7 अगस्त। खबर है कि केन्द्र सरकार एक ऐसा कानून लाने जा रही है कि कोई भी सरकारी सम्मान पाने से पहले, इस शर्त को मानना होगा कि वह सम्मान/पुरस्कार नहीं लौटाएंगे। सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस तरह का विचित्र कानून लाने की सरकार को क्यों सूझी होगी। कुछ साल पहले कर्नाटक के शिक्षाविद, कन्नड़ साहित्य के उद्भट विद्वान एवं अकादेमी पुरस्कार से विभूषित लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद, साहित्य अकादेमी की खामोशी से क्षुब्ध होकर, हिन्दी समेत भारत की अनेक भाषाओं के बहुत से साहित्यकारों ने अकादेमी पुरस्कार लौटा दिए थे। इससे अकादेमी के साथ-साथ सरकार की भी फजीहत हुई थी, और हिन्दुत्व के नाम पर देश में बढ़ रही असहिष्णुता के खिलाफ लेखकों के इस कदम की देश में ही नहीं, दुनिया भर में चर्चा हुई थी। अच्छा तो यह होता कि मौजूदा सरकार उससे कोई सबक लेती और असहिष्णुता पर लगाम लगाती। लेकिन उलटे, उसने असहिष्णुता को बढ़ने दिया है, खुद भी बढ़ाया है और अब उसे एक अजीब तथा लेखकों के लिए अपमानजनक कानून बनाने की सूझी है। पुरस्कार वापस करना विरोध प्रकट करने का एक तरीका है, विरोध जताना ही होगा तो हजार तरीके निकल आएंगे।
बहरहाल, पुरस्कार पाने से पहले, नहीं लौटने की शर्त वाला कानून बनाने के प्रस्ताव पर तीखी प्रतिक्रिया हुई है। जनवादी लेखक संघ ने पिछले दिनों इस बारे में विधिवत बयान जारी कर केन्द्र सरकार की इस पहल को निंदनीय करार दिया है।
जनवादी लेखक संघ का बयान इस प्रकार है –
जनवादी लेखक संघ एक संसदीय कमेटी द्वारा पारित एवं संसद के पटल पर सोमवार को प्रस्तुत उस प्रस्ताव का विरोध करता है, जिसमें सरकारी पुरस्कार लेनेवालों से यह लिखित वचन लेने की बात कही गई है कि वे भविष्य में कभी भी राजनीतिक कारणों से पुरस्कार वापस नहीं करेंगे।
2015 में प्रोफेसर एमएम कलबुर्गी की हत्या के बाद 39 अकादेमी पुरस्कार विजेताओं ने पुरस्कार वापसी की थी। तब बुद्धिजीवियों की हत्या पर सरकार के रवैये को एक मौन समर्थन की तरह देखे जाने और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस रूप में चर्चा में लाने में पुरस्कार वापसी की अहम भूमिका थी। उसी लहर से डरी हुई केंद्र सरकार ने अब यह सुनिश्चित करने का फैसला किया है कि भविष्य में ऐसा न हो। यातायात, पर्यटन और संस्कृति से संबंधित संसदीय समिति ने ‘फंक्शनिंग ऑफ नेशनल अकादेमीज एंड अदर कल्चरल इन्स्टिच्यूशंस’ पर दोनों सदनों में पेश की गई रिपोर्ट में कहा है कि राजनीतिक कारणों से इस तरह की वापसी ‘देश के लिए अपमानजनक’ है। यहां याद दिलाने की जरूरत नहीं कि प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या के बाद लेखकों की पुरस्कार वापसी के पीछे इस बात की नाराजगी थी कि इस अकादेमी पुरस्कार विजेता की हत्या पर भी ‘साहित्य अकादमी’ ने कोई शोक-सभा करना तो दूर, शोक-प्रस्ताव तक पारित नहीं किया था। इतने बड़े कद के लेखक के लिए, और वह भी अकादेमी से सम्बद्ध लेखक के लिए अकादेमी का यह अपमानजनक रवैया लेखकों को बिल्कुल नागवार गुजरा था और यही पुरस्कार वापसी का कारण था। इसे ‘राजनीति’ के सीमित अर्थ में एक ‘राजनीतिक कारण’ बता देना हास्यास्पद है, या संभवतः इस बात की स्वीकारोक्ति कि प्रो कलबुर्गी के हत्यारे सत्ताधारी जमात की विचारधारा से सम्बद्ध थे।
यह एक विडंबना ही है कि कमेटी ने तर्कशील बुद्धिजीवियों की हत्या जैसी घटनाओं को देश के लिए अपमानजनक मानने की जगह उस पर लेखकों की प्रतिक्रिया को देश के लिए अपमानजनक माना है। उनका संदेश स्पष्ट है : ऐसी नृशंस घटनाएं होती रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क उनकी चर्चा होने से पड़ता है। सरकार का यह रवैया देश में घट रही सभी शर्मनाक और निंदास्पद घटनाओं को लेकर है। मिसाल के लिए, वह मणिपुर में महिलाओं के सार्वजनिक रूप से किए गए अपमान और बलात्कार से विचलित नहीं है, बल्कि उस घटना की वीडियो वायरल होने से परेशान है और यह जांच करवा रही है कि आखिर वह किस स्रोत से सोशल मीडिया में पहुंचा। उसे घटनाओं से आपत्ति नहीं है, घटनाओं को निंदा का विषय बना देनेवाली चर्चा से आपत्ति है।
ठीक यही वजह है कि लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को संसदीय समिति के इस प्रस्ताव का पुरजोर विरोध करना चाहिए। यह शर्त एक लेखक और नागरिक के रूप में उसके लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है। यह बात समिति के एक सदस्य ने कही भी, जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक रिपोर्ट में दर्ज है। उन्होंने बिल्कुल ठीक कहा कि ‘भारत एक लोकतांत्रिक देश है और हमारे संविधान ने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी सौंपी है और साथ में विरोध प्रदर्शन की आजादी भी। पुरस्कार वापसी विरोध प्रदर्शन का एक तरीका भर है।’
हालांकि वचनबद्ध होने के बावजूद किसी मौके पर लेखक को पुरस्कार वापस करने से रोकना नामुमकिन ही होगा, क्योंकि उसे कानूनी तौर पर दंडनीय अपराध का दर्जा नहीं दिया जा सकता, पर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह ‘अन्डरटेकिंग’ देना उनके लिए अपमानजनक होगा। यह पुरस्कार हासिल करने के लिए अपने लोकतांत्रिक अधिकार का, कम-से-कम कागजी स्तर पर, समर्पण करने जैसा होगा।
संसदीय समिति की रिपोर्ट में शामिल यह प्रस्ताव उस सोच की दरिद्रता दिखाता है, जो मौजूदा सरकार की खास पहचान बन गई है। जनवादी लेखक संघ कड़े शब्दों में इसकी निंदा करता है और इसे खारिज किए जाने की माँग करता है। वह लेखकों से उम्मीद करता है कि वे भविष्य में ऐसे किसी सशर्त पुरस्कार को स्वीकार नहीं करेंगे।