दौर लौट आया है और उसी प्रकार से एक चुनी हुई सरकार की अधिनायकवादी प्रवृत्तियां उसकी नीतियों और कार्यकलापों में साफ-साफ परिलक्षित हो रही हैं। कई नागरिक स्वतंत्रता विरोधी कानूनों के द्वारा और पुलिस तथा सरकारी अभिकरणों का दुरुपयोग करके नागरिक समाज तथा विपक्षी राजनीतिक पार्टियों में डर पैदा कर विरोध के स्वर को कुचला जा रहा है। संसद हो या संसद के बाहर, यदि प्रतिरोध है तो उसे तमाम तरीके से कुचलने की कोशिश की जाती है या उसे चुप कराने की कोशिश की जाती है। यदि विपक्षी नेता प्रतिरोध की बात करते हैं तो उनके खिलाफ झूठे मुकदमे और आरोप लगाकर उन्हें परेशान किया जाता है।

याद रहे कैसे पहले किसान विरोधी ऑर्डिनेंस राष्ट्रपति के लाया लाया गया था और फिर उस किसान विरोधी अध्यादेश को संसद में अपने बहुमत के बल पर, विरोध के स्वर को दबाते हुए, तीनों किसान विरोधी कानून पारित करा लिये गए थे। किसानों के लगातार एक वर्ष के निरंतर शांतिपूर्ण संघर्ष के पश्चात आखिरकार, उत्तर प्रदेश में चुनावी परिणाम के उलटने के डर से, उसी मोदी सरकार ने उन तीनों किसान विरोधी कानूनों को वापस ले लिया था, यद्यपि आज भी किसानों की मांगें पूरी नहीं हुई हैं। तीन दिन पूर्व ही 20 मार्च किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल सभा की थी।

संसद में सरकार अपने बहुमत के बल पर विपक्षी नेताओं को बोलने नहीं दे रही है और लगातार कई दिनों से संसद के दोनों सदनों को ठप कर दिया गया है। संसद को सरकारी दल के द्वारा किसी विपक्षी नेता के विदेश में दिये गए भाषण के लिए माफी मांगने के लिए ठप किया जा रहा है जो जनतंत्र में इसलिए एक अजूबा उदाहरण है क्योंकि सत्तारूढ़ दल अपने विशाल बहुमत के बल पर विपक्ष को एक पूँजीपति के द्वारा लाखों करोड़ के शेयर बाजार घोटाले के संबंध में प्रश्न पूछने से रोकना चाहती है और संयुक्त संसदीय समिति से जाँच की मांग को उठाने देना नहीं चाहती है।

आज भारतीय जनता पार्टी के किसी सांसद में इतना साहस नहीं कि इस लोकतंत्र विरोधी अपने दल के कदम के खिलाफ आवाज उठा सके। यदि लोहिया होते तो तनकर, अपनी ही सरकार हो तो भी, उसकी तमाम गलत नीतियों के विरोध में सड़क पर प्रतिरोध करते, जेल जाते। लोहिया ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ कई बार जेल गए, शारीरिक व मानसिक यंत्रणा सही बल्कि पुर्तगाली साम्राज्य के खिलाफ गोवा के मुक्ति संग्राम में भी जेल गए, और तो और, आजादी के बाद के हिंदुस्तान में भी कितनी बार जेल गए, कितनी बार अदालतों में स्वयं अपनी वकालत की और अदालतों को उन्हें छोड़ना पड़ा। भारतीय जनतंत्र में लोहिया के समान जनतंत्र के प्रति समर्पित और नागरिक अधिकारों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए चट्टान की तरह सरकार के समक्ष खड़ा हो जाने वाला कोई नेता नहीं।

लोहिया जब कहा करते थे कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं तो इसका अर्थ यह था- चुनाव के बाद नागरिकों को चुप हो करके बैठ जाना नहीं चाहिए, उन्हें लगातार सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना चाहिए क्योंकि जनतंत्र में जनता के विरोध के बिना जनतंत्र के मृतप्राय हो जाने की आशंका बढ़ जाती है।

आज लोकसभा का चुनाव हारने वाले नेताओं को राजनीतिक दलों के द्वारा राज्यसभा में भेजा जाता है। लोहिया लोकसभा और विधानसभा में हारने वाले नेताओं को पिछले रास्ते राज्यसभा में भेजने को जनभावनाओं के खिलाफ मानते थे। राज्यसभा के लिए समाजवादी राजनारायण के द्वारा परचा भरने के बाद उनसे उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर की थी और बातचीत करने से इनकार कर दिया था। कथनी और करनी का सामंजस्य और राजनीति में नैतिकता के मामले में लोहिया विरले उदाहरण थे। इस मामले में अपनी बात कहने के क्रम में कठोर भाषा का भी प्रयोग करने से नहीं चूकते।

आज राजनीति में नेता के प्रति जो भक्ति देखी जाती है और नेताओं के द्वारा अपने आसपास जो आडंबर फैलाया जाता है लोहिया उस राजनैतिक संस्कृति के सख़्त विरोधी थे।

उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि नेताओं के जीवनकाल में उनका जन्मदिन नहीं मनाया जाना चाहिए क्योंकि उनकी मृत्यु के कुछ साल बाद ही उनके कार्यों का सही मूल्यांकन हो सकता है। लोहिया ने लोकसभा में जिस प्रकार से तीन आना बनाम तीन रुपया की बात कहकर प्रधानमंत्री नेहरू की जीवनशैली पर सवाल उठाया था और आम आदमी के अभाव की जिंदगी की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट किया था वह आज भी संसदीय इतिहास का बेहतरीन उदाहरण है।

अगर लोहिया होते तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार के समक्ष एक ऐसा मजबूत नेता होता जो अपने स्पष्ट विचार, राजनैतिक साहस और कर्तव्यनिष्ठा के कारण जनता के बीच लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता का मुस्तैद प्रहरी होता और जैसे कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए कभी चुनावी रणनीति के तहत गैरकांग्रेसवाद का नारा दिया था, उसी प्रकार आज भारतीय जनता पार्टी के इस वर्चस्व की राजनीति के खिलाफ, उसकी अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ उनकी हार को सुनिश्चित करने के लिए सभी गैरभाजपाई दलों को एक मंच पर लाने की कोशिश भी करते और उनके अंदर यह विश्वास भरते कि तुम्हारे वोटों का विभाजन ही भारतीय जनता पार्टी की जीत का कारण है, जिस दिन तुम सभी सही तालमेल कर चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को चुनौती दोगे उस दिन भारतीय जनता पार्टी की हार सुनिश्चित होगी और जो अघोषित आपातकाल का दौर चल रहा है बल्कि उससे भी भयानक दौर चल रहा है- जहाँ अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव, नफरत और हिंसा फैलाई जा रही, पूंजीपतियों के पक्ष में सरकार के खजाने लुटाए जा रहे हैं, वहाँ लोहिया जन प्रतिरोध का बिगुल बजाकर नेतृत्व करते।

आज के राजनेताओं में सत्ता की भूख तो बहुत है किंतु वर्चस्ववादी अधिनायकवादी नीतियों को चुनौती देने की इच्छाशक्ति की भारी कमी। जिस प्रकार से धर्म की राजनीति हो रही है, जिस प्रकार से बहुमतवादी राजनीति चलाने की कोशिश हो रही है- यह भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है इसलिए आज लोहिया होते तो भाजपा की जनतंत्र विरोधी राजनीति को नकारने के लिए और देश में जनतंत्र की रक्षा करने के लिए जेपी की तरह जन प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहे होते….

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