— अरुण कुमार त्रिपाठी —
आंबेडकर को कैबिनेट में शामिल कराने में गांधी ने किस तरह भूमिका निभाई इसका प्रमाण डा आंबेडकर के जीवनीकार डा सीबी कैरमोड़े प्रस्तुत करते हैं। वे दिसंबर 1946 में बंबई में आंबेडकर और उनकी अंग्रेज मित्र मुरियल लेस्टेर की एक बातचीत का जिक्र करते हैं। लेस्टेर लंदन में गांधी और आंबेडकर की मुलाकात में उपस्थित थीं। इस महिला ने आंबेडकर को बताया कि गांधीजी चाहते हैं कि कांग्रेस आंबेडकर को केंद्रीय कैबिनेट में शामिल करे और उनकी प्रतिभा और नेतृत्व का देश के लिए इस्तेमाल करे। डा कैरमोड़े के अनुसार, जब लेस्टेर ने गांधीजी से बताया कि उनकी डा आंबेडकर से बात हुई है तो उन्होंने पटेल और नेहरू से कहा कि वे डा आंबेडकर को मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए आमंत्रित करें।(द गुड बोटमैन : राजमोहन गांधी)।
गांधी ने आंबेडकर को फुसलाने की कोशिश की थी इसका प्रमाण फरवरी 1947 में उनके पूर्वी बंगाल में दिए गए बयान से मिलता है। मुस्लिम लीग की ओर से संविधान सभा के बायकाट पर अफसोस जताते हुए गांधी ने कहा, “संविधान सभा में शामिल होने के लिए डा आंबेडकर काफी हैं।’’
संविधान सभा में आंबेडकर के शामिल होने की कथा भी रोचक और तनावपूर्ण है। सन 1946 में वे संविधान सभा के लिए पहली बार बंगाल से चुने गए। उस समय उनकी पार्टी का नाम था ऑल इंडिया शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन। बंगाल की 250सदस्यीय विधानसभा में उनकी पार्टी के 26 सदस्य थे। तब कांग्रेस से उनका सहयोग कायम नहीं हो पाया था। कांग्रेस ने न तो आंबेडकर के लिए सीट खाली की और न ही उनका समर्थन किया। इस सीट को जीतने के लिए आंबेडकर को मुस्लिम लीग की मदद लेनी पड़ी। इस प्रयास में मुस्लिम लीग के नेता जोगेंद्रनाथ मंडल ने उनकी मदद की। उन्हें नामशूद्रों का समर्थन प्राप्त था और उन्होंने डा आंबेडकर के लिए प्रचार किया। इस तरह से डा आंबेडकर संविधान सभा में पहुँचे जरूर लेकिन उनकी यह सीट ज्यादा दिन रह नहीं पायी। इसी बीच देश का विभाजन हो गया और डा आंबेडकर की वह सीट पाकिस्तान के हिस्से में चली गई। उनका समर्थन करने वाले जोगेंद्रनाथ मंडल पाकिस्तान चले गए और वे वहाँ के कानून मंत्री बन गए। लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें पाकिस्तान की हकीकत का अहसास हुआ और उन्होंने महसूस किया कि यहाँ अछूत समाज के साथ न्याय नहीं होगा और न ही पाकिस्तान वादे के मुताबिक एक सेक्यूलर देश रहने वाला है। इसलिए वे भारत वापस आ गए।
इधर आंबेडकर की सीट छिन जाने से वे परेशान हुए। उनके सहयोगियों ने यह भी कहना शुरू किया कि नेहरू ने साजिश करके उन्हीं जिलों की सीट पाकिस्तान के हिस्से में डलवाई है जिनसे डा आंबेडकर चुने गए थे। डा आंबेडकर ने अपनी सीट हासिल करने के लिए वायसराय वावेल से बात की। वायसराय ने इस मामले में कुछ करने में असमर्थता जताई। हालांकि डा आंबेडकर का कहना था कि जिस संविधान सभा में अछूतों का प्रतिनिधित्व नहीं होगा उसके द्वारा बनाया गया संविधान उन्हें और उनके लोगों को स्वीकार्य नहीं होगा। इसके लिए अस्पृश्य समाज के लोगों ने देश के भीतर सत्याग्रह भी शुरू किया। कांग्रेस पार्टी और नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए डा आंबेडकर लंदन भी गए। वहाँ उन्होंने प्रधानमंत्री एटली से मिलकर इस बारे में दबाव बनाने का अनुरोध किया। एटली ने भी यही कहा कि यह कांग्रेस का आंतरिक मामला है और वे इस बारे में कुछ नहीं कर सकते। डा आंबेडकर ने मंत्रिमंडल के अकेले अनुसूचित जाति के सदस्य जगजीवन राम से कहा कि वे भी तब तक मंत्रिमंडल में न शामिल हों जब तक उन्हें न शामिल किया जाए।
डा आंबेडकर की इच्छा, सत्याग्रह और तमाम प्रयासों की जानकारी कांग्रेस के नेताओं को मिल रही थी और आखिरकार उनका यह प्रयास काम आया और संविधान सभा के अध्यक्ष डा राजेंद्र प्रसाद ने महाराष्ट्र के प्रधान बीजी खेर से कहा कि प्रसिद्ध विधिवेत्ता और शिक्षाशास्त्री एम.आर. जयकर के इस्तीफा देने से जो सीट खाली हुई है उस पर वे डा आंबेडकर का चयन करवाएँ। इस तरह डा आंबेडकर को दोबारा संविधान सभा में चुनकर लाने में डा राजेंद्र प्रसाद ने पहल की थी। जिस कांग्रेस पार्टी ने बंगाल प्रांत में उनके चुने जाने का विरोध किया था उसी ने उनका बांबे प्रांत से चयन करवाया। निश्चित तौर पर इस प्रयास के पीछे महात्मा गांधी की सलाह की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अस्पृश्यता के बारे में डा आंबेडकर की चेतना विद्रोही और आर्थिक, राजनीतिक मुद्दों पर आधारित थी। उसका समाधान सत्ता में हिस्सेदारी में दिखाई देता था। गांधी की चिंताएँ मानवीय और आध्यात्मिक थीं और उन्हें इसका समाधान हृदय परिवर्तन में दिखाई देता था। लेकिन गांधी आंबेडकर के दबावों को लगातार महसूस कर रहे थे और इस बारे में राजनीतिक उपाय करने के लिए उनके हृदय में भी परिवर्तन हो रहा था। यही वजह थी कि आंबेडकर को गांधी की चिंताएँ पाखंड लगती थीं जबकि गांधी को आंबेडकर की चिंता वाजिब, किंतु समाधान अलगाववादी लगता था। आंबेडकर लगातार गांधी पर तीखे प्रहार कर रहे थे और गांधी ने एक बार उसका कड़ा प्रतिरोध जरूर किया लेकिन बाद में उसे हर कीमत पर सहने को तैयार थे। गांधी अपने प्रतिद्वंद्वियों से लड़ते जरूर थे लेकिन उनके शब्द कभी कड़े नहीं होते थे। आंबेडकर अपने प्रतिद्वंद्वी से कानूनी, राजनीतिक और नैतिक तर्कों से तो लड़ते ही थे, कठोर शब्दों के प्रयोग से भी वे झिझकते नहीं थे। लेकिन इन दोनों नेताओं में समानता का बड़ा आधार यही है कि हिंसा में दोनों का विश्वास नहीं था।
अस्पृश्यता के बारे में गांधी की चिंता 26 अक्तूबर 1947 को भी प्रकट होती है। वे कहते हैं, “आज हम जो झेल रहे हैं वह अस्पृश्यता के पाप का परिणाम है।’’
इससे पहले जून(1947) के महीने में जब उनसे पूछा गया कि “भारतीय गणराज्य का राष्ट्रपति कौन होगा? क्या हम जवाहरलाल नेहरू को राष्ट्रपति नहीं बनाएंगे? ’’ गांधीजी ने कहा, “अगर मेरी चले तो मैं भारतीय गणराज्य की पहली राष्ट्रपति एक पवित्र और बहादुर भंगी लड़की को बनाना पसंद करूँगा। अगर 17 साल की एक अंग्रेज लड़की ब्रिटिश साम्राज्ञी बन सकती है और बाद में भारत की साम्राज्ञी स्थापित हो सकती है तो कोई कारण नहीं है कि अपनी जनता के लिए जबरदस्त प्रेम रखने वाली और निस्संदेह विश्वसनीयता वाली लड़की क्यों नहीं इस देश की पहली राष्ट्रपति हो सकती है।…..उसकी आँखें सीता जैसी पवित्र होनी चाहिए और उसकी आँखों से किरणें निकलनी चाहिए। सीता में इसी तरह की चमक थी इसीलिए रावण उसे छू नहीं पाया था। अगर मेरे सपनों की ऐसी लड़की भारत की राष्ट्रपति बनती है तो जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और राजेन्द्र बाबू को उसका मंत्री बनाऊँगा और इस तरह उसका सेवक नियुक्त करूँगा।’’ (द गुड बोटमैन : राजमोहन गांधी)।
गांधी की राजनीति और उनकी महात्मा की छवि के लिए कड़ी आलोचना का भाव रखते हुए भी समय-समय पर डा आंबेडकर के भीतर गांधी के लिए सम्मान और सहयोग का भाव छलकता था। इसकी एक झलक 1927 के उस महाड़ सत्याग्रह में भी दीखती है जिसमें दिसंबर की रैली में लगे टेंट में गांधी की फोटो थी। दो साल पहले डा आंबेडकर ने बेलगाम परिषद की एक बैठक में कहा था, “जब हमारे नजदीक कोई नहीं आ रहा है तब महात्मा गांधी की तरफ से दिखाई गई सहानुभूति भी छोटी चीज नहीं है।’’(दलित एंड न्यू डेमोक्रेटिक रिवल्यूशन : गेल आम्वेट)।
(जारी)