दुख को कम करने का अनुष्ठान

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पेंटिंग- विनोद अरोड़ा
पेंटिंग- विनोद अरोड़ा

umesh prasad singh

— उमेश प्रसाद सिंह —

साहित्य मनुष्यजाति के जीवन में दुख को कम करने की साधना है। आज की परिस्थिति में, वर्तमान परिवेश में भी साहित्य व्यवसाय नहीं है। व्यवसाय नहीं हो सकता। साहित्य उत्पाद नहीं है। वह कापीराइट से संरक्षित संपदा नहीं है। वह शब्द कर्म नहीं है। वह किसी के भी वैयक्तिक अधिकार की संपत्ति नहीं है। साहित्य संवेदना के परिष्कार और परिशोधन का माध्यम है। वह सामूहिक विरासत के अद्भुत वैभव का वाचक है। वह ऐसा रयासन है, जो चित्त का स्पर्श करके निकल जाता है। वह चित्त को सहलाता है। चित्त बदलने लगता है। चित्त में बदलाव की प्रक्रिया को प्रारम्भ करके वह आगे निकल जाता है। वह भौतिक भी है मगर केवल भौतिक ही नहीं है। वह अभौतिक भी है, मगर केवल अभौतिक ही नहीं है। साहित्य केवल स्थूल नहीं है। वह स्थूल के साथ सूक्ष्म भी है। अत्यन्त सूक्ष्म है। उसका स्वरूप भी सूक्ष्म है और उसका प्रभाव भी सूक्ष्म है। उसे पकड़ने का हर प्रयत्न विफल है, उसे बाँध लेने की कोशिश कभी कामयाब नहीं है। वह बाँधने से बँधता नहीं है। वह हर बन्धन से आजाद है। वह पूरा-पूरा लौकिक होकर भी पूरा-पूरा अलौकिक है।
साहित्य औद्योगिक क्रान्ति का आविष्कार नहीं है। वह औद्योगिक क्रान्ति से निर्मित आधुनिक सभ्यता की उपज नहीं है। वह बहुत पहले से दुनिया भर में मनुष्य की चेतना के उन्नयन का माध्यम बनता रहा है। साहित्य मनुष्य के लिए आजीविका का साधन नहीं है। वह उसके जीवन निर्वाह का निमित्त नहीं है। वह उसकी चेतन अस्मिता का सर्वदा से उन्नायक है। कल भी था। आज भी है। कल भी रहेगा। आधुनिक सभ्यता मनुष्य और मनुष्यता की विरोधी सभ्यता है। वह मनुष्य को कमजोर बनाने के उद्योग में अनुरक्त सभ्यता है। वह मनुष्य को बाजार का दास बनाने को उद्यत सभ्यता है। वह लोभ और लाभ को जीवन मूल्य की तरह प्रवर्तित करने वाली सभ्यता है। आधुनिक सभ्यता के दुश्चक्र ने साहित्य को प्रभावित किया है। फिर भी वह साहित्य को पराभूत करने में सफल नहीं हो सकी है। सफल हो भी नहीं सकती है।
आज साहित्य बाजार में है। मगर बीच बाजार में होकर भी बाजारू नहीं है। साहित्य का व्यापार भी हो रहा है। बड़ा ही बेधक और घटिया व्यापार हो रहा है। फिर भी व्यापार साहित्य की अस्मिता का लोप करने में समर्थ नहीं हो पा रहा है।  साहित्य की अस्मिता को कोई भी बाजार व्यवस्था चाहे जितना भी क्षत-विक्षत कर ले मगर उसे वह लुप्त नहीं कर सकती। साहित्य की अस्मिता की जड़ें बाजार में नहीं, मनुष्य के जीवन की गहराई में धँसी हैं। उसकी अभिक्रिया मनुष्य के जीवन की आन्तरिकता में घटित होती है।
हमारी परंपरा में साहित्य बेचने की चीज नहीं है। साहित्य बाँटने की चीज है। मुफ्त में बाँटने की चीज। बाँटना मुफ्त में ही होता है। मुफ्त में ही बाँटना संभव हो सकता है। हम दुनिया की सबसे बहुमूल्य चीज के अनुसंधान में हमेशा से तत्पर रहने वाली जाति के वंशधर हैं। उसे उपलब्ध करने का संकल्प ही हमारे जीवन का मूल लक्ष्य रहता आया है।
एम.सरोज
एम.सरोज
भारतीय जाति का जीवन आनन्द को उपलब्ध होने की प्ररेणा से संचालित जीवन है। यही हमारे जीवन विश्वास का मूल आधार है। हम सुख को बाँटने की विरासत के वारिस हैं। किंचित भी सुख को प्राप्त होते ही हम उसे बाँटने लगते हैं। सुख बाँटने से बढ़ता है। बढ़ता जाता है। सुख के बढ़ने से दुख कम होता है। दुख को कम करने का उद्योग हमारी सभ्यता के केन्द्र में है। साहित्य हमारी चिरन्तन सभ्यता का प्रकाशक है। हमारी सभ्यता प्रकाश की संवाहक सभ्यता है। साहित्य जीवन में प्रकाश का पुजारी है। भारतीय जाति के तो व्यापार का भी आदर्श शुभ-लाभ है। हम केवल लाभ के आकांक्षी कभी नहीं रहे हैं। हमारे लिए शुभ पहले है। लाभ बाद में। हम मनुष्यजाति की शुभाकांक्षा से संपन्न होकर समृद्ध होने में जीवन की सार्थकता समझने वाले जीवन विश्वास के अधिष्ठाता और अधिशासी लोग हैं। नहीं, साहित्य हमारे लिए व्यापार कभी नहीं है। कभी नहीं हो सकता है। साहित्य हमारे लिए जीवन उत्सव का आयोजन नहीं, अनुष्ठान है।
दुनिया भर में मनुष्य की बुनियादी संरचना एक जैसी ही है। भौगोलिक स्थितियों की भिन्नता से, प्रकृति और परिवेश के प्रभाव से, संस्कारों की अलग-अलग छाप से जो भिन्नताएँ दिखाई पड़ती हैं, वे बहुत मामूली हैं। वे बाहर-बाहर दिखने वाली हैं। मनुष्य की मूल अस्मिता एक जैसी ही है। समूची मनुष्यजाति की जो मूल अभीप्सा है वह आनन्द की खोज की अभीप्सा है। आनन्द को उपलब्ध हो लेने की अभीप्सा है। आनन्द की उपलब्धि की अभीप्सा में दुख का निवारण अपने आप समाहित है। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में आनन्द को पा लेने के लिए उत्सुक है। उत्प्रेरित है। उन्मुख है।
भारतीय जाति आनन्द के मार्ग के संधान में सबसे पहले से प्रवृत्त जाति है। हमारा साहित्य आनन्द के स्रोत की तलाश के प्रति उन्मुख साहित्य है। हमारी साहित्य की संकल्पना जीवन के विराट बोध से अनुप्राणित अमृत संकल्पना है। हमारा साहित्य वैयक्तिक नहीं सामूहिक विरासत के महत्तम वैभव का अक्षुण्ण उत्तराधिकार है। जीवन के व्यापक अनुभवों की साझीदारी का खुला आमंत्रण है। भारतीय साहित्य का आदर्श संसार में सामूहिक संपत्ति की सबसे पुरानी परिकल्पना की प्रस्तावना है। हमारे साहित्य का विश्वास सुख को बाँटकर मनुष्य जीवन में दुख को कम करने का अद्भुत आयोजन रचता है। हमारा साहित्य सृजन है। रचना है। सजीव है। उत्पाद नहीं है। रचना व्यापार के अनुशासन में अँटने वाली चीज नहीं है। जीवित चीजों का व्यापार, व्यापार नहीं अपराध कहा जाता है।
जब हम सुख का संधान करने चलते हैं तो दुख पहले ही मिल जाता है। हमारा रचनाकार दुख को पाकर उसके विक्षोभ में बह नहीं जाता है। दुख हमारे लिए कहने की नहीं सहने की चीज है। दुख को तमगे की तरह गले में लटका कर प्रदर्शित करना रचनाकार का स्वभाव नहीं है। दुख शोभा की चीज नहीं हैं कि उसका प्रचार किया जाय। वह ऐसी चीज नहीं है कि उसका प्रसार किया जाय। नहीं, साहित्य दुख के प्रसार का माध्यम नहीं है। वह दुख की पहचान का निमित्त है। दुख के मूल कारण को जानकर जीवन से उसे बाहर निकाल देने का आयोजन साहित्य का धर्म है। दुख का मूल कारण वैयक्तिक क्षुद्र अहं है। अपने क्षुद्र अहं की उपासना का आयोजन दुख का मूल है। अस्तित्व के विराट अवबोध की अवज्ञा, उपेक्षा और अस्वीकृति ही दुख के प्रसार की निमित्त है।
सामूहिक विराट अस्मिता की प्रतीति में ही सुख का अधिष्ठान है। हम ही सबमें है का विराट बोध अमृतबोध है। हम नहीं होंगे तो भी सबमें होकर हम हमेशा होंगे। क्षुद्र बोध हमें अर्जन में प्रवृत्त करता है। अर्जन व्यापार की उत्प्रेरणा है। व्यापार दुख के प्रसार का उत्प्रेरक है। विराट बोध मनुष्य जीवन को विसर्जन में प्रवृत्त करता है। वह व्यक्ति को समूह में विलीन होने को अभिमुख करता है। विसर्जन में दुख नहीं है। मनुष्य का असीम में प्रसार है। साहित्य विसर्जन के माध्यम से मनुष्य के जीवन में सुख के असीम प्रसार का अनुष्ठान है।
अनुभव की अभिव्यक्ति, कहने की कला दुख को कम करने और सुख के प्रसार का साधन है। हमारा साहित्य सुख के प्रसार का साधन है। रचना सुख की ही होती है। दुख की नहीं। दुख का विध्वंस होता है। सुख की प्रतिष्ठा में दुख का ध्वंस स्वतः समाहित है। साहित्य दुख को कम करने के मनुष्य के सनातन संकल्प का संवाहक है।
अनुभव तो हर मनुष्य की थाती है। वह सबका है। वह सबको होता है। वह सबके पास होता है। मगर हर कोई व्यक्त और अभिव्यक्त करने की कला नहीं जानता। हर कोई अपने को सार्वजनिक कर देने की उमंग का वारिस नहीं होता। साहित्य अभिव्यक्ति की कला को जानता है। साहित्यकार अभिव्यंजना की कला को जानता है। वह अपने को समर्पित कर देने के संकल्प की आराधना का उत्तराधिकारी है। साहित्यकार अपने को विराट अस्तित्व में विसर्जित कर देने की अदम्य अभीप्सा का संवाहक और संरक्षक संज्ञा है।
पेंटिंग- विमल विश्वास
पेंटिंग- विमल विश्वास
यह सच है कि आज साहित्य का व्यापार हो रहा है। खूब मजे में हो रहा है। खूब मजे से हो रहा है। आज सब कुछ का व्यापार हो रहा है। व्यापार धर्म का भी हो रहा है। व्यापार सेवा का भी हो रहा है। व्यापार आस्था का भी हो रहा है। मगर यह भी सच है कि साहित्य के व्यापार से साहित्य को कोई लाभ नहीं है। लाभ कमा रहा है, केवल व्यापारी। साहित्य के व्यापार से साहित्य का व्यापारी लाभ कमा रहा है। साहित्य का व्यापार केवल साहित्य के व्याापारी के लिए है।
साहित्य के लिए, साहित्यकार के लिए तो आज भी उसकी अभिव्यक्ति की कला दुख को कम करने की योग्यता है। इस योग्यता को निरन्तर विकसित करने की उपासना का अनुष्ठान ही साहित्य का धर्म है। यही साहित्यकार का स्वभाव है।
मनुष्यजाति के दुख को कम करने में साहित्यकार की अनुरक्ति ही उसका सबसे बड़ा पुरस्कार है। यही उसका सबसे बड़ा लाभ है। मनुष्य जीवन को व्यापार की वस्तु बनाने से बचाए रखने का उसका संघर्ष है, उसकी सार्थकता है। भारतीय साहित्य के उदात्त आदर्शों के अधिष्ठाता, कविता के श्रृंगार गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं, -‘‘कहहूं ते कुछ दुख घटि होई। काह कहौं यह जान न कोई।’’
तुलसीदास कहते हैं कि कहने से, कह देने से दुख घट जाता है। दुख कम हो जाता है। मगर कैसे कहा जाता है? यह सभी नहीं जानते हैं। कहने की विदग्धता सबको पता नहीं है।
जो कहना जानते हैं, जिन्होंने कहने की कला जान लिया है, वे कहते रहेंगे। मनुष्य जीवन में दुख को कम करने की खातिर वे बोलते रहेगे। वे लिखते रहेंगे। व्यापार चाहे उनके विरोध में जो पैंतरे बदले, बदलता रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। व्यापारी चाहे जैसे रंग बदलते रहें, कोई हर्ज नहीं। साहित्य अपने रास्ते चलता रहेगा। साहित्यकार अपने अनुष्ठान से विमुख नहीं होगा। साहित्यकार का सबसे बड़ा परितोष, सबसे बड़ा लाभ, सबसे बड़ी रायल्टी मनुष्य जीवन में दुख को कम करने का अनुष्ठान बना रहेगा।
साहित्य अपनी विरासत से विमुख नहीं होगा। साहित्य अपनी परंपरा से विलग नहीं होगा। साहित्य अपनी मर्यादा से च्युत नहीं होगा। जब तक मनुष्य का अस्तित्व रहेगा, मनुष्यजाति के दुख को कम करने का अभियान रुक नहीं सकता। परिस्थितियाँ चाहे जितनी विपरीत हों, स्थितियाँ चाहे जितनी विकट हों, साहित्य का सुख को बाँटने का संकल्प कभी शिथिल नहीं होगा।
साहित्य केवल कहने वालों में सीमित नहीं है, उसका विस्तार सुनने वालों की सीमा में भी व्याप्त है। लिखने वाले जितना लिखते हैं, वही साहित्य की सीमा नहीं है। पढ़ने वालों की विशाल हृदयभूमि का क्षेत्र साहित्य की गरिमा का उद्भासक धरातल है। जो कहना नहीं जानते उनको भी सुनना आता है। जो लिखना नहीं जानते उनमें भी पढ़ने की योग्यता है। सुनने और पढ़ने वालों का विशाल समूह साहित्य की सीमा का ध्वज वाहक है। साहित्य बाजार के सम्मुख आत्मसमर्पण के प्रतिरोध में अडिग रहने वाली सत्ता है।

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  1. डॉ० उमेश प्रसाद सिंह जी द्वारा साहित्य के अस्तित्व व पहचान एवं भूमिका को लेकर लिखा गया आलेख बहुत महत्वपूर्ण है. उन्हें हार्दिक बधाई! ‘समता मार्ग’ डिजिटल मंच एवं इसके संपादक श्री राजेन्द्र राजन जी को साधुवाद!
    – शिव कुमार पराग, वाराणसी

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