चित्तप्रसाद की कला यात्रा

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— संजय गौतम —

प्रसिद्ध चित्रकार, साहित्यकार, विभिन्न कलाओं के सर्जक अशोक भौमिक की किताब है- चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला। लगभग तीन सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में चित्तप्रसाद की कला यात्रा और उनके जीवन प्रसंगों की जानकारी विस्तार से दी गई है। इसकी चर्चा के पहले हम यह जान लें कि अशोक भौमिक उन्हें क्यों खास मानते हैं।

अशोक भौमिक भारतीय चित्रकला के गंभीर अध्येता हैं। वह भारतीय कला परंपरा की प्रगतिशील धारा और प्रतिगामी धारा की परख तो करते ही हैं, प्रगतिशीलता के नाम पर बाजार का हो जाने और विचलन का शिकार हो जाने वाले कलाकारों की गंभीर आलोचना भी करते हैं।उनकी दृष्टि में रवींद्रनाथ ठाकुर और अमृता शेरगिल अपनी चित्र यात्रा में एकदम आधुनिक और प्रगतिशील हैं तो ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ के संस्थापक कलाकार सूजा, रज़ा, हुसेन, गाडे, आरा इत्यादि बाजारवादी। हालांकि समीक्षक “उनके मार्क्सवादी और प्रगतिशील होने को उनके व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण पक्ष मानकर कला बाजार में उन्हें एक जन पक्षधर और प्रगतिशील कलाकार के रूप में स्थापित करने की निरंतर कोशिश करता रहा है।” यहाँ तक कि भारत की आजादी की लड़ाई में भी उन्हें शामिल दिखाया जाता रहा है। विश्लेषण करते हुए अशोक भौमिक आगे लिखते हैं, “यहाँ यह सवाल उठाना लाजमी है कि अगर कला इतिहासकार सूजा, रजा, हुसैन, गाडे, आरा आदि चित्रकारों को प्रगतिशील मानते हैं तो चित्तप्रसाद, जैनुल आबेदीन, रामकिंकर, सोमनाथ होर, कमरुल इस्लाम आदि कलाकारों के लिए कौन सा विशेषण प्रयोग करेंगे? जनता और उनके आंदोलनों से सीधे जुड़ कर चित्तप्रसाद सरीखे चित्रकारों ने प्रगतिशील कला के जिन मूल्यों को स्थापित किया वहीं नारी को एक यौन विकृत नजरिए से देखते हुए सूजा ने अपने चित्रों में उनका अपमान किया।… यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि जनपक्षधर कलाकारों को दरकिनार कर, व्यवस्था और बाजार ने कुछ कलाकारों को अपने स्वार्थ के चलते प्रगतिशील कहकर गलत इतिहास रचने का प्रयास किया और उनकी ऐसी कोशिशों में सच्चे प्रगतिशील कलाकारों को लोगों ने भुला दिया।”

अशोक भौमिक

इस एक उद्धरण से ही यह समझना आसान है कि अशोक भौमिक का उद्देश्य सिर्फ चित्तप्रसाद की कला विशेषताओं को उजागर करना भर नहीं है बल्कि उनके हिसाब से भारतीय कला इतिहास के समीक्षकों द्वारा किए गए मूल्यांकन की गलती पर तीखी टिप्पणी करना एवं उसे सुधारना भी है। उनका यह बोध पूरी किताब में जगह-जगह प्रस्फुटित हुआ है।

चित्तप्रसाद का जन्म 1915 में हुआ और 63 वर्ष की अवस्था में 1978 में उन्होंने बीमारी से दुनिया को छोड़ा। अत्यंत कम उम्र से ही वह चित्रों की ताकत समझ गए और प्रायः अंत तक चित्रों पर काम करते रहे। वह कल्पनाओं में खोए रहने वाले कलाकार नहीं थे बल्कि दुखी पीड़ित जनता के बीच उतरकर उनकी पीड़ा को हरने का प्रयास करते हुए चित्रकारी करने में लगे रहे। आजादी के दौर और खासतौर से बंगाल के अकाल की अमानवीय जीवन यात्रा का जैसा चित्र चित्तप्रसाद ने खींचा है वह और कहीं नहीं मिलता है। प्रोफेसर अवधेश प्रधान ने अपनी भूमिका में ठीक ही कहा है, ‘जिस प्रकार प्रेमचंद ने साहित्य के रंगमंच पर सदियों से जमे हुए राजाओं, रानियों के स्थान पर गाँव देहात के किसान- होरी और धनिया और उनकी संतानों- को स्थापित किया, उसी प्रकार चित्तप्रसाद ने अपने चित्रों में जनसाधारण को स्थापित करके सौंदर्य की कसौटी बदल दी। (पृ.10)

अशोक भौमिक ने ‘चित्तप्रसाद होने का अर्थ’, ‘चित्तप्रसाद और उनका समय’, ‘चित्तप्रसाद के चित्रों में महिलाएं’, ‘चित्तप्रसाद के चित्रों में बच्चे’, ‘चित्तप्रसाद के चित्रों में मजदूर और किसान’, ‘चित्तप्रसाद के चित्रों में प्रेम’, ‘चित्तप्रसाद के चित्रों में सशस्त्र प्रतिरोध’, ‘चित्तप्रसाद की चित्रकला’, ‘चित्तप्रसाद : अकाल का खबरनवीस और हंगरी बेंगाल’, ‘चित्तप्रसाद : एक जिंदगी बिखरी सी’ शीर्षकों के अंतर्गत चित्तप्रसाद के चित्रों के विभिन्न पहलुओं का विस्तार से विश्लेषण किया है। चित्रों को विभिन्न शीर्षकों के साथ रखकर विश्लेषण करने से, तथा साथ ही चित्र दिए जाने से पाठक को चित्रों का परिप्रेक्ष्य तो समझ में आता ही है चित्रों को देखने, समझने और महसूस करने की आँख एवं मन का भी विकास होता है।

हम बार-बार चित्रों को देखते हैं और उनकी रेखाओं की ध्वनियों को सुनने का प्रयास करते हैं। लीनोकट माध्यम से बने श्वेत श्याम चित्र में उस समय के इतिहास की मूर्त–अमूर्त यात्रा कराते हैं और हमारा बोध विकसित करते हैं। हम देखते हैं कि कैसे चित्तप्रसाद के जीवन में परिवर्तन के साथ-साथ उनके चित्रों की दिशा बदलती है। बस एक चीज नहीं बदलती है, उनकी जनपक्षधरता और सामान्य आदमी के जीवन को उभारने के प्रति प्रतिबद्धता। वह जल्द ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए थे और उसकी नीतियों के अनुरूप चित्र, प्रसार पोस्टर इत्यादि बनाया, लेकिन जब राजनीति से असंतुष्ट हुए तब उन्होंने अपने तरीके से जीवन को देखा और चित्र बनाए।

बंगाल के अकाल का चित्र उन्होंने बहुत मार्मिक रूप में खींचा। बंगाल का अकाल कोई प्राकृतिक आपदा नहीं थी। यह विशुद्ध रूप से मानव निर्मित आपदा थी। अंग्रेजों ने अपनी नीतियों से भूख मिटाने के रास्ते बंद कर दिए। अनुमानतः सत्ताईस से तीस लाख लोग भूख से मरे, पशुओं की संख्या कौन गिने। मानवता तार-तार हो रही थी। अन्न के लिए एक दूसरे को मार देना भी सामान्य हो गया था। नालियों के ऊपर से माड़ निकालकर खाने के लिए लोग विवश थे, कूड़ेदान में से अन्न के दाने खोज कर खाए जा रहे थे। चित्तप्रसाद ने न केवल तमाम चित्र बनाए बल्कि ‘हंगरी बंगाल’ नाम से रिपोर्ट भी लिखी, जिसपर प्रतिबंध लगाया गया। इन चित्रों में कंकाल जैसे दिखते मनुष्य और सूखी पसलियों वाले बच्चे उस समय की हौलनाक स्थिति को बताने के लिए काफी हैं।

अंग्रेज कंकाल के ढेर पर अपनी सत्ता चला रहे थे। उनकी रपट का एक छोटा सा अंक उल्लेखनीय है- ‘मिदनापुर जाते हुए लोगों की भीड़ से भरे हुए ट्रेन के डिब्बे में बैठे-बैठे मेरे मन में बार-बार कलकत्ते के फुटपाथ पर देखे हुए आम दृश्य उभर रहे थे। वे सब टूटे हुए, असहाय जीवित कंकालों का जुलूस- जिसने कभी बंगाल के समूचे ग्रामीण समाज को बनाया था। मछुआरे, मल्लाह, कुम्हार, बुनकर, किसान। इन सबों के परिवार दर परिवार। सियालदह स्टेशन के आर्महर्स्ट स्ट्रीट के बीच की छोटी सड़क पर एक सुबह मैंने अपनी आंखों से पाँच लोगों के शव देखे थे।(पृ.205)

इसी तरह के तमाम अनुभवों से गुजरकर उन्होंने जो चित्र बनाए उनमें से एक चित्र इसी पृष्ठ पर दिया गया है। मरा हुआ आदमी, कुत्ता जैसे अंतड़ियों को नोचता हुआ, अगल- बगल में बैठे हुए गिद्ध, लुढ़का हुआ पानी का बर्तन(लोटा)। कुल मिलाकर यह चित्र अकाल की मार्मिक गाथा स्वयं कह रहा है।

चित्तप्रसाद, नंदलाल बोस से प्रभावित थे। वही नंदलाल बोस, जिन्होंने गांधीजी के कहने पर कांग्रेस के अधिवेशनों के लिए बहुत से चित्र बनाए। चित्तप्रसाद ने गांधीजी को लेकर उनके समावेशी रूप के चित्र बनाए तो बाद में उनपर व्यंग्य भी किया। यह पार्टी और उनके विचारों में परिवर्तन को दर्शाता है। अपने जीवन पर बनी एक दस्तावेजी फिल्म ‘कन्फेशन’ में उन्होंने अपने और अपनी कला के बारे में कहा है, “मैं नैतिकतावादी और राजनीतिक सुधारकों की परंपरा का प्रतिनिधित्व करता हूँ। मनुष्य को बचाना ही अपने आप में कला को बचाना है। एक चित्रकार के समस्त कलाकर्म का अर्थ मृत्यु का सक्रिय निषेध है।” (पृ.132)

किताब में चित्तप्रसाद की कला पर सोमनाथ होर, प्रभाकर कोल्टे, प्रभास सेन, चालसानी प्रसाद राय के आलेख हमें उनकी चित्रकला को समझने में मदद करते हैं। चालसानी प्रसाद राय लिखते हैं, “कला को हमारे देश के साधारण लोगों की भाषा में गढ़ने की परंपरा के अनुसंधान में रत रखकर उन्होंने तत्कालीन कलाकारों को पीछे छोड़ दिया था। चित्तप्रसाद ने अपने देश और विदेश की परंपरागत और आधुनिक कला के विभिन्न मोड़ों की अत्यंत गहराई से पड़ताल की थी। जर्मन कलाकार कैथे कोलविट्ज के अलावा उन्होंने मैक्सिको, चीनी और जापानी चित्रकला, काष्ठशिल्प, गोइया के व्यंग्यात्मक चित्रों, मुगल और राजपूत दृष्टियों, बौद्ध गुफा चित्रों और मूर्तियों और डेविड लो के काम का भी अनुशीलन किया था। बंगाल की लोक चित्रकला को आत्मस्थ करके अपनी निजी चित्रभाषा अर्जित करने से पहले तक वे इन सब सब कार्यों से गहरे अनुप्राणित रहे थे।” (पृ.272)

पुस्तक में पी.सी. जोशी का कय्यूर के शहीदों के बारे में रिपोर्ताज अंग्रेजी में प्रकाशित है, जिसका शीर्षक है ‘इंटरव्यूज विद कय्यूर हीरोज’। चित्तप्रसाद ने कय्यूर के शहीदों की स्मृति में भी चित्र बनाए थे। राजनेताओं के रेखाचित्र और उनकी पेंटिंग गैलरी से चयनित रंगीन चित्र पुस्तक को मुकम्मल बनाते हैं।

यह पुस्तक चित्तप्रसाद की कला यात्रा को विस्तार से और विविध कोणों से देखने के लिए भरपूर सामग्री से समृद्ध है, साथ ही भारतीय चित्रकला के उस परिप्रेक्ष्य का भी उदघाटन करती है जिससे चित्तप्रसाद जुड़े और सही मायने में ‘भारतीय चित्रकार’ का दर्जा पा सके। अशोक भौमिक को यह अफसोस है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त मान सम्मान पाने के बावजूद भारतीय कला मंचों पर उनके प्रति उपेक्षा का भाव बना रहा और उनके योगदान को समुचित तरीके से रेखांकित नहीं किया गया। इसके विपरीत प्रगतिशीलता का छद्म ओढ़े लोगों ने राष्ट्रीय मंचों से लेकर अंतरराष्ट्रीय कला बाजार तक अपना प्रभाव बनाए रखा। निश्चित ही यह किताब इस परिप्रेक्ष्य में चित्तप्रसाद के चित्रों के प्रति पाठकों की समझ बढ़ाने में अपना योगदान करेगी।

किताब : चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला
लेखक : अशोक भौमिक
प्रकाशक : नवारुण प्रकाशन
सी 303, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टर 9 वसुंधरा, गाजियाबाद- 201012 मो.- 9811577426
मूल्य : 550 रुपए

1 COMMENT

  1. अशोक भौमिक जी की महत्वपूर्ण क़िताब पर डॉ० संजय गौतम जी ने बहुत सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की है. उन्हें हार्दिक बधाई!
    – शिव कुमार पराग, वाराणसी

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