— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
हमारे हैदराबाद के पुराने सोशलिस्ट साथी गोपाल सिंह (रिटायर्ड जज) ने कल सोशल मीडिया पर एक ग्रुप फोटो प्रकाशित किया था। इसको देखकर कई पुरानी यादें जाग गई। 52 साल पहले का यह फोटो 1970 में पुणे में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में शिरकत करने के लिए हैदराबाद से सोशलिस्टों का जो प्रतिनिधि मंडल उसमें भाग लेने के लिए गया था, उस वक्त का है। इसमें कई साथियों के फोटो मैं पहचान रहा हूं। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र था, हमारे नेता सांवल दास गुप्ता की रहनुमाई में दिल्ली के प्रतिनिधियों के साथ भाग लेने के लिए मैं भी गया था। जाने से काफी दिन पहले दिल्ली के पार्टी कार्यालय में तैयारी शुरू हो जाती थी। सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधि साथियों की सूची बनने के बाद रेलवे टिकट की बुकिंग और व्यवस्था, जो साथी पहले रिजर्व नहीं करा पाते थे उनको कहा जाता था कि स्टेशन पर मिल जाना, हम सब आपस में एडजस्ट कर लेंगे। जाने का उत्साह और तैयारी इस तरह होती थी मानो किसी उत्सव को मनाने, शादी विवाह में जाने की उमंग हो।
रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठकर पूरे सफर में उस वक्त के सियासी हालात पर चर्चा के साथ-साथ सोशलिस्ट तहरीर के मुख्तलिफ पहलुओं पर गरमागरम जोरदार बहस के साथ-साथ कई साथी गप्प हांक कर, नकल उतार कर सफर कब खत्म हो गया पता ही नहीं लगने देते थे। गंभीर किस्म के साथी हाथ से पर्चा लिखकर सम्मेलन में अपने प्रस्ताव या संशोधन को पेश करने के लिए पहले से ही तैयार करते थे।
क्या अद्भुत नजारा सम्मेलन में देखने को मिलता था।जम्हूरियत और बोली की आजादी जिसकी आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता, एक साधारण कार्यकर्ता भी पार्टी के बड़े से बड़े नेता से वह सवाल करता था जिसका उसको अपने इलाके के लोगों, विरोधियों से सामना करना पड़ता था। और सवाल के साथ ही यह भी कहता था मुझे इन सवालों का जवाब चाहिए, नीतिगत मुद्दों पर सवालों की बौछार सम्मेलन में होती थी।
कोई उसको रोकने टोकने का प्रयास करे तो वह कहता था अपनी बात यहां पर नहीं रखूंगा तो कहां पर करूं। खूबसूरती देखिए कितना भी तीखा आक्रामक लगने वाला सवाल हो, नेता उतनी ही विनम्रता, सहजता से उसका जवाब देता था। आज कोई कल्पना कर सकता है, कि पार्टी के सम्मेलन में किसी बड़े नेता की आलोचना तो छोड़िए उनसे सवाल करने की हिम्मत भी कोई कर सकता है?
राजनीतिक कार्यकर्ता होने के कारण पार्टी सम्मेलन में भाग लेना जशन की तरह होता था। उस समय कई सूबों के प्रतिनिधि, साहित्य पुस्तकें बिल्ले, पार्टी के झंडे इत्यादि प्रदर्शन और बिक्री के लिए लेकर आते थे। महाराष्ट्र के साथी खास तौर पर कई भारी ट्रंक भरकर लाते थे।
इस फोटोग्राफ में बद्री विशाल पित्ती जी का का भी फोटो है। बद्री जी का विशाल आकर्षक व्यक्तित्व आंध्र प्रदेश की पारंपरिक किनार वाली धोती और उनके साथ कद्दावर, बलिष्ठ देह, घनी ऐंठी मूंछ वाले नरसिम्हा रेड्डी (जो बाद में तेलंगाना के गृहमंत्री बने) तथा अन्य साथी श्वेत धवल कपड़े की टोली अलग ही दिखाई देती थी। दक्षिण भारत के मद्रास, केरल, कर्नाटक के साथी वेस्टी लूंगी तथा बड़ी उम्र के लोग गले में अंगवस्त्रम डाले हुए चहलकदमी करते हुए देखे जाते थे। बद्री विशाल पित्ती जी आंध्र प्रदेश के धनाढ्य साहूकार परिवार, जिनके परिवार को राजा के खिताब से नवाजा गया था, वे डॉ राममनोहर लोहिया के ऐसे दीवाने बने कि अपना सारा जीवन उन्होंने डॉ राममनोहर लोहिया और सोशलिस्ट तहरीक के लिए खपा दिया। उन पर और उनके साथियों पर डॉक्टर लोहिया को इतना यकीन था कि जब उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो हैदराबाद में ही सोशलिस्ट पार्टी का केंद्रीय कार्यालय मरकज स्थापित किया। आज अगर 9 भागों मे डॉ राममनोहर लोहिया साहित्य उपलब्ध है, तो यह बद्री विशाल जी के कारण है। दुनिया भर में मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसेन डॉक्टर लोहिया पर इतने फिदा हो गए थे कि उन्होंने बद्री जी के घर पर बैठकर डॉक्टर लोहिया की सभी पुस्तकों के मुखपृष्ठ को बनाया था। तथा यहीं पर हुसैनी रामायण जैसी कालजयी पेंटिंग की रचना की थी। एक बंजारे की तरह पित्ती जी भारी-भरकम पुराने जमाने के टेप रिकॉर्डर को लेकर डॉ लोहिया के साथ दूर-देहात उबड़-खाबड रास्तों को तय करते हुए कभी सुदूर दक्षिण में,उत्तरपूर्व नागालैंड, मिजोरम, असम, कभी राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके के पार्टी सम्मेलनों, शिक्षण शिविरों, जनसभाओं में डॉ लोहिया के भाषणों को पहले सावधानी से टेप करते फिर अपने राजसी महल जैसे घर में बैठकर रात-रात भर उसको लिपिबद्ध करते, प्रूफ्ररीडिंग करते, छोटी-छोटी पुस्तिकाएं बनाकर बहुत ही कम दाम पर जिसमें लागत भी नहीं निकल पाती थी उसको पूरे देशभर में वितरित करने का अथक परिश्रम करते थे।
एक बार हैदराबाद की प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी ने डॉक्टर लोहिया से सवाल किया कि आप समाजवाद की बात करते हैं, आप सोशलिस्ट हैं पर आपके हैदराबाद के सबसे बड़े सिपहसालार तो राजा खानदान के बड़े पूंजीपति हैं। तो डॉक्टर लोहिया ने जवाब दिया था, मेरा बद्री मेरे साथ रहकर लगातार अपनी पुश्तैनी दौलत से घटा रहा है, और कांग्रेस पार्टी का पूंजीपति दिन दुगने रात चौगुने कमा रहा है, यह फर्क है बद्री विशाल में।
मेरे साथी गोपाल सिंह लड़कपन में ही सोशलिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए। 53 साल पहले खींचे गए इस फोटो का नौजवान गोपाल सिंह आज भी उसी शिद्दत, समर्पण के साथ सोशलिस्ट तहरीक के प्रचार प्रसार में लगा हुआ है। इतने लंबे अंतराल में सत्ता का लुभावनापन उनको विचारधारा से डिगा नहीं पाया, हिला नहीं पाया, हमें फख्र है अपने सोशलिस्ट साथियों पर।