— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
आज अचानक यह पोस्ट पढ़ने को मिली My School days period friend Prof.Raj Kumar Jain , former vicepresident of DUSU, yours resent whatsapp message covering K.M.college photo are inspering and memorable for me remembering the golden days of our old delhi, you still known as the most dynamic youth leader of our old delhi area. our old days memories are the foundation of our present days period strength ….
……….Radhey Shyam Gora
तो मन भावुक हो उठा। जिसे तकरीबन 68 साल पहले के सहपाठी राधेश्याम गोरा ने लिखा है। पोस्ट पढ़ने के साथ ही पुराने दृश्य नजरों के सामने घूमने लगे। मित्र राधेश्याम भारत सरकार के उपक्रम ‘अखिल भारतीय खादी एवं विलेज इंडस्ट्री’ के सचिव जैसे बड़े पद से रिटायर्ड अफसर रहे हैं। उनके द्वारा लिखी गई पोस्ट से कई सवाल दिमाग में खदबदाहट करने लगे।
पहला सवाल जो मन में आया कि कितने ऐसे इंसान होंगे, जिनका अपने इतने पुराने दोस्तों से रिश्ता कायम होगा। आज के इस आपाधापी के युग में जहां “गिव एंड टेक” “एक हाथ लो दूसरे हाथ दो” का उसूल चलन में है, वहां यह कैसे संभव है? दरअसल यह कोई मेरी ही अकेली मिसाल नहीं है। जिस किसी की भी परवरिश मेरे जैसे माहौल में हुई है, उसमें अधिकतर की यही कहानी है। उस वक्त के पुरानी दिल्ली के बाशिंदों में कोई वर्ग संघर्ष नहीं था। खानदानी मालदार, रईसों के बच्चे जिनके घर में अपनी निजी बग्घी, घोड़े तांगे आने-जाने के लिये होते थे, तथा गरीब घरों के बच्चे खाकी निक्कर सफेद कमीज पहने हुए एक ही स्कूल में पढ़ते थे। खेलकूद, पतंग उड़ाने, गिल्ली डंडा खेलने का लुफ्त एक ही बाग (पार्क) में उठाते थे। किसी को किसी की माली हैसियत से कोई वास्ता नहीं होता था। शादी-विवाह धर्मशाला में संपन्न होते थे, ऐसे मौके पर सारे दोस्त इकट्ठा होकर काम में जुटते थे। जात बिरादरी का कोई स्थान यार दोस्ती में मायने नहीं रखता था। 68 साल पुराने दोस्त राधेश्याम की जात का मुझे आज तक पता नहीं, ना ही कभी पूछा और ना ही जरूरत समझी। दुख सुख साझा था। उस समय एक और बड़ी बात थी कि सबकी चाहत एक जैसी नहीं थी। मुख्तलिफ तमन्ना होती थी। मेरे एक साथी की दिली तमन्ना थी कि मुझे पुलिस वाला बनना है (आईपीएस नहीं) मुझे तो 11वीं पास करके पिताजी के साथ दुकान पर बैठना है, वगैरा-वगैरा। स्पर्धा के इस दौर में जहां सब कुछ मुझे ही मिले, तो दोस्ती तो पीछे छूट ही जाएगी, आज के माहौल में बच्चों की बात तो छोड़िए, मां बाप भी बच्चों को हिदायत देते हैं कि तुम्हें किस तरह के बच्चों से दोस्ती गांठनी है। वर्ग, जाति, मजहब की बंदिशों में जकड़ा हुआ इंसान दोस्ती में भी अगर व्यापार नफे का सौदा देखता है, तो दोस्ती कितने दिन टिकेगी?
राधेश्याम शुरू से ही शालीन, गंभीर, तथा पढ़ाकू रहे हैं। उस जमाने में वायलिन सीखने जाते थे। उनके माताजी और पिताजी जब हमें देखते, प्यार करते तो लगता था कि हम अपने ही घर में हैं।