हम आंदोलित पानी की आवाज़ सुनें!

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पेंटिंग- कौशलेश पांडेय
पेंटिंग- कौशलेश पांडेय

— ध्रुव शुक्ल —

पानी इतना आंदोलित क्यों है? वह हमारे रास्ते क्यों रोक रहा है? हमारी गृहस्थी क्यों बहा रहा है? बस्तियां क्यों डुबा रहा है। हमें कुछ देर ठिठक कर अपने आधुनिक शहरों और गांवों की तरफ़ देखते हुए अपनी ओर आते आंदोलित पानी की आवाज़ सुनना चाहिए। राजधानी में अपने अवरुद्ध मार्ग को खोजती यमुना लालकिले तक आ गयी है।

हमारे जीवन का सबसे प्राचीन मार्ग जल ही है जो हमें अब तक किनारे लगाता आ रहा है। पानी जबसे इस धरती पर है, अपना मार्ग जानता है। वह जानता है कि उसे बहते-बहते गांव की कुइया, पोखर और ताल में भरना है। उसे नदियों को जलवती बनाये रखकर धरती की काया में कुओं और बावड़ियों में सबकी प्यास बुझाते रहने के लिए धीरे-धीरे रिसना है।

हमारे पूर्वज पानी के मार्गों पर नहीं, उसके किनारों से अपनी दूरी और आत्मीयता को पहचानकर सदियों से उसी के करीब बसते रहे हैं। पूर्वजों ने सबके लिए पानी के ठहरने की गहराइयों को भी सदियों तक संजोकर हमेशा साफ़-सुथरा बनाये रखा। सबकी प्यास बुझाने वाली बावड़ियाँ हमारी श्रेष्ठतम निर्माण कला का उदाहरण हैं। उनकी गहराई में जलविहीन उदास सौन्दर्य अब कितना निष्प्राण लगता है।

पानी कभी अपने बहने का मार्ग और बिलमने की जगहें नहीं भूला। हम ही उसके तालाबों को पूरकर अपनी कालोनी बनाने लगे हैं। पानी के किनारों को तोड़कर और उसके रास्ते को संकरा करके अपनी षष्ठमार्गी (सिक्सलेन) सड़कें बना रहे हैं। पानी वहीं आकर हमारी कालोनी में भर रहा है और सड़कों को डुबाकर उखाड़ रहा है। यह पानी के रास्ते पर हमारे दुराचार और अतिक्रमण का फल है।

हमने पर्वतों में संचित और मुक्त झरते जल को भी ऊंचाइयों पर बांधकर रखने का दुस्साहस किया है। पानी का रास्ता रोकने वाली हमारी आधुनिक नदी घाटी परियोजनाओं की लोहे और सीमेण्ट से ढाली गयी ऊंची दीवारें दरक रही हैं, टूटकर बह रही हैं, सेतु ढह रहे हैं। नदियों के मार्ग में आधुनिक उद्योगों का जानलेवा रासायनिक कचरा, शहर की कालोनियों का मल-मूत्र और पाखण्ड से भरी पूजा के सड़े हुए बदबूदार फूल बह रहे हैं। पता नहीं, जीर्ण घाटों पर बैठे पण्डे हमारे कौन-से पापों का प्रायश्चित करवा रहे हैं?

गंगा-यमुना, नर्मदा-ताप्ती, कृष्णा-कावेरी, बेत्रवती-दशार्ण, गोदावरी-इन्द्रावती आदि प्राचीन नदियां अपने-अपने जल मार्ग पर अपने जल का स्वाद लेकर बह रही हैं और हम नदियां जोड़ने की पापपूर्ण परियोजनाएं बनाकर उनसे अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं। पानी तो सबका स्वार्थ रहित सखा है जो बिना किसी भेदभाव के सबकी प्यास बुझाने को आतुर है और हम उसे बेचकर उसका निर्लज्ज धंधा करने लगे हैं।

वैदिक ऋषिगण ऋचाएं गुनगुनाते हुए कहते रहे हैं कि — जब पवित्र जल निनाद करते हुए अपने मार्ग पर बहता है तो इसके तृप्तिदायक मधुर संगीत को सुनकर हम कामना करें कि सबके जीवन में इस मंगलकारी जल का सांगीतिक प्रवाह बना रहे। महाकवि तुलसीदास राम के सुयश का गान इसी तरह करते हैं —
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू।
वेद पुरान उदधि घन साधू।
बरसहिं राम सुजश बर बारी।
मधुर मनोहर मंगलकारी।
—– जल हमारी सुमति की भूमि पर हृदय की गहराई में अगाध रूप से सदा भरा रहने के लिए ज्ञान के सागर से साधु रूप बादलों जैसा आकाश में उठकर ऐसे बरसता है जैसे राम का मंगलकारी सुयश बरस रहा हो। हमारे हृदय में भरा और सब पर करुणा करने वाला यह जल ही तो है जो किसी का दुख देखकर हमारी आंखों में झलक आता है। पूर्वज कहते रहे हैं कि जिस समाज की आंखों का पानी मर जाता है उसका उद्धार संभव नहीं।

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