— अरविन्द मोहन —
यह हिसाब लगाना मुश्किल है कि लोगों द्वारा पी जानेवाली शराब ज्यादा ज्वलनशील है या हमारी राजनीति में इसे लेकर उठनेवाला बवाल। पर यह कहने में कोई मुश्किल नहीं है कि अभी दस साल पहले तक इन दोनों मोर्चों पर शराब की ‘प्रतिष्ठा’ इतनी न थी। भाँग, गाँजा, तंबाकू, हुक्का वगैरह का चलन तो था, लेकिन ज्यादा न था और उन्हें लेकर बहुत हंगामा नहीं था। साधुओं को छोड़ दें तो आमलोगों में से जो कोई इनका सेवन करता था, वह कुछ अपराध-भाव से ही करता था।
आजादी की लड़ाई के साथ गांधी ने शराब और नशामुक्ति की मुहिम छेड़कर इस सवाल पर इसका सेवन करने वालों को और भी ज्यादा रक्षात्मक मुद्रा अपनाने को मजबूर कर दिया तथा उसी प्रभाव में गुजरात और महाराष्ट्र के वर्धा जिले में शुरू से, और अन्य राज्यों में धीरे-धीरे शराबबंदी होती रही है। 1977 की ‘जनता सरकार’ ने तो इसे देश के स्तर पर लागू करने का असफल प्रयोग किया। शराब के नशे से पीड़ित परिवारों की औरतों के दबाव से अनेक राज्यों में शराबबंदी लागू हुई और फिर राजस्व के दबाव तथा नकली शराब के कहर के चलते शराबबंदी उठती भी रही है। बिहार में जरूर नीतीश कुमार ने बिना किसी आंदोलन के दबाव के, अपनी सोच के अनुसार शराबबंदी की है और अब तक डटे हुए हैं, जबकि राजस्व और प्रशासन दोनों पर इसका दबाव बहुत साफ दीखता है।
अब राजस्व का दबाव राज्यों पर इतना क्यों बढ़ा है और पहले क्यों कम था, यह एक बड़ा सवाल है। इससे भी ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि राज्य क्यों सिर्फ नशे के धंधे को ही राजस्व बढ़ाने का जरिया बनाते हैं। केंद्र के विभिन्न वेतन बोर्डों द्वारा कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और पेंशन ने राज्यों पर काफी दबाव बनाया है, इस बुनियादी बात को नहीं भूलना चाहिए। उससे भी ज्यादा साफ दीखने वाला नुकसान बार-बार नकली शराब पीने से होनेवाले नुकसान है।
इस मामले में अपनी जिद पर अड़े नीतीश कुमार बार-बार विपक्ष खासकर भाजपा के निशाने पर आते हैं। शुरू में उन्होंने नकली शराब पीनेवालों को मुआवजा न देने के मामले में भी मजबूती दिखाई थी, लेकिन अब नरम पड़े हैं। जब नीतीश पर इस सवाल के चलते विपक्षी हमला होता है तो भाजपा-विरोधी लोग गुजरात और हरियाणा जैसे भाजपा-शासित राज्यों की ऐसी मानवीय त्रासदियों का मसला उठाते हैं। बिहार के बारे में यह भी जाहिर हुआ है कि राजस्व नुकसान के साथ प्रशासन, खासकर पुलिस प्रशासन बुरी तरह इसी मसले पर उलझा है। अदालतों में शराब से जुड़े मामले सबकी नाक में दम किये हुए हैं।
भाजपा की तरफ से नीतीश सरकार पर जितना हमला होता है उससे ज्यादा अभी दिल्ली की ‘आप’ सरकार पर हो रहा है। बिहार के शासन में भाजपा भी भागीदार रही है, पर दिल्ली में ‘आप’ ने उसे बार-बार पीटा है। सो उसके इस हमले में राजनीति का हिस्सा काफी बड़ा है। भ्रष्टाचार मिटाने और सबकुछ प्रत्यक्ष दीखने वाले अंदाज में करने के वायदे के साथ आयी आप की सरकार के कुकर्म भी कम नहीं हैं जिसने दिल्ली को शराब से पाट देने की कोई कोशिश नहीं छोड़ी। इसमें भ्रष्टाचार हुआ या नहीं, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन जितने पेच भाजपा की तरफ लगाये जा रहे हैं उतने ही पेच ‘आप’ के भी दीखते हैं।
दिल्ली में शराब की बिक्री और राजस्व के आँकड़े भी अस्वाभाविक ‘प्रगति’ दिखाते हैं जो नयी राजनीति का दावा करनेवाली पार्टी के लिए शर्म का विषय होना चाहिए। इस चक्कर में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री जब जेल जाने लगे तो ‘आप’की सारी कोशिश उनको दारू विभाग का मंत्री बनाने की जगह शिक्षा विभाग का मंत्री बताने की हुई, जिस मामले में राज्य सरकार का रिकार्ड थोड़ा बेहतर है।
जो बात सबसे छिपी हुई है वह यह है कि देश में शराब की बिक्री और राजस्व की बढ़ोतरी के मामले में सबसे ‘बढ़िया’रिकार्ड उत्तरप्रदेश की ‘योगी सरकार’ का है। शराब के व्यापारी योगी सरकार की नीतियों को सबसे उपयोगी, सरल और प्रभावी मानते हैं। उनकी यह इच्छा भी है कि अन्य राज्य सरकारें योगी सरकार की नीतियों का अनुसरण करें।
बात सिर्फ कहने सुनने की नहीं है। योगी सरकार को चार साल पहले शराब से मात्र 14000 करोड़ रुपए का राजस्व मिला करता था जो अब 400000 करोड़ रुपए को पार कर गया है। देश के सबसे बड़े प्रदेश में अभी हाल तक शराब की पैठ काफी कम मानी जाती थी। राज्य में देश की कुल खपत का मात्र 5 फीसद हिस्से की ही खपत होती थी। अब चार साल में यह 10 फीसद पर पहुँच गयी है, अर्थात चार साल में 200 फीसद की वृद्धि हुई है। सबसे ज्यादा वृद्धि बीयर की खपत में हुई है जो 350 फीसद से भी ज्यादा है। अगर शराब कंपनियों के हिसाब से देखें तो कई की बिक्री में चार सौ फीसद तक की बढ़ोतरी हुई है। कई ब्रांडों की बिक्री में उत्तरप्रदेश देश का नंबर एक प्रांत बन गया है।
अब यह कहना मुश्किल है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा इस उपलब्धि को राजनीतिक रूप से भुनाने का प्रयास करेंगे या नहीं, क्योंकि अभी हाल तक प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में शराब पीना एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा जाता था। होली-दिवाली पर भी बहुत कम ही लोग शराब पीते थे। यह फौजियों तथा कुछ खास मुश्किल काम करनेवालों (जिनमें चीर-फाड़ वाले डॉक्टर और सफाई के काम वाले भी शामिल माने जाते थे) के पीने भर की चीज मानी जाती थी। भाँग, तंबाकू और गाँजा को वैसी बुराई नहीं माना जाता था।
अब सरकार ने प्रदेश में शराब की बिक्री सबके लिए आसान कर दी है। जिस कंपनी को इच्छा हो वह आए, एक मोटी रकम भरे और थोक बिक्री शुरू कर दे। इसके साथ ही सरकार डंडा लेकर रखवाली करती है कि कोई दूसरा बिना पैसा दिए माल न बेच पाये। नकली शराब की बिक्री पर सख्ती है और ई-गवर्नेन्स की मदद से चुस्ती बरती जा रही है। इन सब में हर्ज नहीं है, बशर्ते ऐसी चुस्ती शासन के अन्य मामलों में भी दीखे। सिर्फ शराब की बिक्री में दिन दूनी रात चौगुनी की बिक्री तो शर्म का विषय होनी चाहिए।
(सप्रेस)