— योगेन्द्र यादव —
भारत के संविधान में आस्था रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए सवाल यह नहीं होना चाहिए कि समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) होनी चाहिए या नहीं। असली सवाल यह है कि समान नागरिक संहिता कैसे, कब और किस सिद्धांत के आधार पर लागू की जाए। लेकिन सरकार की नीयत को देखते हुए लगता है कि एक बार फिर यह मुद्दा असली सवाल से भटकाकर 2024 के चुनाव से पहले सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए खड़ा किया जा रहा है। देश के विधि आयोग ने पिछले सप्ताह जनता से इस बारे में राय मॉंगी है। गौरतलब है कि इससे पहले भाजपा सरकार द्वारा ही नियुक्त पिछले विधि आयोग ने भी नवंबर 2016 में इसी मुद्दे पर जनता की राय मॉंगी थी। उसे थोड़े-बहुत नहीं बल्कि 75,378 सुझाव मिले थे। उसके आधार पर 2018 में विधि आयोग ने 185 पृष्ठों की एक लंबी रिपोर्ट पेश की थी।
रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया था कि इस वक्त सभी समुदायों के अलग-अलग पारिवारिक कानून के बदले एक संहिता बनाना न तो जरूरी है और न ही वांछित। उसके बाद 2023 में दोबारा इसी प्रक्रिया को दोहराने से कहीं न कहीं संदेह होता है कि पिछली रिपोर्ट भाजपा की राजनीति के लिए मुफीद नहीं थी। इसलिए एक बार फिर इस विवाद को नए सिरे से खोलकर 2024 के चुनाव की तैयारी की जा रही है।
सैद्धांतिक रूप से, समान नागरिक संहिता हमारे संविधान के आदर्शों के अनुरूप सही दिशा में एक सही कदम होगा। सिद्धांत यह है कि सभी नागरिकों को समानाधिकार होंगे और केवल धर्म या पंथ के आधार पर उन्हें इन अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता। हर नागरिक को अंत:करण की स्वतंत्रता है लेकिन कोई भी धार्मिक समुदाय इस आधार पर संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन नहीं कर सकता।
इसी विचार को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने लंबी बहस के बाद राज्य के लिए नीति निर्देशक तत्त्वों के तहत संविधान के अनुच्छेद-44 में सरकार के लिए यह हिदायत दी थी कि ‘भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त करने का प्रयास’ किया जाएगा। संविधान सभा में जवाहरलाल नेहरू और बाबासाहेब आंबेडकर और बाद में राममनोहर लोहिया ने भी इस सिद्धांत की वकालत की थी। सवाल यह है कि संविधान में वर्णित ‘यूनिफॉर्म’ या ‘एकसमान’ नागरिक संहिता का अर्थ क्या है? इसका एक शाब्दिक अर्थ यह लगाया जा सकता है कि आज देश में शादी, तलाक, उत्तराधिकार और पारिवारिक संपत्ति जैसे विषयों पर हिंदू, मुस्लिम, पारसी और ईसाई समुदाय के लिए जो कानून बनाए गए हैं उन्हें समाप्त कर सभी भारतीय नागरिकों के लिए इन सभी विषयों पर एक कानून बनाया जाए। जैसे आपराधिक मामलों, टैक्स और अन्य विषयों में अलग-अलग समुदाय के लिए अलग-अलग कानून नहीं हैं, वैसे ही इन पारिवारिक मामलों के लिए भी देश में बस एक कानून हो।
पहली नजर में सुंदर लगने वाली इस व्याख्या में पेच यह है कि हमारे देश में शादी, तलाक और उत्तराधिकार के बारे में अलग-अलग प्रथाएं चली आ रही हैं। अलग धर्मावलंबियों की बात छोड़ भी दें तब भी खुद हिंदू समाज के भीतर सैकड़ों किस्म के रीति-रिवाज चले आ रहे हैं। जाहिर है उन सबको समाप्त कर ‘स्पैशल मैरिज एक्ट’ जैसा कोई कानून सभी लोगों पर लागू कर देना एक असंभव हरकत होगी जो बैठे-बैठे देश में बवाल खड़ा कर देगी। इससे यह संदेह भी पैदा होगा कि किसी एक समुदाय की संहिता को बाकी सब समुदायों पर थोपने की कोशिश हो रही है। इसीलिए विधि आयोग की नवीनतम शुरुआत में शक और विवाद पैदा हुआ है। यही विवाद खड़ा करना शायद इसका उद्देश्य रहा होगा।
तमाम धार्मिक समुदायों के परंपरागत रीति-रिवाज और कानून में ऐसी अनेक व्यवस्थाएं हैं जो औरतों के साथ भेदभाव करती हैं, बच्चों के हित को नजरअंदाज करती हैं और ट्रांसजैंडर तथा शादी के बाहर हुए बच्चों को अमान्य करार करती हैं। ऐसे तमाम कानूनों को बदल दिया जाना चाहिए चाहे वह किसी भी धार्मिक समुदाय की संहिता में हों। भारतीय कानून मुसलमान मर्द को बहु विवाह की अनुमति देता है, हालांकि इस व्यवस्था पर पाकिस्तान, मिस्र और अल्जीरिया जैसे अनेक मुस्लिम बहुल देश सख्त पाबंदियां लगा चुके हैं। हालांकि तीन तलाक की तरह मुसलमानों में बहुपत्नी प्रथा भी अब नाममात्र ही बची है (कमोबेश उतनी ही जितनी हिंदुओं में, हालांकि हिंदुओं के लिए यह गैर-कानूनी है) फिर भी यह अन्यायपूर्ण है। हमारे यहाँ भी कानून में बदलाव कर इसे मर्यादित करना चाहिए।
इसी तरह हिंदू समुदाय पर लागू होने वाले पारिवारिक कानून में आज भी लड़की को उत्तराधिकार के समान अधिकार पूरी तरह नहीं मिले हैं, बाल विवाह को खारिज करने का अधिकार नहीं है और गैर-शादीशुदा लड़की को नाबालिग की तरह देखा जाता है। उत्तराधिकार के मामले में मिताक्षरा कानून के तहत पैतृक संपत्ति में हिस्से का कानून बदलना चाहिए और टैक्स के लिए ‘हिंदू अविभाजित परिवार’ जैसी व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं बचा है। सिख समुदाय पर हिंदू पारिवारिक कानून लागू करने पर गंभीर आपत्ति हुई है। इसी तरह ईसाई समुदाय के कानून में तलाक विरोधी व्यवस्था और गोद लेने के कानून में बदलाव की जरूरत है।
अगर इस मामले में सरकार की नीयत साफ है तो उसे यह स्पष्ट करना चाहिए कि बहुसंख्यक समाज के पारिवारिक कानून को अल्पसंख्यकों पर थोपने की उसकी मंशा नहीं है। इस सवाल पर एक नया बखेड़ा शुरू करने के बजाय बेहतर होगा अगर मोदी सरकार अपने ही द्वारा नियुक्त किए पिछले विधि आयोग की सिफारिश को स्वीकार कर ले और सभी समुदायों के पारिवारिक कानून में तर्कसंगत और संविधान सम्मत बदलाव करने की शुरुआत करे।