प्रो. शेखर सोनालकर : एक जुझारू सेनानी

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शेखर सोनालकर
स्मृतिशेष शेखर सोनालकर (22 फरवरी 1951 - 4 अगस्त 2023)

— रजिया पटेल —

रिष्ठ समाजवादी कार्यकर्ता और जलगांव के एम.जे. कॉलेज के सेवानिवृत्त प्रोफेसर शेखर सोनालकर का 4 अगस्त 2023 को 72 वर्ष की आयु में निधन हो गया। सत्तर के दशक में जेपी आंदोलन में शामिल रहे सोनालकर को आपातकाल के दौरान जेल में डाल दिया गया था।

जयप्रकाश नारायण ने सोनालकर को ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ के महाराष्ट्र राज्य का पहला संयोजक नियुक्त किया, एसएम जोशी की सिफारिश पर। वह अपनी पत्नी वासंती दिघे के साथ चालीस से अधिक वर्षों तक महाराष्ट्र में विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रूप से शामिल रहे।

शेखर सोनालकर का नाम एक ऐसी शख्सियत के तौर पर आंखों के सामने आता है, जिन्होंने न सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि देश के सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों पर भी अपनी छाप छोड़ी है। शेखर जीवन भर पुणे-मुंबई के बाहर ग्रामीण महाराष्ट्र में इन आंदोलनों के वैचारिक नेता रहे। उन्होंने कई कार्यकर्ता तैयार किये। वे महाराष्ट्र के लगभग सभी समतावादी आंदोलनों के संपर्क में बने रहते थे।

मैं उनके संपर्क में तब आयी, जब मैंने घर छोड़ दिया और आंदोलन में शामिल हो गयी। मैं सबसे पहले छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के जलगांव कार्यालय गयी। यह दफ्तर शेखर सोनालकर के मकान के एक कमरे में था। पहले कुछ दिन मैं उनके घर पर रुकी। घर पर उनकी मां कुसुम ताई सोनालकर और शेखर ही थे। लेकिन दिन भर कार्यकर्ताओं की भीड़ लगी रहती थी। उनके काम से कई युवा लड़के-लड़कियां प्रभावित हुए और उनसे जुड़े। उनके काम करने का तरीका कभी ये नहीं था कि मैं नेता हूं और तुम अनुयायी हो। इसलिए हम लोग जो उनसे छोटे थे, उन्हें ‘शेखर’ कहते थे। दूसरा ये कि आप बिना किसी डर या संकोच के उनसे अपने मतभेदों पर चर्चा कर सकते थे। एक ओर वे अन्याय के विरुद्ध सजग और आक्रामक थे, तो दूसरी ओर उनका व्यक्तित्व प्रेमपूर्ण था। उन्होंने अपने आसपास एकत्रित हम जैसे लोगों का जीवन बदल दिया।

खास बात यह कि उन्होंने वैचारिक चर्चा चले, यह सुनिश्चित किया। राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषण की आदत बनाई, वह भी ‘स्थानीय से वैश्विक’ स्तर तक। वासंती दिघे, रत्ना रोकड़े, अरुणा तिवारी और जलगांव शहर और आसपास के तालुका के युवा- रमेश बोरोले, शैला सावंत, कुंजबिहारी, नितिन तलेले, राजेंद्र मानव, हमीद शेख, दिलीप सुरवाडे, कुर्हे गांव के हेमराज बारी, विकास, सुधाकर बडगुजर, उषा पाटिल, पचोरा के खलील देशमुख जैसे कई अन्य लोगों को जोड़ा। वे उन सभी के अनौपचारिक अभिभावक थे। और हमारे माता-पिता और परिवार को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। सभी समुदायों में उनका हमेशा बहुत आदर रहा!

वासंती दिघे और शेखर सोनालकर ने शादी कर ली, जिसके बाद वे विशुद्ध रूप से सक्रिय परिवार बन गएगए। वासंती दिघे ने लगभग पूरा समय आंदोलन को समर्पित किया और एक-दूसरे को कार्यकर्ता के रूप में समझा। उनका घर आज भी कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा खुला रहता है।

उन्हें याद करते हुए मैं उनकी कार्यशैली का जिक्र करना जरूरी समझती हूं।‌ एक तरफ वे एक आंदोलनकारी के रूप में युवाओं की वैचारिक बैठक आयोजित करते थे, तो दूसरी तरफ वे हमें कार्यक्रम भी देते थे। शिविर और आंदोलन होते रहते थे, लेकिन जब भी जलगांव जिले में सांप्रदायिक दंगे हुए, उन्होंने वाहिनी के सदस्यों के अध्ययन समूह बनाए और उन्हें उन स्थानों पर भेजा। वे खुद भी साथ रहते थे।

वह हर बस्ती में जाकर दंगों के दौरान फैलाई जा रही अफवाहों के झूठ को उजागर करते थे। दंगों को फैलने से रोकने के लिए यह उनकी विशेष शैली/कार्रवाई होती थी।

वह एक ऐसा व्यक्ति था, जो खुली छाती के साथ शांति के लिए सड़क पर चल सकता था। हिन्दू, मुस्लिम और अन्य सभी समुदायों के लोग उनके प्रति सम्मान और आस्था रखते थे। उन्होंने महाराष्ट्र में समतावादी आंदोलन में कई संगठनों के साथ काम किया। वरिष्ठ सामाजिक नेता डाॅ. बाबा आढव के ‘एक गांव एक पनघट’ आन्दोलन में सक्रिय थे और मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नामांतर आंदोलन में भी भाग लिया था। उन्होंने ‘समाजिक कृतज्ञता निधि’ के लिए भी काम किया। उन्होंने ‘फॉरेंसिक ऑडिट’ के माध्यम से वित्तीय अपराधों और अपराधियों के मामलों की जांच के माध्यम से अपराधियों को सामने लाने में पुलिस की मदद करके सरकार द्वारा उन्हें सौंपी गई जिम्मेदारी को पूरा किया। बेशक, इससे उसके कुछ दुश्मन बन गए। उन्होंने सोनालकर को फॅंसाने की कोशिश की। मगर उनके साफ-सुथरे और बेदाग चरित्र और पेश किए गए सबूतों ने उन पर आरोप लगाने वालों को बेनकाब कर दिया।

शेखर सोनालकर गांधीजी और जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित थे। वे स्वतंत्र रूप से आंदोलनों के साथ चलते हुए इस वैचारिक विरासत को विकसित करते रहे। आपातकाल के समय वह एक राजनीतिक दल में भी शामिल हुए, लेकिन सत्ता का लाभ लेने के लिए नहीं, बल्कि तानाशाही और फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र और समानता के मूल्यों के लिए।

शिरपुर-शिंदखेड़ा क्षेत्र में संघर्ष वाहिनी द्वारा संचालित वन भूमि के लिए आदिवासियों के संघर्ष के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए शेखर ने कई लेख लिखे और बताया कि यह संघर्ष न्याय के लिए है।

वे राष्ट्रीय स्तर पर भी सक्रिय रहे। उन्होंने जलगांव और महाराष्ट्र के कई अन्य स्थानों पर ‘छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी’ की स्थापना की। बिहार के बोधगया मठ की अवैध जमीन की मुक्ति के लिए संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में चले सफल आंदोलन में भी सक्रिय रहे।

महाराष्ट्र में सिनेमा प्रतिबंध के खिलाफ लड़ाई में हमें उनका पूरा सहयोग और समर्थन मिला और यह सत्याग्रह सफल भी रहा।

ये तो जमीनी स्तर के काम थे, इसके साथ ही उन्होंने देश में उठने वाले और परेशान करने वाले कई मुद्दों पर विद्वत्तापूर्ण लेखन किया। कार्यकर्ताओं को तैयार और जागरूक करने के लिए लगातार बैठकें और चर्चाएं करते थे, ताकि समाज को इन मुद्दों के पीछे की राजनीति का पता चले। उनका सूत्रीकरण इतना तार्किक था कि विरोधियों के लिए उसे खारिज करना असंभव हो जाता था; और इतने निर्भीक कि विरोधी भी भयभीत हो जाते थे। उन्होंने हमें बार-बार बताया, अपने आचरण से दिखाया कि सत्य की शक्ति क्या हो सकती है।

1990 के दशक में बाबरी मस्जिद मुद्दा उग्र हो गया। इसके बाद उसे समझने के लिए उन्होंने न सिर्फ इतिहास का अध्ययन किया, बल्कि कई बार अयोध्या का दौरा भी किया। वैज्ञानिक अनुशासन और निष्पक्षता से लिखी गयी उनकी पुस्तक ‘अयोध्या विवाद : एक सत्यशोधन’ में लेखक की भूमिका में वे कहते हैं- “इतिहास का अध्ययन करते समय सत्य का ज्ञान होना चाहिए। झूठे साक्ष्य गढ़ कर कोई गौरवशाली इतिहास का दावा कर सकता है, लेकिन यह अनुचित है। हिटलर के जर्मनी ने झूठा इतिहास रचा, लेकिन श्रेष्ठता के भ्रम ने अंततः जर्मनी को ही नीचे गिरा दिया।” इस पुस्तक के लिए उन्होंने संदर्भ ग्रंथों की एक बड़ी सूची बनायी थी। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि इस किताब के लिए उनकी मेहनत बहुत बड़ी थी।

हाल के दिनों में, जब वर्तमान भारतीय जनता पार्टी सरकार ने ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ और ‘नागरिकता रजिस्टर’ और ‘राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर’ (सीएए, एनआरसी और एनआरपी) पर निर्णयों की घोषणा की और कार्रवाई शुरू की, तो असम सहित देश भर में युवा, छात्र, महिलाओं ने उसका विरोध करना शुरू कर दिया। उस समय पुलिस ने उन पर हिंसा का प्रयोग किया।

शेखर सोनालकर ने तुरंत इस चिंता पैदा करने वाले और परेशान करने वाले सवाल पर विद्वत्तापूर्ण पुस्तिका ‘नागरिकता सुधार और नागरिकता रजिस्टर का महाभारत’ लिखी। इसमें भारत की विविधता का इतिहास, भारतीय संविधान के निर्देश, वर्तमान सरकार के झूठ का अध्ययन किया है।

सीएए, एनआरसी और एनआरपी के बारे में बोलते हुए, कारावास भोग चुके शेखर सोनालकर ने चिंता की कि यह लड़ाई समाजवाद के खिलाफ है, जो बहुसंख्यकों के दिमाग को भ्रष्ट कर रही है और उन्हें अल्पसंख्यकों खिलाफ खड़ा कर रही है।

शेखर ने लिखा- “देश को बांटने के लिए सरकार धर्मान्तरण विरोधी कानून, समान नागरिकता कानून, जनसंख्या नियंत्रण कानून की आड़ में मुस्लिमों के प्रति नफरत बढ़ाने की कोशिश कर सकती है। उनका काम आसान है, क्योंकि वे मीडिया को नियंत्रित कर चुके हैं। लेकिन उदार परंपरा को प्रेम, करुणा और भाईचारे के माध्यम से संरक्षित करना होगा। हमें महावीर, सिद्धार्थ, जीसस, कबीर, ज्ञानोबा, तुकाराम, गुरु नानक और विवेकानन्द, गांधी जैसे संतों की परंपरा का अनुसरण करना होगा।”

शेखर सोनालकर ने कश्मीर मुद्दे पर ‘धारा 370’ पर भी लिखा। एक-दो साल पहले भी वह कश्मीर गये थे, भले ही उनकी तबीयत ठीक नहीं थी। उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत की कि आंदोलन के कार्यकर्ता और आम नागरिक इन सवालों के सभी पक्षों और सच्चाई को संतुलित तरीके से जानें। उन्होंने महात्मा फुले की सत्य की खोज की परंपरा को जारी रखा। जिस तरह वह साम्प्रदायिकता के मुद्दे को लेकर चिंतित थे, उसी तरह वह देश की गिरती अर्थव्यवस्था को लेकर भी चिंतित थे।

उनका मानना था कि कोई नया निवेश नहीं, बैंक संकट में हैं, क्रय शक्ति कम है, कोई नई फैक्टरियाँ नहीं, कोई नया उद्योग नहीं, (वर्तमान शासक शिक्षित बेरोजगारों को ‘पकौड़े’ तलने को रोजगार बता रहे हैं), कोई नई नौकरियाँ नहीं, भविष्य के लिए युवाओं को आर्थिक मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है। इसके बजाय, ‘हिंदू राष्ट्र’ के विचार को बढ़ावा देकर, क्या हम युवाओं के लिए आर्थिक अराजकता, अनिश्चित भविष्य, कमजोर लोकतांत्रिक संस्थानों, समाज में अविश्वास, घृणा-कलंकित दिमाग, संदेहपूर्ण सामाजिक मानसिकता, असुरक्षित कमजोर नेतृत्व और पतित भारत का निर्माण कर रहे हैं? यह कैसी राजनीति है? यही उनकी चिंता थी।

शेखर सोनालकर के पिता डॉ. मधुकर शांताराम सोनालकर महात्मा गाँधी के आन्दोलन के सक्रिय सत्याग्रही थे। उन्होंने ‘नमक सत्याग्रह’ में भी भाग लिया था। उस समय उन्हें पुलिस की भयंकर पिटाई का सामना करना पड़ा था और कारावास भी सहना पड़ा था। लेकिन वो अपने निश्चय और गांधी विचार से विचलित नहीं हुए। सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भी वो सहभागी रहे थे। देश के स्वतंत्र होने की खुशी में उन्होंने अस्पृश्य, मेहतर और चर्मकार समाज के लोगों को बुलाकर चांदी की थाली में रंगोली बनाकर समारोह के साथ उन्हें भोजन कराया था। शेखर सोनालकर की मां कुसुम ताई सोनालकर ने भी इन्हीं विचारों को आगे भी जारी रखा। जीवन भर धर्मनिरपेक्षता का अनुसरण किया और शेखर सोनालकर के सामाजिक संघर्ष में हमेशा समर्थन दिया। मैं उनके यहाँ जब रही, उस समय मुस्लिम परिवार की एक लड़की हिंदू परिवार में रह रही है, ऐसा फर्क कभी महसूस नहीं हुआ। बाद में वासंती दिघे और शेखर सोनालकर की शादी होने के बाद वासंती दिघे, उनका बेटा कबीर और बहू रत्ना भी उनकी विरासत को आगे चला रहे हैं।

घर की ये विरासत शेखर सोनालकर को मिली। लेकिन इसके साथ ही युवावस्था में आपातकाल विरोधी आन्दोलन में उतर गये और सिर्फ उतरे नहीं, बल्कि कारावास भी भोगा। इस देश के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की, लोकतांत्रिक संस्थाओं की हमें जी-जान से रक्षा करनी चाहिए, तभी देश का भविष्य उज्ज्वल होगा, ऐसा उनका अदम्य विश्वास था।

शेखर सोनालकर का जीवन एक तरह से चलता-बोलता आन्दोलन था। उनके द्वारा लड़ी गयी लड़ाइयाँ और सामाजिक, राजनीतिक जागृति के लिए किया गया लेखन एक प्रशिक्षण पाठ है। आज भारत के सर्वसामान्य जीवन का उध्वस्तीकरण शुरू है। ऐसे समय में सोनालकर का होना आधार स्तंभ होता। देश के लोकतंत्र को बचाने की सभी प्रकार की लड़ाई में उनकी छाप निश्चित रूप से महसूस की जाती रहेगी।

साथी शेखर सोनालकर को क्रांतिकारी सलाम।

(हिदी अनुवाद : सुशील/श्रीनिवास)

# अनुवादक द्वय की ओर से नोट –

इस लेख में ‘सिनेमा बंदी’ के खिलाफ आंदोलन का जिक्र है। मगर यह नहीं बताया गया है कि वह कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के इस फतवे के खिलाफ था कि मुस्लिम महिलाएं सिनेमा नहीं देखें। रजिया पटेल उस आंदोलन का नेतृत्व कर रही थीं। शायद इसी कारण उनको संकोच हुआ हो; या मराठी लेख होने के कारण लगा हो कि वहां तो यह बात सबों को मालूम ही है। फिर भी हमें उसका उल्लेख करना जरूरी लगा।


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