लोकतंत्र के मंदिर में ऐसी भाषा!

0

— शिव श्रीवास्तव —

संसद, जिसे मंदिर कहा गया है। जहां राजनीति को धर्म कहा जाता है। वो धर्म, जो किसी को छोटा बड़ा नहीं मानता। संसद, जहां जाना न तो हर एक के बस की बात है और न ही संभव। उसके लिए जनता का विश्वास जीतना होता है। कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। कितना
अध्ययन करना पड़ता है। इतिहास से लेकर वर्तमान तक को ईमानदारी से समझना होता है।

पर दुख का विषय है, पिछले कई वर्षों में यह साबित हो चुका है कि भाषा और विचारों, कृत्यों के मामलों में संसद अपनी गरिमा खोती जा रही है। क्या देश से संबंधित असल मुद्दे ही नहीं बचे किसी के पास, जिन पर बहस हो? किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाकर हल्की भाषा का प्रयोग बताता है कि गुरूर कहां तक पहुंच चुका है! गली मुहल्ले में लड़ने वालों जैसी सोच, कब तक नहीं भूल पाएंगे ये लोग? जनता ने निर्वाचित करके भेजा है, इन्हें। बताइए ज़रा…

कब आएगा वो दौर जब संसद में विचारवान और व्यक्तिगत हित न साधने वाले लोग पहुंचेंगे। जो धर्म और जाति के नाम पर किसी को अपमानित न करते हों।

ऐसे में डा लोहिया याद आते हैं। जिन्होंने संसद में विरोधियों की भी सही बातों का समर्थन किया और गलत के खिलाफ अपनों से ही भिड़े। संसद में लोहिया जैसी दहाड़ दोबारा सुनने को कभी मिलेगी भी या नहीं?

सांसद महोदय पर बस चेतावनी से काम चल सकता है? ये इनका पहला कृत्य नहीं है। पहले इस तरह का व्यवहार वे कर चुके हैं। तीन महिला सांसदों ने तो स्पीकर को इनकी अभद्र भाषा और टिप्पणी के लिए शिकायत भी की थी।

चुनाव का इतना खौफ तो है कि उनके साथियों ने उनके इस बर्ताव पर उनसे इत्तेफाक नहीं रखा। अन्यथा कुछ तो उनकी इस भाषा पर प्रसन्न भी थे।

इस घटना का पूरा वीडियो हटा दिया गया है। रिकार्ड में ही नहीं रखा जाएगा।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment