— डॉ सुनीलम —
दुनिया में जो भी ताकतवर लोग रहे हैं उनकी यह स्थापना रही है कि उनका कोई विकल्प नहीं है। वे यह भी बताते रहे हैं कि उनके द्वारा बनाई गई नीति का कोई विकल्प नहीं है। दुनिया भर में जब राजशाही का प्रचलन था, तब राजाओं के द्वारा यह दावा किया जाता था कि उनका कोई विकल्प नहीं है। वे ही पृथ्वी पर ईश्वर द्वारा भेजे गए दूत हैं। जब राष्ट्र-राज्य की अवधारणा दुनिया में आई तथा जब राष्ट्रों का निर्माण हुआ, तब राष्ट्र-राज्य का कोई विकल्प नहीं है, यह बताया जाने लगा। आज का दौर बाजारवाद का दौर है। जिसमें यह साबित किया जा रहा है कि बाजार ही सर्वोपरि है, बाजार का कोई विकल्प नहीं है। दुनिया की पूंजीवादी ताकतों ने जब वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण को वैश्विक अर्थव्यवस्था का एकमात्र विकल्प बताया तब किशन पटनायक जी ने उसे चुनौती देते हुए कहा कि ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’।
इस पुस्तक (विकल्पहीन नहीं है दुनिया) में किशन जी ने समाज और देश के भविष्य का सैद्धांतिक विवेचन किया है। उन्होंने बुद्धिजीवियों से यह सवाल किया है कि बुद्धि और ज्ञान किसके लिए? उन्होंने लिखा है कि विषमता और अनैतिकता हमारी चिंता का मूल विषय है। विषमता कितनी कम होने पर मनुष्यों में मैत्री का भाव पनप सकता है? उन्होंने उसे न्यूनतम समता कहा है। किशन जी की दृष्टि से नैतिकता बढ़ेगी तो विषमता कम होगी।
किशन जी मानते थे कि हम भारत में जनतंत्र को सही रूप और चरित्र नहीं दे पाए। प्रत्येक नागरिक को आर्थिक सुरक्षा की गारंटी और सबकी समान शिक्षा को जनतांत्रिक अधिकारों में शामिल किया जाना था। वे कहते थे कि राजनीति में आने वाले आदर्शवादी कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण जनतंत्र में आवश्यक है। वे यह भी कहते हैं कि अधिक से अधिक चीजों को निजी संपत्ति में परिणत करने का विचार हमारे युग की अपसंस्कृति के मूल में है। वे मानते हैं कि जो प्राकृतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक है, उसको संपत्ति में परिणत करना सामंतवादी संस्कार है।
विश्व अर्थनीति की पुनर्रचना को लेकर वे कहते हैं कि सूद लेना हराम है। यह विचार मोहम्मद पैगंबर ने दिया है। आज विश्व अर्थव्यवस्था में धन से सूद कमाने वाले व्यक्ति और संस्थान ही सबसे ज्यादा शक्तिशाली हैं। उन्होंने कहा कि सूद लेना हराम है, के आधार पर कोई नई अर्थव्यवस्था खड़ी की जा सकती है?
किशन जी की इस किताब में संसद में कालाहांडी की बहस का भी उल्लेख है। शिक्षा, धर्मनिरपेक्षता को लेकर पांच घोषणापत्र भी इस किताब में प्रकाशित किए गए हैं। मंदिर-मस्जिद विवाद, राष्ट्रीय एकता को चुनौतियां, सेकुलर आंदोलन की गलतियां, हिंदू को परिभाषित मत करो, पराधीन पत्रकार, परमाणु बम, चीन का भय, गांधी का समाजवाद, गांधी का 125वां साल, सभ्यता का संकट, गांधी लोहिया और आधुनिक सभ्यता, सभ्यता का संकट, मणिवेली : आधुनिक विकास की एक किंवदंती जैसे लेख प्रकाशित किए गए।
उन्होंने ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’ पुस्तक में आधुनिक टेक्नोलॉजी और विश्व पूंजीवाद का गहराई से विश्लेषण किया। वे ऐसी शासन व्यवस्था की कल्पना करते थे जिसमें समाज का हर आखिरी व्यक्ति मानवीय गरिमा के साथ जीवन यापन कर सके।
उन्होंने दुखवाद और सुखवाद की अवधारणा गढ़ी। दुखवाद बौद्ध धर्म की दृष्टि है जो संसार को दुखमय मानती है और दुखों के निवारण को जीवन का लक्ष्य मानती है।
गांधीजी ने जिस तरह मानव जाति के दुखों को कम करना सभ्यता का लक्ष्य बताया था उसी नीति पर किशन जी चले। वे धर्मनिरपेक्ष तो थे लेकिन धर्म विरोधी और ग्रंथ विरोधी नहीं थे। मनुष्य और मनुष्य के बीच में बराबरी का रिश्ता कायम हो, यही प्रयास बराबर उनका रहा।
आइए, हम विकल्पहीनता पर चर्चा करें। दुनिया में अनेक धर्म, एक ईश्वर, एक किताब में भरोसा रखते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति में एक ईश्वर और एक किताब की जगह 33 कोटि देवता और सैकड़ों किताबों को मान्यता दी गई है। आप राम, कृष्ण, शिव से लेकर दुर्गा, काली, सरस्वती किसी को भी अपना ईष्ट मान सकते हैं तथा रामायण, महाभारत, गीता किसी भी ग्रंथ को अपने धार्मिक ग्रंथ के तौर पर स्वीकार कर सकते हैं। आप नास्तिक भी हो सकते हैं।
असल में जो लोग विकल्पहीनता की बात करते हैं वे लोग मोनोपोली को स्वीकार करते हैं तथा विविधता और बहुलता को नकारते हैं। जो भी किसानी करते हैं वे जानते हैं कि फसलों की विविधता न केवल मनुष्य की आवश्यकताओं को समग्रता के साथ पूरा करती है बल्कि मनुष्य को पौष्टिकता की दृष्टि से भोजन भी उपलब्ध कराती है।
फसलों की उत्पादकता की दृष्टि से भी बहु फसलीय खेती, एक फसलीय खेती से बेहतर होती है। कुल मिलाकर मैं यह कहना चाहता हूं कि विकल्पहीनता की बात करना न केवल वैज्ञानिक सोच के खिलाफ है बल्कि अतार्किक भी है।
जब हम वैकल्पिक व्यवस्था की बात करते हैं, तब हमें सोचना चाहिए कि केंद्रीकरण की तुलना में विकेंद्रीकरण हो। धार्मिक कट्टरता की तुलना में सर्वधर्म समभाव हो, मनुवादी जाति व्यवस्था की जगह जातिविहीन समाज निर्माण तथा राष्ट्रों की सरकारों की जगह विश्व सरकार बनाने के विकल्प उपलब्ध हैं।
इस दिशा में हम कैसे आगे बढ़ सकते हैं? मिसाल के तौर पर यदि यूरोपियन देशों का महासंघ बन सकता है तो दक्षिण एशिया के देशों का महासंघ क्यों नहीं बन सकता?
आप जानते हैं कि डॉ लोहिया ने भारत-पाक महासंघ की भी कल्पना की थी। जब हम विकल्पों की बात करते हैं तब हमें विकल्प तैयार करने के लिए क्या कुछ करना होगा यह भी सोचने की जरूरत है।
मुझे लगता है कि इसके लिए वर्तमान स्थिति का गहराई से अध्ययन, विश्लेषण और मूल्यांकन करने की जरूरत होगी। साथ ही पूर्व में विकल्पों को लेकर किए गए और वर्तमान में किये जा रहे प्रयोगों को भी समझने की जरूरत होगी। यदि हम टेक्नोलॉजी को देखें तो पूरी दुनिया में ऊर्जा जरूरत को पूरा करने के लिए लगातार नए विकल्पों की खोज होती रही है। पहले ऊर्जा जरूरत को पूरा करने के लिए हम केवल कोयला पर निर्भर थे, बाद में डीजल और पेट्रोल आया, बिजली आई और अब सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा को लेकर तमाम सफल प्रयोग किए गए हैं।
मैं फिर से दोहराना चाहूंगा कि वैज्ञानिक दृष्टि से ही विकल्प तलाशे जा सकते हैं, अंधविश्वास के भरोसे नहीं।
इस पूरी बहस को सरल शब्दों में कुछ इस तरह कहा जा सकता है कि बीमारी का कोई इलाज नहीं है या यह कि यथास्थिति बनी रहने वाली है। सत्य तो यह है कि समय बदलता है, मौसम बदलता है, बीज पौधा बनता है, वृक्ष में तब्दील होता है, फल आते हैं, मौसम के साथ पत्ते झड़ते हैं यानी मेरा कहना यह है कि जो विकल्पहीनता को मानते हैं वे इवोल्यूशन को नकारते हैं।
किशन जी समाजवादी आंदोलन से परदेसी नायक जी के माध्यम से जुड़े थे। सुरेंद्रनाथ द्विवेदी जी के साथ कटक के सोशलिस्ट पार्टी के दफ्तर में उन्होंने काम किया। कृषक पत्रिका निकाली और बाद में संबलपुर में किसान संगठन का काम शुरू कर दिया। बरहमपुर सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलन में उन्होंने 1951 में भाग लिया और पार्टी की सदस्यता ली। 1957 में डॉ.लोहिया ने कोचीन में अपनी ही पार्टी की सरकार द्वारा प्रदर्शनकारियों पर पुलिस गोली चालन की जांच की मांग की तब पार्टी द्वारा मांग न स्वीकार किए जाने के बाद डॉ लोहिया ने अलग सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। तब किशन जी सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। उन्होंने हैदराबाद से मैनकाइंड पत्रिका निकाली। साधन की कमी के चलते पत्रिका बंद हो जाने के कारण वे 1960 में वापस संबलपुर आ गए।
अंग्रेजी हटाओ के सिलसिले में बरहमपुर में सत्याग्रह के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया। वे 6 महीने जेल में रहे। जेल से निकलकर उन्होंने ओड़िया भाषा में ‘साथी’ नामक पत्रिका निकालना शुरू किया। 1962 में किसानों को मुआवजा देने की मांग के साथ आंदोलन शुरू किया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन 1962 में वे जेल से ही संबलपुर लोकसभा चुनाव सबसे कम उम्र में यानी 32 वर्ष की आयु में चुनाव जीते।
1963 में डॉ लोहिया और 1964 में मधु लिमये भी मध्यावधि चुनाव जीतकर लोकसभा में आ गए। 1966 में लोकसभा में उन्होंने कालाहांडी में भुखमरी के चलते बच्चे बेचे जाने का जिक्र किया, तब अमेरिका की टाइम मैगजीन ने उन्हें भारत का प्रखरतम युवा नेता के तौर पर उल्लेखित किया। 1966 और 1968 में वे दो बार समाजवादी युवजन सभा के अध्यक्ष रहे। 12 अक्टूबर 1968 में डॉ लोहिया के निधन के बाद भागलपुर में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का सम्मेलन हुआ। उन्होंने लोहिया विचार मंच का गठन किया। 35 वर्षों तक वे लोहिया विचार मंच के माध्यम से समाजवादी राजनीति करते रहे। 1974 में जब छात्रों ने बिहार में आंदोलन शुरू किया तब वे छात्र आंदोलन में जेपी के साथ सक्रिय हुए। 1976 में वे गिरफ्तार कर लिये गए। इमरजेंसी खत्म होने के बाद जब सोशलिस्ट पार्टी एवं अन्य विपक्षी पार्टियों ने जनता पार्टी का गठन किया तब वे जनता पार्टी में शामिल नहीं हुए। उन्होंने ‘सामयिक वार्ता’ का प्रकाशन शुरू किया। उन्होंने जनता पार्टी के सदस्यों का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य होने के सवाल उठाए। मधु लिमये जी एवं अन्य समाजवादियों ने जो जनता पार्टी में थे, जब दोहरी सदस्यता के सवाल को प्रखरता से उठाया तब जनता पार्टी टूट गई।
1979 में किशन जी ने समता युवजन सभा बनाकर 10 वर्षों तक चुनावी राजनीति में भाग नहीं लेने के संकल्प के साथ समता संगठन बनाया, जिसने देश भर में कई आंदोलन किए। 1984 से 86 में उन्होंने भूमिपुत्र नाम से पत्रिका निकाली। समता संगठन के निर्णय के आधार पर उन्होंने 1989 में संबलपुर से चुनाव लड़ा। 1990 में उन्होंने कर्नाटक के समाजवादी नेता एमडी नंजूदा स्वामी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और देश के अन्य राज्यों के नेताओं के साथ मिलकर किसान आंदोलन को गति दी। 1995 में उन्होंने समाजवादी जन परिषद का गठन किया। 1997 में जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) के गठन में उनकी अहम भूमिका रही। वे देश भर के जन आंदोलन को जोड़ने का प्रयास करते रहे। जब समाजवादी जनपरिषद का गठन हुआ तब उन्होंने कहा था कि हर एक कार्यकर्ता की जीवन शैली बौद्ध भिक्षु जैसी होनी चाहिए। उन्होंने साधनहीनता की राजनीति की तथा कार्यकर्ताओं को आत्मनिर्भर होने के लिए प्रेरित किया।
आइए वर्तमान स्थिति पर विचार करें । एक समय था जब पूरी दुनिया में यह माना जाता था कि पश्चिम का मॉडल ही एकमात्र विकास का मॉडल हो सकता है। जिसका आधार अधिकतम पूंजी, ऊर्जा, आधुनिकतम तकनीक, प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन एवं न्यूनतम श्रम शक्ति का इस्तेमाल था। पूरी दुनिया उसी विकास के रास्ते पर चली। भारत की सरकार भी चली, पार्टियां भी चलीं और मुख्य धारा के बुद्धिजीवियों ने भी उसी रास्ते पर चलने को उपयुक्त माना। जिसका परिणाम आज देश और दुनिया भुगत रही है। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के चलते पर्यावरण संकट मानवता के अस्तित्व को चुनौती दे रहा है। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक असर खेती किसानी पर पड़ा है। पंजाब और हरियाणा का बड़ा हिस्सा असामयिक बाढ़ की चपेट में आ गया है।
वर्तमान विकास के रास्ते पर चलकर हम कहां पहुंचे हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तराखंड है। जहां जोशीमठ धॅंस रहा है। केदारनाथ में आई बाढ़ ने और उसके पहले उत्तराखंड के अन्य इलाकों में आई बाढ़ के चलते हजारों नागरिकों की मौत हुई तथा अरबों की संपत्ति नष्ट हुई है। भारत सरकार पेरिस और ग्लासगो में जाकर तमाम समझौते करती है लेकिन ओड़िशा से लेकर झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश तक बेतहाशा नई-नई खदानें खोली जा रही हैं। 40 कोल ब्लॉक आवंटित किए गए हैं। उन सभी जगहों पर वैकल्पिक विकास की अवधारणा पर विश्वास करने वाले जन आंदोलनों के साथी संघर्ष कर रहे हैं, जिन्हें कंपनियों के गुंडों और राज्य सरकारों के पुलिस दमन का सामना करना पड़ रहा है। ढिंकिया, नियमगिरि, हसदेव अरण्य एवं बस्तर के तमाम साथियों को फर्जी मुकदमे लगाकर जेल में डाला जा रहा है अर्थात सरकारें अपनी विकास की नीति को जनता पर थोपने के लिए राज्यहिंसा का इस्तेमाल कर रही है।
‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ (विश्व भुखमरी सूचकांक) में 116 देशों के बीच भारत 101वें स्थान पर है। देश में प्रजातंत्र की मौजूदा स्थिति के बारे में ‘इकॉनॉमिस्ट इंटेलिजेन्स यूनिट’ ने भारत को दुनिया के मुल्कों के बीच 46वें स्थान पर तथा ‘ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स’ में अमेरिकन थिंक टैंक केटो ने 119वें क्रम पर रखा है। प्रेस की आज़ादी के मामले में हम 180 देशों के बीच 150वें स्थान पर हैं।
इस बीच किसानों के आंदोलन ने विकल्प देने के लिए संघर्ष का एक मॉडल प्रस्तुत किया है। इसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई है। अपने संसाधनों, अपने सोशल मीडिया के तंत्र, सामूहिक नेतृत्व और अहिंसा के रास्ते पर चलकर भारत के किसान संगठनों ने 380 दिन आंदोलन चलाकर 725 किसानों की कुर्बानी देकर केंद्र सरकार के तीन किसान विरोधी कानून को वापस कराकर यह साबित किया है कि किसान यदि संगठित हैं तो सबकुछ मुमकिन है। उन्होंने मोदी है तो मुमकिन है के नारे को जुमला साबित कर दिया है।
जब हम विकल्प की बात करते हैं तो विकल्प केवल आर्थिक व्यवस्था का विकल्प नहीं हो सकता। सामाजिक व्यवस्था, वर्तमान जाति व्यवस्था और धर्म व्यवस्था का भी विकल्प देने की जरूरत है। समाजवादियों ने जाति व्यवस्था के उन्मूलन को सर्वोच्च स्थान दिया। ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ की बात की, मंडल कमीशन की सिफारिश को लागू कराया और अब जाति जनगणना के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन आजादी के 76 वर्ष बाद भी दलितों को जिंदा जलाए जाने, सामूहिक हत्या की जाने की घटनाएं लगातार पढ़ने, सुनने और देखने को मिलती रहती हैं। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि भले ही वैज्ञानिकों ने चंद्रयान को सफलतापूर्वक चांद पर पहुंचा दिया हो लेकिन हम अभी तक खुद को सभ्य इंसान और सभ्य समाज कहने की स्थिति में नहीं हैं।
गांधीजी ने कहा था कि दुनिया में तमाम सभ्यताएं विकसित हुई हैं लेकिन इंसान के तौर पर हम एक इंच भी आगे नहीं बढ़े हैं। जब तक दुनिया की आर्थिक व्यवस्था घनघोर गैरबराबर रहेगी दुनिया की 7.5 अरब की आबादी में 3 अरब से अधिक लोग दो डॉलर से नीचे की राशि में गुजर बसर करने के लिए मजबूर होंगे, जब तक दुनिया में भूख से मरने वाले तथा भूखे रहने वाले, बिना इलाज के लाखों लोग काल के गाल में समाते रहेंगे, तब तक हम यह नहीं कह सकते कि हमने इस तरह विकास किया है कि दुनिया के हर नागरिक को मानवीय गरिमा में जीवन बिताने का अवसर मिल सका है, जो किशन जी का सपना था।