“सौंदर्य और कामुकता सहयोगी है, हालांकि कामुकता के बिना कोई प्रेम नहीं है और प्रेम के बिना कोई सुंदरता नहीं है”।

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खजुराहो का एक शिल्प


“वे कोई विक्टोरियन अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति नहीं थे। जो मैथुन को एक ऐसे पुरुष और महिला जो ‘पवित्र’ विवाह बंधन में नहीं थे, के मध्य बने शारीरिक संबंधों की तुलना में अधिक रक्षात्मक मानते थे। वे व्यभिचार से घृणा करते थे जबकि वे कुंवारे थे। सेक्स उनके लिए वर्जित नहीं था। बनर्जी, कलाबोवा मित्रा और स्किनस उस भीड़ का हिस्सा नहीं थे, जिनके साथ वे दिन-रात घूमा करते थे। उनकी मान्यता थी कि “सौंदर्य और कामुकता सहयोगी है, हालांकि कामुकता के बिना कोई प्रेम नहीं है और प्रेम के बिना कोई सुंदरता नहीं है।”

रचनाकारों की नजर में। भाग -2,) तीसरी किस्त।

— प्रोफेसर राजकुमार जैन —

डुपी राजगोपालचार्य (यू.आर.) अनंतमूर्ति की पहचान, इंग्लैंड की बकिंघम यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में पीएच.डी उपाधि ग्रहण करके बेंगलुरु यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी का अध्यापन करने से लेकर दो-दो विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बनना, ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता, पद्मभूषण से सम्मानित रहे व्यक्ति के रूप में नहीं उनकी पहचान कन्नड़ साहित्य के रचनाकार तथा खासतौर से उनके कालजयी उपन्यास ‘संस्कार’ से है। समाजवादी विचार दर्शन, डॉ राममनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाले अनंतमूर्ति ने लिखा है, डॉ राममनोहर लोहिया मेरी दृष्टि में एक असाधारण चिंतक और साहसी समाजवादी नेता थे। मैं उनका विद्यार्थी जीवन से ही प्रशंसक रहा हूं। आज भी उनकी अनेक प्रेरक स्मृतियां मेरे मन में जागृत रहती हैं। मैंने हमेशा लोहिया को भारत की उस महान श्रमण परंपरा में आने वाले के रूप में देखा है। हमें इस सदी ने महात्मा गांधी और डॉक्टर लोहिया जैसे महापुरुष दिए हैं। अपने लेखन के संदर्भ में लोहिया से हुए विमर्श के संदर्भ में अनंतमूर्ति लिखते हैं, उस समय मैं उनसे 12वीं शताब्दी के कन्नड़ वचनकारों के राजनीतिक और आध्यात्मिक विद्रोह के बारे में बात करने गया था, डॉक्टर लोहिया ने असाधारण उत्सुकता के साथ ब्राह्मण विद्रोही बसवा, जिन्होंने एक नीच जाति के व्यक्ति का विवाह ब्राह्मण कन्या से करवाया था और महिला संत अक्का महादेवी, जिन्होंने नग्न होकर पुरुषों के साथ अपनी आध्यात्मिक समानता का दावा किया था, के जीवन वृत्त के बारे में मेरी जानकारी की पड़ताल की थी। ये दोनों 12वीं शताब्दी के आंदोलनों के महान कवि थे। उस दिन लोहिया के सवालों और टिप्पणियों से इस आंदोलन के बारे में मेरी अपनी समझ और भी बढ़ गई थी।

लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘मार्क्स, गांधी और समाजवाद’ में अपनी सहमति-असहमति दोनों को ईमानदारी से रखा है।अपने लेख में अन्य बातों के साथ-साथ तफसील से मार्क्स -गांधी पर लोहिया की दृष्टि का विश्लेषण किया है।

फाकामस्ती के साथ-साथ इंकलाबी जज्बे से भरे हुए उन दिनों के लोहिया के दोस्त सत्यव्रत सेन ने “मेरा मित्र” लेख में शुरू से लेकर आखिर तक उनके साथ बिताए गए दिनों को कलमबंद किया है। उन्होंने कुछ ऐसे किस्से भी बताए जिनको पढ़कर आंखें नम हो जाती हैं। ऐसा ही एक उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा : ‘मैं यहां उनके पिता से भी मिला। वे बहुत गरीब थे मुझे बहुत पसंद करते थे। मैं उनके बेटे के राजनीतिक कार्यों के लिए धन एकत्र करता था। वे प्रखर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने 30 के दशक के पूर्वार्ध में गांधीजी के असहयोग आंदोलन के दौरान जेल की सजा काटी थी। मैं उनसे 1942 के आंदोलन के दौरान प्रेसिडेंसी जेल में दोबारा मिला। लगभग 2 साल तक हम एक ही जेल में रहे। जेल में 500 से अधिक राजनीतिक बंदियों द्वारा उनका सम्मान किया जाता था। वे सभी को प्रिय थे। वे सारा दिन हॅंसते और सबसे मजाक करते रहते थे। इस अत्याचार को समाप्त करने के लिए भगवान से गुहार लगाते थे। उस समय राममनोहर भूमिगत हो गए थे और पूरे देश में घूम रहे थे। वे भूमिगत रेडियो और “करो या मरो” नामक एक पत्र के प्रकाशन में व्यस्त थे। किसी को अंदाजा नहीं था कि पिता को बेटे की चिंता है। रात के अंधेरे में हीरालाल जी मेरे पास आते और साजिशी लहजे में मुझसे पूछते, बेटा, तुम्हें मनोहर की खबर मिली क्या? 1945 में कुछ समय के लिए उन्हें रिहा किया गया और कुछ समय के बाद, अपने इकलौते बेटे की रिहाई से बहुत पहले, इस शहर में बस यात्रा के दौरान अचानक हृदय गति रुकने से उनकी मृत्यु हो गई। लोग समझते थे कि राममनोहर किसी धनी मारवाड़ी के पुत्र हैं।

कुछ दिन पहले जब वे यहां थे, तो उन्होंने मुझसे कहा था “तुम्हें पता है, सतु, मैंने अपना 57वॉं साल पूरा कर लिया है। मेरे पिता और दादा दोनों का देहांत 57वें साल में हो गया था।”

भोला चटर्जी को सोशलिस्ट तहरीक में खतरों से खेलने वाले, एक प्रखर बुद्धिजीवी, जिन्होंने जयप्रकाश नारायण का खत रंगून में बर्मी सोशलिस्ट नेता यू वासवे को पहुंचाने तथा नेपाली तानाशाही के खिलाफ लड़ रही नेपाली कांग्रेस के लिए शस्त्रों से भरा एक जहाज पहुंचाने का इंतजाम भी किया। अपने लिखने के अनोखे अंदाज में उन्होंने एक लंबा लेख “तार्किक आदमी का अकेलापन” में मुख्तलिफ मुद्दों पर लोहिया के नजरिए को पेश किया है। उनके लेख की रेंज को इन दो नमूनों से थोड़ा अंदाजा लगाया जा सकता है। लोहिया ने लिखा है कि “ब्रह्मचर्य आमतौर पर एक जेल घर है। ऐसी कैद आत्माओं से कौन नहीं मिला है, जिनका कौमार्य उन्हें जकड़े रहता है और जो एक मुक्तिदाता की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। जाति और महिला रूपी दो अलगाव- मुख्यतः आत्मा के इस पतन के लिए जिम्मेदार हैं। इन अलगावों में रोमांच और आनंद के लिए सभी क्षमता को खत्म करने की पर्याप्त शक्ति निहित है।”

वे (लोहिया) कोई विक्टोरियन अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति नहीं थे जो मैथुन को एक ऐसे पुरुष और महिला जो ‘पवित्र’ विवाह बंधन में नहीं थे, के मध्य बने शारीरिक संबंधों की तुलना में अधिक रक्षात्मक मानते थे। वे व्यभिचार से घृणा करते थे, जबकि वे कुंवारे थे। सेक्स उनके लिए वर्जित नहीं था। बनर्जी, कलाबोवा, मित्रा और स्किनस {लोहिया की महिला मित्र} उस भीड़ का हिस्सा नहीं थे, जिसके साथ वे दिन-रात घूमा करते थे। उनकी मान्यता थी कि ”सौंदर्य और कामुकता सहयोगी हैं, हालांकि कामुकता के बिना कोई प्रेम नहीं है और प्रेम के बिना कोई कोई सुंदरता नहीं है।”

उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की होगी जो तर्क करने की अपनी क्षमता का उपयोग करने पर जोर देता है, ऐसे समय में जब अन्य लोग शास्त्रों में लिखी बातों का पालन करना पसंद करते हों : जो देश, महाद्वीपों की सीमा से परे हो। और शायद यही कारण है कि शूमाकर, मिलोवन जिलास, अल्बर्ट आइंस्टीन, मोशे शरेट, स्ट्रिंगफेलो बर्र, एचएन और इवामारिया, हबीब बोर्गिबा, तैयब स्लिम, कमल जूमबर्ल्ट, लुईस फिशर और सत्येन बोस जैसे पुरुषों के प्रति उनके मन में इतना आकर्षण था।

किताब में नेविल मैक्सवेल के “डॉ. लोहिया – एक संक्षिप्त संस्मरण” लेख को भी शामिल किया गया है। मैक्सवेल एक प्रमुख पत्रकार, लेखक होने के साथ-साथ लोहिया के आलोचनात्मक प्रशंसक थे। उन्होंने बिना किसी भूमिका के मुख्तसर रूप से कई आयामों पर बेबाक अपनी बात लोहिया के सामने रखी थी। लोहिया ने भी उसी तरह बिंदुवार अपने विचार, उनके सुझावों को और अधिक पुष्ट करने के लिए दिए थे। उनके लेख की शुरुआत को पढ़कर लग सकता है कि वह लोहिया के कटु आलोचक हैं परंतु पूरा लेख पढ़ने पर वे लोहिया के सकारात्मक रूप को स्वीकार करते हुए नजर आते हैं।

एक समय डॉक्टर लोहिया के सचिव रहे, के.एस. कारंत के लेख “डा. लोहिया की यादें” में लिखा कि वे दिल के धनी, सार्वभौमिक दृष्टिकोण से संपन्न बेहद समृद्ध बुद्धि वाले एक महान इंसान थे। वे वास्तव में ऐसे चमत्कार थे जिनमें पूर्व और पश्चिम में मौजूद दोनों सभ्यताओं के दोषों को देखने की क्षमता थी और जिनके पास एक नई सभ्यता की परिकल्पना करने की दृष्टि थी।

यह हमारे देश के सार्वजनिक जीवन पर एक दुखद टिप्पणी है कि उनकी प्रतिष्ठा और कद के नेता के पास प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव था। उनके जीवन के अंत तक उनके पास सहायता के लिए योग्य सचिव नहीं थे। उनके पास स्टेनो नहीं था, उनके पास पूर्णकालिक टाइपिस्ट भी नहीं था। इन सुविधाओं के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। मारवाड़ी व्यापारिक समुदाय में जन्मे लोहिया जीवन भर पर्याप्त सुख-सुविधा के साथ रह सकते थे, अगर वे अपने सिद्धांतों से केवल थोड़ा सा समझौता करने के लिए तैयार होते। लेकिन वह ऐसा नहीं करेंगे उन्होंने सिद्धांतों की खातिर उन सभी को त्यागना पसंद किया। मैं यह कहने की हिम्मत करता हूं कि लोहिया एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने मुझ पर एक संत की छाप छोड़ी। वे कभी-कभी मुझे अपने साथ रेस्टोरेंट चलने के लिए कहते थे ऐसे मौके पर मैं होटल के वेटरों को उनकी मेज के चारों ओर चक्कर लगाते और उनके साथ वर्तमान राजनीतिक समस्याओं पर चर्चा करते हुए देखता था जैसे कि वह उनमें से ही एक हों। उन्होंने कभी उनके प्रति नाराजगी नहीं दिखाई। वे उनसे शालीनतापूर्वक और स्नेह से बात से किया करते थे। मैंने एक बार उन्हें एक वेटर को शर्मा जी कहकर संबोधित करते देखा और फिर उन्होंने एक क्षेपक की तरह कहा, “क्या एक वेटर को ‘हे बॉय’ के रूप में संबोधित किया जाना चाहिए?” जिसका तात्पर्य था कि उन्हें इस तरह के अशोभनीय शब्दों से संबोधित नहीं किया जाना चाहिए।

इस पुस्तक में तीन लेखों, अशोक मेहता द्वारा लिखित “राममनोहर लोहिया, मधु लिमये के लेख “राममनोहर लोहिया और उनके विचार” तथा सुरेंद्र मोहन के “राजनीतिज्ञ लोहिया- उनके विचारों के कुछ पहलू” लेख को शामिल किया गया है। यह तीनों लोहिया के सहकर्मी, साथी तथा शागिर्द की हैसियत से निकट संपर्क में रहे। तीनों ने लोहिया की वैचारिकी पर अपने लेख में विस्तार से विमर्श किया है। इनके अध्ययन से सोशलिस्टों की वैचारिक पद्धति, सिद्धांतों, नीति कार्यक्रमों, रणनीतियों तथा इतिहास के दिग्दर्शन होते हैं।

अशोक मेहता एक फेबियन सोशलिस्ट थे। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में उन्होंने और लोहिया ने शाने- बशाने एक साथ काम किया था। सोशलिस्ट चिंतक के रूप में उन्होंने कई किताबें लिखीं। उनमें और लोहिया में वैचारिक भिन्नता के भी कई आयाम हैं, परंतु व्यक्तिगत संबंधों के बारे में एक बार लोहिया ने लिखा था कि अपनी युवावस्था में हम दोनों देर रात तक राजनीति से अलग भी बात किया करते थे।

मधु लिमये लोहिया धारा के सबसे प्रमुख व्याख्याकार, पैरोकार तथा वैचारिक ट्रस्टी हैं। डॉक्टर लोहिया को नजदीक और गहराई से उन्होंने समझा तथा अनुकरण किया। सोशलिस्ट नेता सुरेंद्र मोहन पहले प्रजा समाजवादी पार्टी तथा बाद में सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता, व्याख्याकार रहे हैं। सोशलिस्ट आंदोलन के हर दौर में उनकी एक प्रमुख भूमिका रही है। पार्टी संगठन चलाने तथा उसकी नीतियों के प्रचार-प्रसार को भी उन्होंने बखूबी निभाया है।

पुस्तक के अंत में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक अध्याय, लोहिया द्वारा स्थापित मैनकाइंड पत्रिका (अंग्रेजी) के प्रथम संस्करण में लोहिया द्वारा बिना नाम के लिखा गया लेख भी शामिल किया गया है।

इस किताब की एक और ख़ासियत यह भी है कि हर लेख के बाद, संपादक ने लोहिया द्वारा समय-समय पर कही गई महत्त्वपूर्ण बातों को सूक्ति के रूप में अंकित किया है। उन सबको मिलाकर ही एक पुस्तक का आकार दिया जा सकता है, जिससे लोहिया को बिना पूरे पढ़े ही बहुत कुछ लोहिया का फलसफा पाठकों को मिल जाएगा।

किताब में जहाँ विद्वानों ने लेखों के माध्यम से लोहिया की शख्सियत के मुख्तलिफ आयामों पर तस्किरा किया है। वहीं इस किताब में देश के नामी कवियों बालकृष्ण राव, नरेश सक्सेना, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बालकवि वैरागी, ओंकार शरद, प्रदीप कुमार तिवारी, उमाकांत मालवीय ने अपनी कविताओं से लोहिया को अपनी सिराज ए अकीदत पेश की है। इनकी कविताएँ उच्च स्तर के प्रतिमानों, भावों, अलंकारों, प्रतीकों पर लिखी गई हैं।

लोहिया का अपने बारे में कहना था कि “आज मेरे पास कुछ नहीं है सिवाए इसके कि हिंदुस्तान के साधारण लोग और गरीब सोचते हैं कि मैं शायद उनका आदमी हूँ।’

किताब के संपादक अपने संपूर्णता के ख्वाब को किस हद तक अमली जामा दे पाये हैं, इसका अंतिम फैसला तो पढ़ने वाले ही कर पाएंगे।

(समाप्त)

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