— ओंकार मित्तल —
(डॉक्टर ओंकार मित्तल वर्तमान में प्राइमरी केयर फिजीशियन के रूप में दिल्ली शहर में अपनी निजी प्रैक्टिस करते हैं। कोरोना महामारी के बारे में लोक शिक्षण का काम पिछले एक साल से सतत कर रहे हैं। महामारी नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ काम करने का चार दशक का अनुभव है।)
पिछले साल मार्च में भारत में लॉकडाउन की घोषणा से कोरोना महामारी की खबर पूरे देश में फैल गई। आमतौर से होनेवाली महामारियों की तरह से अवधि कुछ सप्ताह या महीनों तक सीमित नहीं रही। एक वर्ष बाद यह फिर तेजी से उभरी है और इसने दूसरी लहर का रूप धारण कर लिया है। इसके साथ ही देश के कई शहरों में फिर से लॉकडाउन की घोषणा की जा चुकी है। साथ ही पूरे देश में फिर से लॉकडाउन होने का खतरा मँडरा रहा है।
अभी यह कहना संभव नहीं कि इस महामारी का अंत कब और कैसे होगा। इसके कारण पैदा हो रहे असमंजस और अनिश्चय के कारण समाज और देश में भय का वातावरण व्याप्त हो गया है। प्रस्तुत लेख लोक शिक्षण की दृष्टि से लिखा गया है। आशा है कि पाठक इसको पढ़कर अपने अनेक प्रश्नों का समाधान प्राप्त कर सकेंगे और उनकी शंका के निर्मूल-समाधान होने से समाज में व्याप्त भय को शांत करने में कुछ योगदान हो सकेगा।
महामारी विज्ञान की दृष्टि
महामारी का विज्ञान अलग है और किसी मरीज का इलाज करने का विज्ञान अलग है। आम विमर्श में इन दोनों समानांतर पहलुओं को उलझा दिया गया है। इस कारण बहुत सारी भ्रम की स्थितियां पैदा हो गई हैं।
महामारी या अंग्रेजी भाषा में जिसको एपिडेमिक कहा जाता है- जब कोई बीमारी दुनिया के कई देशों में एकसाथ होती है तो इसको महामारी, वैश्विक महामारी या पेंडेमिक नाम दिया जाता है। महामारी का एक मुख्य चरित्र होता है- बड़ी तेज गति से कोई बीमारी जब एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमण (इनफेक्शन) करते हुए चारों तरफ फैल जाती है। इसलिए महामारी के विज्ञान (एपिडेमियोलॉजी) की दृष्टि से मुख्य लक्ष्य होता है इसके फैलाव (संचरण) की रोकथाम करना। इसके लिए व्यक्तियों के आवागमन को रोकना, व्यक्तियों को एक दूसरे से मिलने से रोक देना- क्वारंटीन तथा स्वच्छता को सुनिश्चित करना- आदि कड़े कदम उठाए जाते हैं। बीमारी का शिकार हो रहे लोगों का इलाज करना तथा मृत्यु की ओर अग्रसर होते लोगों का इलाज करने की जिम्मेदारी अस्पतालों और चिकित्सक समुदाय की होती है। दोनों प्रकार के विशेषज्ञों के अलग वर्ग होते हैं। महामारी के विशेषज्ञों को यह भी सुनिश्चित करना होता है कि इलाज के प्रबंध की व्यवस्थाएं सुचारु ढंग से काम करें और इसकी योजना पहले से ही बना ली जाए ताकि जान-माल की कम से कम हानि हो, इसको ध्यान में रखकर महामारी की रोकथाम को सुनिश्चित किया जा सके।
लक्षण-रहित कोरोना
इस समय जो लोग कोरोना की महामारी के शिकार हो रहे हैं उनमें से 80 से 85 प्रतिशत में रोग के कोई लक्षण नहीं पाये जाते। इनको एसिम्पोमेटिक केस कहा जाता है। कोरोना महामारी के फैलाव में इनकी अहम भूमिका मानी गई है। लेकिन इनको किसी इलाज की आवश्यकता नहीं होती। केवल रोग का संक्रमण थामने के लिए इनको बाकी लोगों से अलग करना जरूरी होता है। इसी को क्वारंटीन का नाम दिया गया है।
लक्षण-सहित कोरोना
पंद्रह से बीस प्रतिशत कोविड पॉजिटिव केस सिम्पटोमेटिक होते हैं अर्थात इनमें रोग के विभिन्न लक्षण पाये जाते हैं। इनमें बुखार, जुकाम-खांसी और साँस का फूलना प्रमुख है। इनका भी हल्का-सौम्य (माइल्ड), मध्यम (मॉडरेट) और गंभीर (सीवियर) में वर्गीकरण किया गया है। मॉडरेट में दो अवस्थाएं पायी जा रही हैं। एक, सौम्य/हल्का-मध्यम (माइल्ड मॉडरेट)। दूसरा, गंभीर-मध्यम (सीवियर मॉडरेट)। कौन-सा केस माइल्ड से मॉडरेट, मॉडरेट से सीवियर और सीवियर से मृत्यु तक पहुंचेगा, यह बता पाना संभव नहीं है। सीवियर मरीजों को फेफड़ों के रोग-ग्रस्त होने के कारण आक्सीजन की कमी (हाइपोक्सिया) हो जाती है। बीमारी के ठीक न होने से कुछ मरीज मृत्यु का शिकार भी हो जाते हैं। विभिन्न अनुमानों में केस फैटेलिटी रेट या पॉजिटिव केसेस में मृत्यु दर को 2 से 3 प्रतिशत के लगभग माना गया है।
निदान और इलाज का विज्ञान
जैसा कि ऊपर कहा गया है- कोविड पॉजिटिव टेस्ट होने पर ही बीमारी का निदान माना जाता है। इस टेस्ट को आर.टी.-पी.सी.आर. टेस्ट का नाम दिया गया है। इसके लिए सैंपल मरीज की फैरिन्जियल म्योकोसा से लिया जाता है। इसकी रिपोर्ट पॉजिटिव या निगेटिव नाम से आती है। पॉजिटिव से तात्पर्य है कि मरीज के शरीर में आर.एन.ए.-कोरोना वायरस की कोविड-19 नाम की प्रजाति के जेनोमिक मेटीरियल की मौजूदगी पाई गई।
आमतौर से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) वायरस की वृद्धि को नियंत्रित करने में सक्षम होती है। और कुछ मामूली बुखार, जुकाम, खांसी के बाद बीमारी स्वयं ठीक हो जाती है। इस स्थिति में कुछ लाक्षणिक इलाज बीमारी के लक्षणों का शमन करने के लिए दिया जा सकता है। इसमें पैरासीटामाल की गोली, खांसी का शरबत (कफ सीरप) और विटामिन आदि शामिल हैं। कुछ सरकारी गाइलाइंस में कुछ एंटी बायोटिक्स का भी समावेश किया गया है।
रोग प्रतिरोधक क्षमता का अतिक्रमण
इस प्रकार वायरस अपने आप को स्वयं नियंत्रित करता है- शरीर की इम्युनिटी या रोग प्रतिरोधक क्षमता इसमें एक रक्षा पंक्ति का काम करती है। लेकिन करोना वायरस के केस में पाया गया है कि कई बार शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करके बहुत अधिक मात्रा में रक्षा रसायनों का अतिस्राव कर देती है। इसको ‘साइटोकाइन स्टार्म’ का नाम दिया गया है। ये अति मात्रा में स्रावित रसायन शरीर में अनेक प्रकार के इनफ्लामेटरी प्रोसेस को जन्म देते हैं। इससे शरीर के विभिन्न हिस्सों में रक्त के थक्के जमने लगते हैं जिसको थ्रोम्बोसिस कहते हैं। फेफड़ों के थ्रोम्बोसिस से ही आक्सीजन की कमी की स्थिति पैदा होती है। इन स्थितियों का शमन करने के लिए- डेक्सामेथासौंन – एंटी थ्रोम्बोलिक जैसी औषधियों और आक्सीजन का इस्तेमाल करना पड़ता है। जब साधारण आक्सीजन प्रभावी न हो तो वेंटिलेटर के माध्यम से फेफड़ों को सहारा देकर आक्सीजन के संचरण को बढ़ाना पड़ता है। लेकिन देखा गया है कि ऐसे वेंटिलेटर की जरूरत वाले गंभीर मरीज अकसर बच नहीं पाते हैं।
उपचार के लिए दिशा-निर्देश
ऐसे समय में जब बड़ी संख्या में लोग बीमारी का शिकार होते हैं और उनके मरने का खतरा मँडराता है- महामारी वैज्ञानिकों का यह भी कर्तव्य होता है कि सभी लोगों के इलाज के लिए सामान्य दिशा-निर्देश (गाइडलाइंस) सरकार की तरफ से जारी करवाएं। कोरोना के मामले में यह विशेष चुनौती है कि यह आकलन करना पूरी तरह से संभव नहीं कि कौन-सा व्यक्ति तेजी से माइल्ड से मॉडरेट, मॉडरेट से सीवियर की ओर अग्रसर हो जाएगा। हालांकि जो मरीज जीर्ण रोगों से ग्रसित होते हैं जैसे- वृद्धावस्था, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर या अन्य- उनके अंदर इस प्रकार का खतरा ज्यादा मौजूद रहता है। लेकिन कुछ युवा उम्र के स्वस्थ व्यक्ति भी इस दुर्भाग्यपूर्ण विपरीत स्थिति का शिकार हो जाते हैं जिसकी खबर से पूरे समाज और इलाके में भय का वातावरण बन जाता है।
आमतौर से असिम्प्टोमेटिक पॉजिटिव केसेस या बिना रोग के लक्षण वाले को किसी इलाज की आवश्यकता नहीं होती। इनको केवल अपने आप को 10 से 14 दिन तक क्वारंटीन करना होता है जिससे वायरस का संक्रमण दूसरे तक न फैले। साधारण सर्दी, जुकाम, बुखार के मरीजों का काम भी लाक्षणिक दवाइयों से चल सकता है जिसका संकेत ऊपर किया जा चुका है। सरकार द्वारा जारी की गई गाइडलाइंस में बिना लक्षणों वाले मरीजों, माइल्ड मरीजों के लिए विभिन्न प्रकार की दवाइयों का प्रावधान किया गया है लेकिन इसके बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं। आयुष विभाग के द्वारा इन स्थितियों में आयुष की दवाइयों की भी अनुशंसा की गई है।
लगभग 5-7 प्रतिशत कोविड पॉजिटिव मरीज ऐसे हैं जो मॉडरेट से सीवियर स्थिति में धीरे-धीरे पहुंच रहे होते हैं। इनके ऊपर विशेष निगाह रखने की जरूरत होती है। कई बार फेफड़ों में थ्रोम्बोसिस (रक्त जमा) होने के कारण इनके अंदर आक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है जिसका आकलन आक्सोमीटर नामक मशीन से किया जाता है। जिसका SPO2 या आक्सीजन सेचुरेशन 93 प्रतिशत से कम हो उसको हॉस्पिटल के अंदर ही इलाज करवाना चाहिए। घर के अंदर ही आक्सीजन देने की व्यवस्था की बात की जा रही है जो उचित व्यवस्था नहीं है। आक्सीजन के साथ कई प्रकार की विशिष्ट दवाइयों की व्यवस्था करनी पड़ती है जो एक साधारण व्यक्ति के या जनरल डॉक्टर के भी विवेक और क्षमता से बाहर है।
हैप्पी हाइपोक्सिया
एक विशेष स्थिति का ध्यान रखना भी जरूरी है जिसे हैप्पी हाइपोक्सिया के नाम से जाना जाता है। इसमें जहां एक ओर मरीज के फेफड़ों में थ्रोम्बोसिस का प्रभाव बढ़ रहा होता है और उसका आक्सीजन सेचुरेशन उत्तरोत्तर कम हो रहा होता है, वहीं उसको स्वयं इस कमी का अंदाजा नहीं हो पाता। वो कहता है कि मैं बिलकुल ठीक हूं। लेकिन अचानक उसका आक्सीजन का स्तर नीचे आ जाने से वह मत्यु का शिकार हो जा सकता है। इसलिए मॉडरेट लक्षणों वाले मरीजों के आक्सीजन स्तर पर आक्सीमीटर के माध्यम से निगाह रखना जरूरी है। जिनका आक्सीजन स्तर गिरता हुआ मालूम हो उनका एक्सरे-सीटी स्कैन और कुछ डी-डाइमर तथा सी.आर.पी. जैसी खून की जांच करके समय रहते इलाज देना जरूरी है।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर कोरोना एक महामारी है और हमारे सामने चुनौती इसके संक्रमण को रोकने की है। इसके लिए मास्क, सोशल डिस्टेन्स, स्वच्छता और क्वारंटीन जैसे कदमों को प्रभावी माना गया है। लेकिन इनमें से अधिकतर संक्रमित व्यक्ति किसी रोग के लक्षण का शिकार नहीं होते इसलिए संक्रमण फैलानेवाले व्यक्ति की पहचान करना कठिन है और इसके लिए सभी के टेस्ट करने (टेस्टिंग ऐंड ट्रैकिंग) का सहारा लेना पड़ता है। लगभग 15 प्रतिशत व्यक्ति हलके या तीव्र लक्षणों वाली बीमारी का शिकार होते हैं। इनमें से भी अधिकतर स्वयं को सीमित करनेवाले होते हैं। कुल दो-तीन प्रतिशत मरीज मृत्यु का शिकार भी हो जाते हैं।
सरकार और उसके साथ सरकारी और गैर-सरकारी प्रचार-माध्यमों के द्वारा एक ओर समाज में व्याप्त भय को भी कम करने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर गंभीर स्थिति की ओर जाते हुए मरीजों की समय रहते पहचान करके उनको सही समय पर सही इलाज मुहैया कराने की आवश्यकता है। भारत देश के अंदर उचित इच्छाशक्ति से इसको कर दिखाना संभव है।
इस वर्ष की शुरुआत से कोरोना महामारी के नियंत्रण के लिए दुनिया में विभिन्न टीकों या वैक्सीन का सहारा लिया गया है। यह माना गया है कि वैक्सीन से रोग का संक्रमण नहीं रुकेगा लेकिन सीवियर डिसीज होने की आशंका बहुत कम हो जाएगी। इस दावे की हकीकत आनेवाले महीनों और वर्षों में ही सामने आ पाएगी।