— जयशंकर गुप्त —
जिनके साथ आप कभी बहुत गहरे जुड़े रहे हों, जिनके बारे में बहुत अधिक जानते हों, उनके बारे में कुछ लिखना कितना मुश्किल होता है, यह आज मुझे मधु जी यानी देश के महान समाजवादी नेता और चिंतक, राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के महान सेनानी, गोवा मुक्ति संग्राम के महानायक, नागरिक अधिकारों और समाज के दबे-कुचले, दलित, शोषित, पीड़ित, वंचित, पिछड़े और हाशिए पर रहने वाले लोगों के हक के लिए लड़ने और उन्हें विशेष अवसर दिए जाने की वकालत करने वाले, सांप्रदायिकता के साथ किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करनेवाले, संविधान और संसदीय मामलों के मर्मज्ञ और हमारे जैसे देश के हजारों समाजवादी युवजनों के नेता, पथ प्रदर्शक और वैचारिक गुरु रहे मधु लिमये के बारे में उनके जन्मशती वर्ष के समापन पर कुछ लिखते समय महसूस हो रहा है। मधु जी का जन्म एक मई 1922 को महाराष्ट्र के पुणे शहर में हुआ था। लेकिन साठ के दशक से उनकी राजनीतिक कर्मभूमि बिहार और दिल्ली ही रही। दिल्ली में ही उन्होंने 8 जनवरी 1995 को अंतिम सांस ली थी।
मधु जी के साथ हमारा जुड़ाव किशोरावस्था से ही रहा। हमारे पिता, स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी नेता, पूर्व विधायक स्व. विष्णुदेव उत्तर प्रदेश में उनके बेहद करीबी सहयोगियों में रहे। इस लिहाज से मधु जी का अक्सर उत्तर प्रदेश में हमारे मधुबन, मऊ, आजमगढ़ में आना-जाना लगा रहता था। उन्हें उनकी सभाओं में सुनना, उनसे मिलना अजीब तरह की वैचारिक ताजगी और ऊर्जा प्रदान करता था। पढ़ाई के क्रम में भी जब कभी मधु जी इलाहाबाद आते, उनसे मिलना अवश्य होता।
लेकिन आपातकाल के दौरान जब हम आजमगढ़ की जेल से बाहर निकलकर भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हुए तो मधु जी के साथ पत्र व्यवहार के जरिए जुड़ाव और ज्यादा बढ़ गया। हम तब इलाहाबाद में समाजवादी युवजन सभा के कार्यकर्ता थे और वहीं छात्र-युवा राजनीति में सक्रिय थे। लेकिन आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद तत्कालीन आजमगढ़ जनपद (अभी मऊ) के अपने पैतृक गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे। वहीं जुलाई के पहले सप्ताह में हमारी गिरफ्तारी हो गई और हम आजमगढ़ जेल भेज दिए गये। कुछ दिन बाद, 15 अगस्त 1975 को हमारे पिताजी अपने समाजवादी सहयोगी साथियों के साथ आपातकाल के विरोध में मधुबन में स्वतंत्रता संग्राम के वीर सेनानियों की याद में लगनेवाले शहीद मेले में सत्याग्रह-प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए। कई महीने आजमगढ़ की जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई और एक बार जो हम जेल से बाहर निकले तो दोबारा वापस नहीं गए। आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए। उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, जेल में और जेल के बाहर भी संघर्ष के साथियों से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह-जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था।
इलाहाबाद में हमारा परिवार था। वहीं रहते पहले नरसिंहगढ़ और फिर भोपाल जेल में बंद मधु जी से पत्र संपर्क हुआ। वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे।
उनके साथ हमारा पत्राचार कूट भाषा (कोड वर्ड्स) में होता था। मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला।’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी’। यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था। और मधु जी बिहार के बांका से सांसद तो थे ही। एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए’। यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया।’
आपातकाल के दौरान जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति (हिंदी में बहुत सुंदर और सुगढ़ लिखावट उनके साथ जेल में बंद विनोद कोचर जी की थी, जो गिरफ्तार होकर जेल में आए तो थे आरएसएस के स्वयंसेवक-प्रचारक के रूप में लेकिन मधु जी के संसर्ग में रहते उनका विचार परिवर्तन हो गया और वह पक्के गांधीवादी, समाजवादी हो गए) हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-वितरण हो सके। इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर पांडुलिपि मिल जाए तो लिखना कि ‘दमा की दवा मिल गयी है।’
उस समय हम लोगों के सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी। मेरे आग्रह पर मधु जी ने कुछ लोगों के नाम पत्र लिखकर आपातकाल के विरोध में मेरी भूमिका का उल्लेख करते हुए लिखा कि ‘विष्णु (देव) पुत्र’, जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है। इसकी हरसंभव मदद करें।’
इन लोगों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाए गए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवतीनंदन बहुगुणा, उनके करीबी और उनके साथ ही उत्तर प्रदेश के महाधिवक्ता के पद से त्यागपत्र देनेवाले वरिष्ठ अधिवक्ता श्यामनाथ कक्कड़, उनके सहयोगी समाजवादी अधिवक्ता रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, वरिष्ठ अधिवक्ता सत्येंद्रनाथ वर्मा, रविकिरण जैन, इलाहाबाद हाईकोर्ट में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध समाजवादी नेता राजनारायण का मुकदमा लड़ने और जीतकर श्रीमती गांधी का चुनाव अवैध घोषित करवानेवाले वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण, उनके सहयोगी समाजवादी अधिवक्ता रमेशचंद्र श्रीवास्तव एवं अन्य कई और लोग शामिल थे।
हेमवतीनंदन बहुगुणा से मिलना एक रोमांच से कम नहीं था। उनके मुख्यमंत्री पद छोड़ने के कुछ समय बाद ही हम उनसे इलाहाबाद के उनके निवास पर मिले थे। हमने उनका सहयोग-समर्थन पाने की गरज से ‘झूठ’ का सहारा लिया। उनसे कहा कि मधु जी ने उनके त्यागपत्र की सराहना करते हुए लिखा है कि बहुगुणा जी जैसे लोगों के रहते लोकतंत्र मर नहीं सकता। खुश होने के बजाय उन्होंने हमसे वह पत्र दिखाने को कहा, जो हमारे पास था ही नहीं। बाद में हमने सच बताकर मधु जी से इस आशय का पत्र हासिल कर उन्हें सौंप दिया। बहुगुणा जी ने मधु जी के सम्मान में बहुत सारी बातें कहीं और कुछ पैसे देते हुए कहा कि जब तक बहुत आवश्यक न हो, आइंदा घर पर नहीं आना।
मधु जी के पत्र के साथ एक बार हम और लोहिया विचार मंच के समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हा लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी जबकि हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था। हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करने की बात करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था क्योंकि चौधरी साहब की जेल से रिहाई को लेकर भी तमाम तरह की बातें हवा में तैर रही थीं। लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम उनसे मिलने लखनऊ, उनके निवास पर गए। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा। हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनेवाली थीं। हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था। मधु जी का पत्र आया कि चौधरी के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहां जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को माफीनामानुमा कई पत्र लिखने के साथ ही संघ को बीस सूत्री और पांच सूत्री कार्यक्रमों के प्रचार का इच्छुक एनजीओ बताते हुए संघ पर से प्रतिबंध हटाने और उनके प्रचारकों-स्वयंसेवकों को जेल से रिहा करने का अनुरोध किया था। यह भी लिखा था कि बिहार आंदोलन तथा जेपी के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से संघ का कुछ भी लेना देना नहीं है। लेकिन इंदिरा गांधी के यहां से उनके अनुरोध को स्वीकार करने के बजाय कहलवाया गया था कि माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर भरने होंगे। इसके बाद से जेलों में माफीनामे भरने का क्रम शुरू हो गया था।
आपातकाल के दौरान 1976 में लोकसभा की मियाद बढ़ाकर पांच से छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र तो छोटे लोहिया के नाम से मशहूर समाजवादी नेता, लोकदल के सांसद जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था। मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम! मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया। जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं। लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा।
हम इलाहाबाद से मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे। अपने पते की जगह बाबा जी का बाग स्थित अपने बड़े भाई के निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे।
एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया। उससे हम परेशानी में पड़ सकते थे क्योंकि उस पते पर कोई रविशंकर रहता ही नहीं था और न ही अशोक को इसके बारे में कुछ पता था। संयोगवश रविशंकर की खोज कर रहे डाकिये से हमारी मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया। हमने मधु जी को लिखा कि ‘‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी। आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं।’’ इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरू हो गए।
कुछ समय बाद हमारे दोनों बड़े भाइयों के परिवार के साथ हम भी इलाहाबाद के दारागंज स्थित अपने मकान में चले गए थे। वहां भी पुलिस ने मेरी खोज में दबिश दी थी। हम तो बच-बचाकर निकल भागे लेकिन पुलिस हमारे दोनों बड़े भाइयों को थाने में ले गई। उनके साथ वहां गाली-गलौज और बदसलूकी की गई। दोनों भाई सरकारी कर्मचारी थे। थाने से घर लौटने के बाद उन लोगों ने डर के मारे मेरे सभी कागज-पत्रों को आग के हवाले कर दिया। इस बात का मलाल मुझे आज तक है। अगर मधु जी के वह पत्र सलामत रहे होते तो उनसे बहुत सारी बातें निकलकर सामने आतीं।
आपातकाल की समाप्ति के बाद दिल्ली में उनके निवास पर हुई मुलाकात में मधु जी ने बताया था कि जेल में किस तरह वे हमारे पत्र बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे। वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह ‘स्मगल’ कर बाहर भिजवाते थे। कई बार अपनी पत्नी चम्पा लिमये जी के हाथों भी बाहर कहीं से पोस्ट करवाते थे।
आपातकाल हटने और केंद्र में जनता सरकार बनने के बाद, जनता पार्टी के स्थापना सम्मेलन के समय हम भी इलाहाबाद के साथियों के साथ उनके आर्थिक सहयोग से दिल्ली गए थे। वहां वेस्टर्न कोर्ट में मधु जी के पास रहकर हमने जनता पार्टी के संगठनात्मक चुनाव, चंद्रशेखर जी के पार्टी का अध्यक्ष बनने की अंतर्कथा भी करीब से देखी-सुनी और समझी थी। बाद में मधु जी के साथ बातचीत में हमने उनके सामने जेपी आंदोलन, आपातकाल के विरोध में सक्रिय युवाओं-कार्यकर्ताओं की भावी भूमिका को लेकर सवाल किया था कि सभी लोग तो मंत्री, सांसद-विधायक नहीं बन सकते थे, ऐसे लोगों को अपनी सरकार के रहते क्या करना चाहिए! क्या ऐसा संभव है कि जनता पार्टी के चुनावी वादों पर अमल के लिए रचनात्मक संघर्ष के जरिए दबाव बनाने की भूमिका हम लोग ले सकते हैं! मधु जी ने साफ कुछ नहीं कहा, अलबत्ता यह समझाने की कोशिश की कि अभी सरकार बनने के तुरंत बाद ही इसके विरुद्ध संघर्ष के गलत संकेत निकल सकते हैं।
इस बीच उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव घोषित हो गए। हमारे पिता जी को उत्तर प्रदेश जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड का सदस्य बनाया गया था। लेकिन ‘सिटिंग गेटिंग’ के फारमूले के तहत हमारे पड़ोसी, जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर जी ने अंतिम समय में पिताजी का टिकट काट दिया था। इसके विरोध में अपने कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों के व्यापक जन दबाव के मद्देनजर पिताजी बगावत कर चुनाव लड़ गए। मतदान से कुछ ही दिन पहले मधु जी ने वाराणसी से ट्रेन से सलेमपुर-बरहज जाते समय मुझे बुलवाया। ट्रेन में, पूरे रास्ते मुझे समझाते रहे कि विष्णुदेव को समझाकर रिटायर करवाओ, चंद्रशेखर बहुत नाराज हैं। हमने बताया कि हम लोग चुनाव जीत रहे हैं। इस पर उन्होंने समझाया कि चंद्रशेखर उन्हें विधान परिषद में भेजने को तैयार हैं। लेकिन हम पर एक तो युवा जोश और कार्यकर्ताओं का दबाव भी सवार था, हम लोग नहीं माने और चुनाव मैदान में डटे रहे। नतीजतन चंद्रशेखर जी की नाराजगी और बढ़ गई और वह रामधन जी के साथ सायकिल से अपने गांव इब्राहिम पट्टी (बलिया) से हमारे पिताजी के चुनाव क्षेत्र नत्थूपुर (अभी मधुबन) में आए और जनता पार्टी के पूर्व कांग्रेसी उम्मीदवार की जीत और पिताजी की हार सुनिश्चिच करवाई। हम लोग मामूली मतों के अंतर से चुनाव हार गए। लेकिन उसके बाद भी मधु जी का हम लोगों के साथ निरंतर स्नेह, संवाद और सहयोग बना रहा।
इस बीच इलाहाबाद में अन्य छात्र-युवा संगठनों के साथ मिलकर हम, युवा जनता के लोगों ने भी ‘बेकारों को काम दो या बेकारी का भत्ता दो’ के नारे के साथ आंदेलन किया। पुलिस के लाठी-डंडों के साथ हमारा स्वागत कर हमारी अपनी सरकार में गिरफ्तार कर नैनी जेल के सुपुर्द कर दिया गया। जेल तो उससे पहले भी हम कई बार गए थे लेकिन सजा पहली बार जनता पार्टी की हमारी अपनी सरकार में ही हुई। इस तरह के कई और प्रकरण आए जब हमारा जनता पार्टी की सरकार और उससे भी अधिक सक्रिय राजनीति से भी मोहभंग होता गया।
राजनीति से मोहभंग और सक्रिय पत्रकारिता में आने के बाद भी मधु जी से हमारा निरंतर मिलना, समसामयिक मुद्दों पर संवाद के जरिए समझदारी विकसित करने का क्रम जारी रहा।
1980 में जार्ज फर्नांडिस के बुलावे पर हम जयपुर से दिल्ली आ गए थे। बात तो ‘प्रतिपक्ष’ साप्ताहिक का प्रकाशन फिर से शुरू करने की थी लेकिन जब तक उसका प्रकाशन शुरू हो, जार्ज साहब की इच्छानुसार हमने उनके तुगलक क्रीसेंट स्थित निवास से लेबर प्रेस सर्विस के नाम से फीचर एजेंसी शुरू कर दी थी। इस बीच एक दिन बातचीत के क्रम में मधु जी ने कहा कि तुम ‘असली भारत’ के साथ जुड़कर उसमें कुछ राजनीतिक तीखापन लाने का प्रयास क्यों नहीं करते! उनके कहने पर ही हमने समाजवादी नेता और किसान ट्रस्ट के ट्रस्टी रवि राय जी और मैनेजिंग ट्रस्टी अजय सिंह जी से भी मुलाकात की और असली भारत की टीम का हिस्सा बन गए। हम लोगों के प्रयासों से असली भारत कुछ ही महीनों में न सिर्फ मीडिया जगत बल्कि आम जन के बीच भी चर्चा का विषय बनने लगा था। उस समय मधु जी चौधरी चरण सिंह के बहुत करीब हो गए थे। उसी समय बागपत के पास माया त्यागी नाम की एक महिला के साथ पुलिस बलात्कार की बर्बर घटना हुई थी। वह मामला सुर्खियों में आया था। मधु जी की प्रेरणा और परामर्श से लोकदल के लोगों ने इसके विरुद्ध जनांदोलन शुरू किया था। मधु जी ने इस पूरे प्रकरण पर मुझसे एक पुस्तिका लिखने को भी कहा था। दिल्ली प्रवास के दौरान हम मधु जी से दिन में एक दो बार अवश्य मिलते। कई बार तो वह मुझे संसद के पुस्तकालय में ही बुलवा लेते थे। वह वहां अध्ययनरत ही मिलते।
1980 का लोकसभा चुनाव मधु जी हार गए थे। चौधरी चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर जी भी चाहते थे कि मधु जी को राज्यसभा में लाया जाए जिससे न सिर्फ लोकदल बल्कि देश की संसदीय राजनीति को भी उनकी संसदीय विद्वत्ता और अनुभवों का लाभ मिल सके लेकिन मधु जी इसके लिए राजी नहीं हुए। इसका एक कारण शायद यह भी रहा होगा कि डा. लोहिया का मानना था कि लोकसभा अथवा विधानसभा का चुनाव हारे लोगों को राज्यसभा अथवा विधानपरिषद में नहीं जाना चाहिए। 1971 का लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद समाजवादी नेता राजनारायण के राज्यसभा का चुनाव लड़ जाने के कारण उन्हें पार्टी से निकाला गया था। इस तरह से पार्टी टूटकर सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के दो धड़ों में बॅंट गई थी। मधु जी शायद नहीं चाहते थे कि जिस सिद्धांत का प्रतिपादन और अमल उन्होंने बढ़-चढ़कर कठोरतापूर्वक किया था, उसके विरुद्ध आचरण कर वह खुद राज्यसभा में जाएं। कुछेक बरस बाद तो उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ही ले लिया था।
सांसद और समाजवादी तथा सत्तारूढ़ जनता पार्टी की राजनीति में भी शिखर पर रहने के बावजूद मधु जी के ईमानदार, बेदाग राजनीतिक जीवन और खासतौर से उनकी सादगी के कायल उनके कट्टर राजनीतिक विरोधी भी होते थे। उनके सादगीपूर्ण और मितव्ययी जीवन के अनेक किस्से मशहूर हैं।
उनके घर में एसी, कूलर, फ्रिज नहीं होते थे। आगंतुकों और खुद के लिए भी अक्सर चाय-काफी वह खुद ही बनाते थे। सुबह-शाम उनके परिवार के सदस्य सदृश सहयोगी शोभन की मदद मिल जाती थी। उनके पास अपना कोई वाहन भी नहीं था। इससे जुड़ी एक रोचक घटना याद आती है। 1980 के अंतिम या 1981 के शुरुआती महीनों की बात होगी। हम असली भारत साप्ताहिक में वरिष्ठ संवाददाता के बतौर काम करते थे और नयी दिल्ली में 3 महादेव रोड पर स्थित लोकदल के सांसद रामेश्वर सिंह के बंगले पर एक कमरे में आने-जानेवाले मेहमानों के साथ रहते थे। असली भारत का आफिस लोदी ईस्टेट के सभवत: 4 नंबर कोठी में था। तब हम लूना मोपेड पर चलते थे और अक्सर सुबह, शाम मधु जी के वेस्टर्न कोर्ट स्थित निवास पर जाते रहते थे। एक शाम मधु जी ने मेरी लूना मोपेड देखकर अपनी पत्नी, हम लोगों की स्नेहिल ताई, चंपा लिमये जी से कहा, जयशंकर की लूना हमारे लिए भी ठीक रहेगी। ज्यादा दूर तो जाना नहीं होता। इस पर चंपा जी ने कहा, रहने दीजिए, मैं आपको टैक्सी-ऑटो का किराया दे दूंगी। यह आपके लिए नहीं! पास में ही बैठे हमारे नेता राजकुमार जैन ने कहा, हमारा स्कूटर तो है ही। जहां जाना होगा छोड़ दूंगा। वह अक्सर आसपास की दूरी पैदल चलकर ही या फिर ऑटो रिक्शा-टैक्सी से तय करते थे।
मधु जी स्वाधीनता संग्राम के सेनानी और गोवा मुक्ति संग्राम के महानायक तथा चार बार लोकसभा के सदस्य थे लेकिन उन्होंने कभी कोई पेंशन नहीं ली। सांसदी नहीं रहने पर वह पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर जीवनयापन करते थे। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और मराठी आदि भाषाओं में कई पुस्तकें लिखीं।
मूलतः मराठी होने के बावजूद मधु जी का अंग्रेजी, हिंदी तथा कई अन्य भाषाओं पर भी समान अधिकार था। हालांकि लोकसभा में वह हिंदी में ही बोलते थे। इसको लेकर अंग्रेजी के अखबारों, खासतौर से दक्षिण भारत के अंग्रेजी और भाषाई अखबारों को बहुत कष्ट होता था। कहा जाता था कि इतनी सारगर्भित और विद्वत्तापूर्ण बातें मधु लिमये अगर अंग्रेजी में बोलते तो उन्हें व्यापक प्रचार-प्रसार मिलता। लेकिन मधु जी अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के नेता भी तो थे।
बहरहाल, 1981 के बाद के वर्षों में हम दिल्ली से मुंबई (तब बंबई), कलकत्ता (अभी कोलकाता), पटना होते हुए 1990 में दिल्ली आ गए। कोलकाता में ‘रविवार’ के साथ जुड़े रहने के कारण भी मधु जी के साथ जुड़ाव बना रहता। उनके लेख ‘रविवार’ और ‘संडे’ में अक्सर ही प्रकाशित होते रहते थे। मधु जी सामाजिक न्याय के पक्षधर और सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे। यह बातें उनके लेखों में भी साफ दीखती थीं। जब उनके नेता डा. राममनोहर लोहिया ने राज्यों और केंद्र में भी निरंकुश होती जा रही कांग्रेस की सत्ता को अपदस्थ करने के लिए गैरकांग्रेसवाद की अल्पकालीन रणनीति तैयार की थी तो उनके इस प्रस्ताव का विरोध करनेवालों में उनके अनन्य समर्थक मधु लिमये और जार्ज फर्नांडिस भी थे। लेकिन डा. लोहिया के समझाने पर मधु जी और जार्ज भी उससे सहमत हो गए और प्रस्ताव पास हो गया।
लेकिन जब केंद्र में पहली गैरकांग्रेसी, जनता पार्टी की सरकार में आरएसएस और उसके राजनीतिक प्रतिरूप जनसंघ के लोगों का सांप्रदायिक चेहरा और एजेंडा भी सामने आने लगा तो उनका सबसे मुखर विरोध मधु लिमये, राजनारायण और उनके साथी समाजवादी नेताओं ने ही किया। दोहरी सदस्यता का सवाल उठाते हुए मधु जी और राजनारायण जी ने कहा था कि जनता पार्टी और सरकार में शामिल जनसंघ घटक के नेताओं को जनता पार्टी और आरएसएस में से किसी एक को चुनना होगा लेकिन जनसंघ घटक के नेता इसके लिए तैयार नहीं थे। वे लोग जनता पार्टी के साथ ही संघ के साथ भी जुड़े रहना चाहते थे। बात आगे बढ़ने पर जनता पार्टी और सरकार के टूटने की नौबत आ गई। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में केंद्र में बनी पहली गैरकांग्रेसी, जनता पार्टी की सरकार के गिरने का अपयश मधु लिमये, जार्ज फर्नांडिस, चरण सिंह और राजनारायण के साथ ही तमाम समाजवादी नेताओं के माथे पर लगा।
लेकिन उसके बाद भी तो जनता पार्टी एकजुट नहीं रह सकी। 1980 के संसदीय चुनाव के बाद जनसंघ घटक के नेता जनता पार्टी से अलग हो गए और उन्होंने अपनी भारतीय जनता पार्टी बना ली। उसके बाद भी मधु जी ने लगातार अपने उदबोधनों और लेखों के जरिए आरएसएस और उसके सांप्रदायिक, फासीवादी एजेंडे के बारे में लोगों को जागरूक करने की कोशिश की। ऐसा करते रहने के क्रम में ही उन्होंने 8 जनवरी 1995 को 72 वर्ष की उम्र में अंतिम साॅंस ली। संयोगवश उस समय हम किसी पत्रकारीय कार्यवश कलकत्ता में थे। उनका अंतिम दर्शन नहीं कर सके लेकिन उनके लेखों, किताबों के जरिए उनसे रूबरू होते और प्रेरणा प्राप्त करते रहते हैं। मधु जी और उनके साथ जुड़ी स्मृतियों को प्रणाम।