इतिहास पढ़ाने में पाकिस्तान की नकल

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—आदित्य मुखर्जी और मृदुला मुखर्जी —

(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)

2021-23

र्ष 2014 में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने केंद्र की सत्ता में वापसी की और 2019 में पुनः इसे केंद्र की सत्ता हासिल हुई। इससे बीजेपी-संघ को नया मौका मिला, अपने मन-मुताबिक भारत के इतिहास का पुनर्लेखन करने का, जो कि उनका शगल है।

ऐसी रिपोर्टें आने लगीं कि एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से कौन सी खास चीजें हटाई जानी चाहिए। जैसा कि 2001 में हुआ था, एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से जो कुछ हटाया गया था उसकी माँग पहले आरएसएस द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में की जा चुकी थी। जून 2021 में पब्लिक पॉलिसी रिसर्च सेंटर ने, जिसके मुखिया बीजेपी के ई-ट्रेनिंग प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय संयोजक हैं, एक रिपोर्ट प्रकाशित करके यह माँग उठाई कि इतिहास के मौजूदा पाठ्यक्रम में क्या-क्या बदलाव किया जाना चाहिए। लगभग उसी समय बीजेपी/आरएसएस से जुड़े बुद्धिजीवी विनय सहस्रबुद्धे की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने भी इसी तरह की रिपोर्ट पेश की। फिर एनसीईआरटी ने संशोधित पाठ्यक्रम तैयार किया, जिसके ब्यौरे इंडियन एक्सप्रेस में अप्रैल 2022 में प्रकाशित हुए। इस संशोधित पाठ्यक्रम में सबसे ज्यादा जो हिस्से हटाए गए थे वे मुगल काल और तुगलक, खिलजी और लोदी वंश समेत दिल्ली सल्तनत के इतिहास से संबंधित थे।

इसे कोई शुद्ध रूप से अकादमिक कवायद न समझे, इसलिए 24 नवंबर, 2022 को गृहमंत्री ने ऐलान कया कि कोई भी भारत को अतीत में की गयी तोड़-मरोड़ को हटाकर अपने इतिहास का पुनर्लेखन करने से नहीं रोक सकता। फिर प्रधानमंत्री ने 26 दिसंबर 2022 को कहा कि अभी तक तोड़-मरोड़ कर जो वृत्तांत पढ़ाया जाता रहा है उसे दुरुस्त करने की जरूरत है। यही नहीं, उन्होंने यह तक कहा कि एक तरफ आतंकवाद था, और दूसरी तरफ अध्यात्मवाद… एक तरफ मजहबी उन्माद में अंधी शक्तिशाली मुगल सल्नत थी, जबकि दूसरी ओर ज्ञान की आभा से मंडित तथा बात के प्राचीन आचार-विचार के अनुसार जीवन जीने वाले हमारे गुरु थे…

हटाए गए अंशों के बाद, नयी पाठ्यपुस्तकें बाजार में अप्रैल के शुरू में 2023 में आयीं। फिर, 4 अप्रैल 2023 की खबरों के मुताबिक, बीजेपी नेता कपिल ने कहा कि एनसीईआरटी की किताबों से मुगलों के झूठे इतिहास को हटाना एक महान निर्णय है। चोरों, जेबकतरों और दो कौड़ी के सड़कछाप बदमाशों को मुगल सुलतान और भारत के सम्राट कहा जाता था। अकबर, बाबरस शाहजहां, औरंगजेब अब इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में नहीं, कूड़ेदान में हैं।

यह सब देखते हुए, एनसीईआरटी के निदेशक का बार-बार यह कहना गले नहीं उतरता कि कुछ अंशों को हटाया जाना पूरी तरह तर्कसंगत की कार्यवाही का अंग था, यह इसलिए किया गया ताकि विद्यार्थियों पर अकादमिक बोझ कम किया जा सके, जिन्हें कोविड-19 के कारण पढ़ाई-लिखाई का नुकसान हुआ। न ही उनके इस दावे में कोई दम है कि कुछ फालतू बातों को हटाया गया है।

जिन तथाकथित फालतू अंशों को हटाया गया उन पर एक सरसरी नजर डालने भर से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके पीछे बुनियादी मकसद क्या था। कुछ अंशों को हटाने के पीछे कोई तर्क नहीं, निरा अज्ञान और काहिली ही वजह थी। हटायी गयी पाठ्यसामग्री में अधिकांश हिस्सा मुगल काल और दिल्ली सल्तनत काल से संबंधित है। मुसलिम समुदाय के बारे में लगातार विष-वमन, और सड़कों, शहरों तथा अब पाठ्यपुस्तकों से उनके नाम हटाने और उन्हें हाशिये पर धकेलने के प्रयासों को एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

यह भी गौरतलब है कि 2002 में हुए गुजरात दंगों के जिक्र, दंगों से निपटने में गुजरात सरकार (तब नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे) के रवैये पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टिप्पणियों, और इन दंगों ने कैसे मुसलमानों को अपने में बंद, हाशिये का जीवन जीने के लिए विवश किया, मिश्रित बसाहटें कैसे अलग-अलग समुदाय की बसाहटों में बदल गयीं, ये सब अंश भी पाठ्यसामग्री से हटा दिए गए।

दुनिया के अनेक देशों में हुए शोध बताते हैं कि किसी समुदाय के जनसंहार से पहले उस समुदाय की छवि खराब की जाती है, उसे शैतान के रूप में चित्रित किया जाता है, उनके नाम बदले जाते हैं, उनका इतिहास मिटाया जाता है और उन्हें दड़बों जैसी बस्तियों में रहने को विवश किया जाता है ताकि रोजाना की जिंदगी में उनका बाकी समाज से संवाद न हो पाये। ये प्रक्रियाएँ भारत में शुरू हो चुकी हैं, देश के कई हिस्सों में खुलेआम मुसलमानों के कत्लेआम के आह्वान किए गए हैं, और भी हैरानी की बात यह है कि इस सब पर किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई।

मुगल काल और सुलतान काल को हटाना हमारे अपने इतिहास को समझने के लिहाज से भी बहुत नुकसानदेह कृत्य है। याद रखें कि उस काल में अगर सबकुछ बुरा ही बुरा होता, तो अठाहरवीं सदी के शुरू में भारत का जीडीपी विश्व के कुल जीडीपी का लगभग एक चौथाई न होता। उस समय भारत का जीडीपी पूरे पश्चिम यूरोप के सकल जीडीपी से अधिक था, और इंग्लैंड के जीडीपी का तो आठ गुना था। भारत तब दुनिया का सबसे बड़ा वस्त्र निर्यातक था और तब अँगरेज भारत से औद्योगिक जासूसी करने तथा भारत में प्रचलित तकनीक व डिजाइन की चोरी करने में लगे थे। यह वह काल भी था जब भारत में एक समन्वय की संस्कृति विकसित हुई और संगीत, कला, स्थापत्य तथा साहित्य में आश्चर्यजनक उन्नति हुई।

भारत के लोग इस काल को हिन्दुओं पर मुसलमानों के काल के रूप में नहीं देखते थे। सबसे पहले उपनिवेशवादी अँगरेज बौद्धिकों ने उस काल को इस तरह देखना शुरू किया। हिन्दू सांप्रदायिकों ने उस नजरिये को लपक लिया और उसका प्रचार करने लगे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1857 के विद्रोह के दौरान, सिपाहियों और दूसरे लोगों ने, जो सभी समुदायों से ताल्लुक रखते थे, अँगरेजों की सत्ता को उखाड़कर उनकी जगह किसी और को नहीं, बहादुर शाह जफ़र को स्थापित करना चाहते थे! इतिहास के इस कालखंड में झाँकने से अपने बच्चों को रोकना, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है।

जो लोग पाकिस्तान के मुसलिम राष्ट्र होने के तर्ज पर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, वे अब इतिहास पढ़ाने के मामले में भी पाकिस्तान की नकल कर रहे हैं। पाकिस्तान में वे हड़प्पा और मुअनजोदड़ो के बारे में पढ़ाते हैं, क्योंकि यह पाकिस्तान में है और पूर्व-हिन्दू काल हा है, उसके बाद वे इस्लाम पूर्व की कई सदियों को, और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की, अनदेखी कर देते हैं। यह तब हो रहा है जब भारत के वर्तमान इतिहास लेखन को दुनिया में हो रहे श्रेष्ठतम इतिहास लेखन में शुमार किया जाता है।

जो अन्य अंश हटाए गए हैं वे महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित हैं। ये अंश चोरी-छिपे हटाए गए और स्कूलों को अप्रैल 2022 में जो सूची भेजी गयी उसमें इसका जिक्र तक नहीं था। फिर, जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस ने खुलासा किया है, इस तरह के पैराग्राफ भी हटा दिए गए हैं जिसमें गांधी कहते हैं कि भारत को केवल हिन्दुओं का देश बनाने का प्रयास करना भारत को नष्ट करना होगा, और जिस पैरा में यह बताया गया है कि हिन्दू-मुसलिम एकता कायम करने के उनके दृढ़ प्रयासों ने हिन्दू अतिवादियों को इस हद तक नाराज कर दिया कि उन्होंने कई बार गांधीजी की हत्या के प्रयास किये। हटाए गए अंशों में ऐसी पंक्तियाँ भी थीं : “भारत सरकार ने ऐसे संगठनों पर सख्त कार्रवाई की, जो सांप्रदायिक घृणा फैलाने में जुटे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों पर कुछ समय के लिए पाबंदी लगा दी गयी।

बारहवीं कक्षा की इतिहास की पाठ्यपुस्तक के संशोधित पैरा में गांधी के हत्यारे के राजनीतिक दृष्टिकोण के बारे में बताने वाले सभी ब्योरे हटा दिये गये हैं। अब यह पैरा सिर्फ यह बताता है कि 30 जनवरी की शाम को,  गांधी की प्रार्थना सभा में, एक युवक ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। फिर हत्यारे ने आत्मसमर्पण कर दिया, वह नाथूराम गोडसे था। जाहिर है यह लीपापोती का प्रयास है, आमतौर पर राष्ट्रपिता की हत्या में हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों की जवाबदेही तय करने की जो माँग उठती रही है उसे सिरे से नकार दिया गया है। दूसरी तरफ, मौजूदा सियासी माहौल में नाथूराम गोडसे की पूजा करने की छूट मिल गयी है और बीजेपी सांसद प्रज्ञा ठाकुर, नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहकर भी, अपने पद पर बनी रह सकती हैं। साफ है कि बाद की पीढ़ी ने उन परिस्थितियों से कोई सबक नहीं लिया, जिन परिस्थितियों में महानतम भारतीयों में से एक की नृशंस हत्या हुई।

यहाँ इस बात की गुंजाइश नहीं है कि हम इस बात की चर्चा करें कि किन कारणों से औद्योगिक क्रांति, जातिगत उत्पीड़न, जन आंदोलनों का उभार, संस्कृतियों का टकराव, लोकतंत्र और विविधता, लोकतंत्र की चुनौतियाँ, इमरजेंसी, इस्लाम का उदय और विस्तार, पर्यावरण और समाज, शहरी पर्यावरण (जहाँ एक तबके को शहरी अन्याय झेलना पड़ता है क्योंकि पुलिस गरीबों के बजाय धनी लोगों का साथ देती है) आदि से संबंधित अंश हटाए गए।

ऐसे अंशों को किताबों से हटाकर हम एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करेंगे जो सोचने-विचारने में असमर्थ भक्तों की पीढ़ी होगी, जो सवाल नहीं करेगी। हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे कट्टरपंथी और मूढ़ बनें।

अच्छी बात यह है कि शिक्षाविदों की बड़ी तादाद ने और कई राज्य सरकारों ने इस पर मजबूती से अपना विरोध दर्ज कराया है और उन फेरबदल को रद्द करने की माँग की है जो  लोकतांत्रिक मूल्यों तथा भारतीय उपमहाद्वीप की गंगा-जमुनी संस्कृति और संवैधानिक आचार-विचार के विरुद्ध हैं। कई अखबारों ने भी एनसीईआरटी के निर्णय की आलोचना करते हुए संपादकीय प्रकाशित किये हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि समझदारी की आवाजें सुनी जाएंगी और उन्हें हमारे बच्चों के हित में कदम उठाने को प्रेरित करेंगी जिन पर इन बच्चों की शिक्षा का दारोमदार है।

(‘द वायर’ से साभार)

अनुवाद : राजेन्द्र राजन

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