— नंदकिशोर आचार्य —
शिक्षा को लेकर सबसे उलझा हुआ सवाल यह है कि अपनी प्रक्रिया और लक्ष्यों में वह जिसके प्रति सर्वाधिक उत्तरदायी होती है, स्वयं उसका उसकी प्रक्रिया के निर्णय और संचालन में कोई योगदान या सहभागिता नहीं होती। शिक्षा से संबंधित सारे विचार-विमर्श में यह एकमत से स्वीकार किया जाता है कि उसकी प्राथमिक जिम्मेदारी बालक या शिक्षार्थी के प्रति है। यह शिक्षा का प्रयोजन बालक में अंतर्निहित स्वतंत्रता, विवेक, संवेदनशीलता और सृजनात्मकता के अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया बनना है- जो कि सभी शिक्षा दर्शनों को स्वीकार्य है- तो इसके लिए अनिवार्य हो जाता है कि अपनी व्यवस्था और प्रक्रिया में वह संबंधित बालक के अपने वैशिष्ट्य अर्थात् उसकी सृजनशीलता की विशिष्टता को न केवल समाहित करे बल्कि उसे ही अपने केन्द्र में रखे। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता कभी नहीं है- बल्कि विडंबना यह है कि इसके विपरीत प्रचलित सभी प्रकार की शिक्षा-प्रक्रियाएँ अपने लिए संसाधन जुटाने वाली शक्तियों और संस्थाओं के प्रयोजनों को ही केन्द्र में रखती हैं। इस प्रक्रिया में वह बालक के अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की न केवल उपेक्षा बल्कि उसका दमन करती हुई उसे संसाधनदाता के प्रयोजनों के अनुकूल बनाने की कोशिश करती हुई पायी जाती है।
इस सृष्टि में प्रत्येक मनुष्य का ही नहीं बल्कि प्रत्येक वस्तु तक का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है। एक ओर जहाँ उसमें कुछ समानताएँ होती हैं, जिनके आधार पर हम उसकी जातिवाचक संज्ञा का निर्धारण करते यानी यह पहचानते हैं कि वह वस्तु क्या है, वहीं उसकी कुछ अपनी विशिष्टता भी होती है, जिसके आधार पर हम उसकी व्यक्तिवाचक संज्ञा का निर्धारण करते यानी एक समूह विशेष से संबंधित मानते हुए भी उसकी अपनी विशिष्टता को पहचानते हैं। यह विशिष्टता कभी सुपरिभाषित और विश्लेषित-व्याख्यायित होती है तो कभी अनुभूत। लेकिन इस विशिष्टता के आधार पर ही हम करोड़ों बच्चों में से प्रत्येक बच्चे को वैसे ही अलग से पहचान लेते हैं, जैसे एक चरवाहा बकरियों या भेड़ों के एक बड़े समूह में प्रत्येक बकरी या भेड़ को अलग-अलग पहचान पाता है। जिन आधारों पर यह पहचान संभव होती है, वे सब मिलकर उसके विशिष्ट व्यक्तित्व की रचना करते हैं।
यह माना जाता है कि एक ही पेड़ से उगने वाली असंख्य पत्तियों या टहनियों, फूलों आदि में प्रत्येक की अपनी विशेषता होती है, जो उसे अपनी ही जाति की अन्य वस्तुओं से अलग करती है। कोई पत्ती किसी दूसरी पत्ती की प्रतिकृति नहीं हो सकती, उससे पूरी तरह नहीं मिलती, क्योंकि प्रकृति ने प्रत्येक पत्ती तक को उसका विशिष्ट व्यक्तित्व दिया है।
ठीक यही बात मानव-समाज के बारे में भी कही जा सकती है। प्रकृति ने प्रत्येक मनुष्य को विशिष्ट व्यक्तित्व दिया है। किसी व्यक्ति की अंगुलियों की छाप किसी दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलती, यह तो सभी जानते हैं। लेकिन अब तो यह भी संभव हो गया है कि किसी भी मनुष्य के शरीर के किसी हिस्से – उसके दाँत या बाल आदि के आधार पर उसके पूरे व्यक्तित्व की पहचान हो सके। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य जाति के सभी सामान्य गुणों को समाहित करते हुए भी उसका एक अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है और स्पष्ट है कि जो बात दैहिक स्तर पर सच है, वही मानसिक और बौद्धिक स्तर पर भी क्योंकि न केवल आधुनिक विज्ञान के अनुसार भावनाएँ और विचार एक भौतिक-रासायनिक प्रक्रिया की उपज हैं, बल्कि अध्यात्म-विज्ञान के अनुसार भी मन और बुद्धि भौतिक प्रक्रियाओं से संबंधित हैं। गीता में अष्टधा प्रकृति की व्याख्या करते हुए पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ-साथ मन, बुद्धि और अहंकार को भी प्रकृति ही माना है जबकि आत्मा प्रकृति नहीं है- यदि कोई उसका अस्त्तित्व मानता भी हो तो। तात्पर्य यह कि प्रत्येक मनुष्य का वैशिष्ट्य प्राकृतिक यानी विज्ञानसम्मत है। वह एक समूह का सदस्य भी है और एक विशिष्ट व्यक्ति भी।
इसलिए किसी भी तरह की सामाजिक व्यवस्था और प्रक्रिया की बुनियादी कसौटी इस बात में है कि जहाँ वह एक ओर किसी समूह का सदस्य होने के चलते अपनी जिम्मेदारियों को निबाहने के लिए उसे योग्य बनाये, वहीं उसके अपने वैशिष्ट्य के मुखरित होने के अवसर भी जुटाये यानी समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्ट व्यक्ति हो, कोई औसत व्यक्ति नहीं।
विशिष्ट का तात्पर्य अधिक अधिकार नहीं बल्कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता और सृजनशीलता के विशिष्ट स्वरूप की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया, जो अनिवार्यतः किसी अन्य के वैशिष्ट्य के अधिकार का भी सम्मान करती हो। इन अर्थों में वैशिष्ट्य भी सामान्य गुणों की गणना में सम्मिलित हो जाता है यानी मनुष्य होने का अर्थ ही एक विशिष्ट मनुष्य हो जाना है।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि प्रत्येक की स्वतंत्रता सबकी स्वतंत्रता की अनिवार्य शर्त है। विशिष्टता स्वतंत्रता का ही गुणात्मक उत्कर्ष या रूपांतरण है। इसलिए एक आदर्श समाज-व्यवस्था की कसौटी के लिए हम स्वतंत्रता के स्थान पर विशिष्टता भी पढ़ सकते हैं।
लेकिन क्या हमारी शिक्षा-व्यवस्था एक सही समाज-व्यवस्था के इस आदर्श अथवा अपने शिक्षार्थी के व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य के प्रति किसी भी स्तर पर सजग या चिंताशील दिखायी देती है? क्या माता-पिता अपनी संतान के वैशिष्ट्य की कोई पहचान रखते और उसके प्रति संवेदनशील दिखायी देते हैं?
मानवाधिकारों के शिक्षा संबंधी अनुच्छेद में प्रत्येक व्यक्ति के शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को मान्यता देते हुए कहा गया है कि अपने बच्चों के लिए शिक्षा-प्रक्रिया के चयन में माता-पिता के अधिकार को प्राथमिकता मिलेगी। ऐसा कहते हुए उम्मीद शायद यही की गयी होगी कि माता-पिता बच्चे के लिए शिक्षा-प्रक्रिया के चयन में उसके वैशिष्ट्य का भी पूरा ध्यान रखेंगे। लेकिन हम देखते हैं कि व्यवहार में इससे ठीक उलट हो रहा है। माता-पिता बच्चे के अपने विशिष्ट व्यक्तित्व को समझने के बजाय अपनी आकांक्षाओं को बच्चे पर थोपते हुए दिखायी देते हैं। अपनी शिक्षा-प्रक्रिया के चयन में बच्चे को कोई स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती।
दरअस्ल, यह भी एक उलझा हुआ सवाल है, जिस पर कोई निर्दोष या पूर्णतया आपत्तिरहित समाधान अभी प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। यह कहा जाता है कि बच्चे की जानकारी और बौद्धिक विकास इस स्तर का नहीं होता है कि वह अपने लिए उस उचित प्रक्रिया का चयन कर सके जो उसके विशिष्ट व्यक्तित्व के विकास के साथ-साथ उसे भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए भी तैयार कर सके। इसलिए यह अधिकार उसके माता-पिता को दिया गया है क्योंकि उसके प्रति उनसे अधिक जिम्मेदार और संवेदनशील कोई दूसरा नहीं हो सकता।
एक हद तक इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है। लेकिन व्यवहार में होता यह है कि माता-पिता भी अपने समय में प्रचलित और राज्य तथा बाजार द्वारा प्रचारित-प्रसारित मान्यताओं और कल्पनाओं से इतने प्रभावित होते हैं कि वे बच्चे के लिए एक करियर चुनते हैं, जो कि अंततः उसे एक औसत व्यक्तित्व बना देता है, न कि एक विशिष्ट व्यक्तित्व- चाहे वह करियर कितना ही सफल अथवा अर्थोपार्जक क्यों न हो। कई दफा – बल्कि शायद अक्सर ही – इस प्रक्रिया में बच्चे का अपना वैशिष्ट्य न केवल नहीं उभर पाता बल्कि विडंबना यह है कि उसे अपने वैशिष्ट्य का हलका-सा आभास भी नहीं हो पाता।
समाज और शिक्षा का वातावरण उसे एक अनुकूलन की प्रक्रिया से इस तरह गुजारता है कि वह इस करियर को ही अपना वैशिष्ट्य मान लेता है और करियर के चयन में निर्णायक भूमिका इस बात की होती है कि आगे जाकर किसमें अधिक धन कमाया जा सकता या आर्थिक सुरक्षा हासिल की जा सकती है। बीसवीं सदी के प्रथम चतुर्थांश में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ डिक्लाइन ऑफ द वेस्ट में स्पेंगलर ने जो भविष्यवाणी की थी, वह अब सारी दुनिया और इसीलिए भारतीय समाज पर भी पूरी तरह लागू हो रही है। स्पेंगलर समझ रहे थे कि यह युग कविता या दर्शन का नहीं, तकनीक और अभियांत्रिकी का है, इसलिए उन्होंने युवकों से कहा कि भूल जाओ कि आत्मा का कोई अंश तुममें अभी भी शेष है। यह युग आत्मा का नहीं है। और यह आशा व्यक्त की कि नयी पीढ़ी के लोग उनके ग्रंथ से प्रेरणा लेकर कविता के बदले इंजीनियरिंग की ओर जाएंगे, कला-स्कूलों के बजाय नौ-सैनिक स्कूलों की ओर बढ़ेंगे और दार्शनिक बनने के बदले राजनीतिज्ञ बनना अधिक पसंद करेंगे। स्पेंगलर की आकांक्षा फलीभूत होती दीख रही है- बस हमें राजनीतितज्ञ का अर्थ-विस्तार करते हुए उसमें प्रबंधकों को भी शामिल करना होगा।
अभी कुछ अरसा पहले प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल ने एक बातचीत में शिकायत की थी कि विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी अब डॉक्टर या इंजीनियर बनना चाहते हैं और बुनियादी विज्ञान से संबंधित शोध में उनकी कोई रुचि नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो, ज्ञान का प्रयोजन अब सत्य की खोज नहीं बल्कि कुशलता में वृद्धि करना है। बुनियादी विज्ञान के बजाय तकनीकी में अधिक रुचि इसी बात को दर्शाती है।
लेकिन यह सब इसलिए है कि हमारी अर्थव्यवस्था और उससे संचालित शिक्षा-प्रक्रिया शिक्षार्थी के विशिष्ट व्यक्तित्व को नहीं बल्कि बाज़ार को केन्द्र में रखती है जिसका परिणाम यह होता है कि वह शिक्षार्थी की अंतर्निहित प्रतिभा और सृजनात्मकता के वैशिष्ट्य को उजागर करने की प्रक्रिया होने के बजाय उस वैशिष्ट्य को बाज़ार के एक औसत एजेंट में बदलने की प्रक्रिया हो जाती है।
इस शिक्षा व्यवस्था की एक कठिनाई यह भी है कि माता-पिता या स्वयं द्वारा गलत चयन कर लिये जाने के परिणामों को सुधारने के लिए भी वह बच्चे को बाद में कोई अवसर नहीं देती- बल्कि अक्सर शिक्षार्थी भी आर्थिक सुरक्षा के चलते उसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहता क्योंकि वह देखता है कि उसका वैशिष्ट्य उसे उतनी आर्थिक सुविधा नहीं दे सकता, जितना उसका औसत करियर। आखिर एक औसत इंजीनियर, डॉक्टर या प्रबंधक भी एक प्रथम श्रेणी के वैज्ञानिक, लेखक, दार्शनिक या कलाकार से अधिक आर्थिक सुरक्षा में रहता ही है। लेकिन सवाल यह है कि शिक्षार्थी के वैशिष्ट्य को पल्लवित-पुष्पित होने देने के बजाय उसे एक औसत एजेंट बनाकर शिक्षा किसका वास्तविक प्रयोजन पूरा कर रही है : अपना, शिक्षार्थी का या बाज़ार का?
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