समाजवादी नेता रामनंदन मिश्र

0
Ramnandan Mishra
रामनंदन मिश्र

Nirala Badesiya

— निराला बिदेसिया —

नका पूरा नाम था रामनंदन मिश्र. काशी विद्यापीठ से संस्कृत से शास्त्री की पढ़ाई पूरी हुई तो अकादमीक तौर पर पंडित की उपाधि मिल गयी. नाम के आगे पंडित लगा. पंडित रामनंदन मिश्र. पर, उनके सक्रिय जीवनकाल में ही उनके नाम से आरंभ का पंडित और आखिर का मिश्र हट गया था. वह सिर्फ रामनंदन हो गये थे. गांधी तो उन्हें बालपन से ही रामनंदन कहकर बुलाते थे. बाद में उनके विचारों से प्रभावित, उनके पथ का अनुसरण करनेवाले, उनकी बनायी पगडंडी को रास्ते में बदलने और उस राह पर चलने की कोशिश करनेवाले उन्हें बाबूजी कहने लगे. अभी की पीढ़ी के लोकमानस और लोकस्मृतियों में वह बाबूजी के नाम से ही रचे-बसे हैं और मौजूद भी उनके कर्तृत्व और नेतृत्व की बहुआयामी-विशाल दुनिया को संक्षेप में जानें, उसके पहले उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा व्यक्तिगत परिचय के रूप में जान लेते हैं. बिहार के दरभंगा जिले पतोर गांव में जन्म हुआ था.

16 जनवरी 1906 को. गांव का नाम तो पतोर था लेकिन उनके ड्योढ़ी का नाम रघुनाथपुर ड्योढ़ी था. जमींदार की ड्योढ़ी. पिता राजेंद्र प्रसाद मिश्र और पुरखे इलाके के नामी लोग. जमींदार.थोड़े दिन गांव में रहे, आरंभिक अक्षर ज्ञान वाली पढ़ाई-लिखाई गांव में हुई और उसके बाद अपने बड़े भाई जानकीरमण मिश्र के साथ पढ़ाई के लिए चले गये पटना. पटना में अपने मामा के घर. मामा थे बाबू वैद्यनाथ सिंह. अपने समय के मशहूर वकील. न सिर्फ पटना बल्कि बिहार के नामी वकील. डॉ राजेंद्र प्रसाद के मित्र. मामा कांग्रेसी थे. बड़े—बड़े नेताओं की चौपाल लगती थी मामा के यहां. रामनंदन को बालपन से ही बड़े नेताओं को देखने का मौका मिलने लगा, बोलने—बतियाने का भी उस बालपन में ही गांधी से भी बतियाने और गांधी की गोद में भी बैठने का मौका मिल गया. इस प्रसंग पर विस्तार से बात आगे किताब में है. तो पटने की पढ़ाई के बाद रामनंदन बनारस भेजे गये पढ़ने के लिए. बनारस से उनका एक अलग रिश्ता भी था. उनकी बहन की शादी काशी नरेश के यहां थी. यह वह समय था जब जमींदारों के लड़के, बड़े घरों के लड़के पढ़ने के लिए विदेश भेजे जाते थे. बैरिस्ट्री की पढ़ाई को लेकर एक आकर्षण था तब. रामनंदन को भी पढ़ने के लिए विदेश ही भेजे जाने की बात हुई. बात क्या हुई, बात तय ही हो गयी थी.

रामनंदन की एक बार फिर से गांधीजी से बनारस में भेंट हो गयी. रामनंदन ने गांधीजी से ही पूछ दिया कि बड़ी दुविधा में है मन. विदेश जाने की बात है, मन ही मन सारी तैयारियां हो चुकी है लेकिन दुविधा है मन में. गांधीजी ने एक लाइन में कह दिया कि नहीं जाओ विदेश और आगे से चिट्ठियां लिखते रहना, संपर्क में रहना. रामनंदन ने विदेश जाकर पढ़ने के अवसर को एक झटके में छोड़ दिया. गांधी का रंग उन पर चढ़ गया. दिन-ब-दिन वह रंग और गाढ़ा, और चटक होता गया. जमींदार परिवार से ताल्लुक रखनेवाले रामनंदन सार्वजनिक जीवन में गांधीवादी हो गये और फिर समाजवादी. गांधीवादी और समाजवादी भी ऐसे—वैसे नहीं, बोलचाल के शब्दों में, सहज भाषा में कहें तो कट्टर टाइप. कमिटेड गांधीवादी और समाजवादी, जो जीवन भर अपने संकल्पों के प्रति दृढ़ रहे, कथनी और करनी में एका बनाये रखे. इस गांधीवाद, समाजवाद को निभाने में जीवन में दुर्दिन आये. ऐसे दुर्दिन कि खाने के भी लाले पड़ गये, घर—परिवार से लेकर समाज तक ने बहिष्कृत कर दिया, अछूत—से बन गये लेकिन तमाम मुश्किलों को झेलते हुए, चुनौतियों का सामना करते हुए, न कभी अपने संकल्प से हटे, न कर्तव्य पथ से और ना ही कभी कथनी और करनी में फर्क आने दिया.

आखिर क्यों ऐसा? बड़े जमींदार का बेटा, जिस परिवार की रिश्तेदारी काशी नरेश के यहां, वह क्यों सुख-सुविधा की सारी संभावनाओं को छोड़कर, तब की राजनीति के अनुसार चलते हुए धन के बूते आसानी से राजनीति में जगह बनाकर सत्ता और धन, दोनों का सुख भोगने की बजाय ऐसी राह का राही बन गया, जिस राह में रोड़े तो अपार थे ही, किसी ठोस मंजिल का भी पता नहीं था. क्या बचपन से ही रामनंदन के मन में ये बीज थे? बचपन की कहानियां स्पष्ट नहीं होतीं, लेकिन किशोर रामनंदन के मन में बवंडर उफान मारने लगा था. घर छोड़ने के बाद अपने पिता को 07 दिसंबर 1927 को लिखी गई चिट्ठी से यह स्पष्ट होता है.

उस चिट्ठी में वह लिखते हैं कि,” होश संभालने के छठे वर्ष से ही मुझे लगने लगा था कि हमें अपने जीवन को देश के लिए लगाना है. गांधीजी की पुकार पर चलना है.” उस चिट्ठी में अपने पिता को वह लिखते हैं कि,” गांधीजी ने जब नवयुवकों को देश पर अपना भविष्य बलिदान करने का आह्वान किया था, तभी मेरा मन था कि अंग्रेज सरकार की पाठशालाओं से असहयोग कर अपना धर्म निभाना ही होगा. लेकिन, तब अधीर न हुआ. मेरी उम्र उस समय 15 वर्ष की थी और गांधीजी ने 16 वर्ष से कम उम्रवालों को पितृआज्ञा के बिना स्कूल छोड़ने की सलाह नहीं दी थी. मैं रुक गया. शीघ्रता से असहयोग नहीं किया. लगातार एक वर्ष विचार करता रहा. माघ कृष्णअष्टमी को जब मेरा 16वां वर्ष प्रारंभ हुआ तो मैंने स्कूल छोड़ दिया और आपकी आज्ञा न मिलने पर घर छोड़ने का भी निर्णय कर लिया. पर आपने एक तरह से आज्ञा दे दी और मेरा विरोध न किया, उस समय आबद्ध होकर मैं रह गया और घर छोड़ न सका.”

चिट्ठी लंबी है. उसमें बातें बहुत है. इस बिंदु की चर्चा यह समझने के लिए कि रामनंदन के जीवन में बदलाव के बीज कब से पनप रहे थे. ऐसी अनेक घटनाएं हुईं लेकिन जीवन में टर्निंग प्वाइंट आया राजकिशोरी से शादी के बाद और संयोग से उसी के आसपास गांधीजी के दरभंगा आगमन की घटना के बाद 1926 में गांधीजी दरभंगा आये. वहां एक महिला सभा में बोलने गये. गांधीजी और स्त्रियों के बीच एक पर्दा लगाया गया था. दरभंगा से लौटने के बाद गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में एक लंबी टिप्पणी की. पर्दा के विरोध में. संयोग से उसी समय रामनंदन की शादी भी हुई थी. रामनंदन कालेज की अपनी पढ़ाई खत्म कर गांव लौट आये थे. गांधीजी की लेख के बाद रामनंदन अपने गांव में सात—आठ मित्रों के साथ बातचीत कर रहे थे कि इस पर्दा प्रथा के खिलाफ हमलोगों को कुछ करना चाहिए. सवाल था कि इसकी पहल कौन करेगा? रामनंदनजी ने गांधीजी को एक लंबी चिट्ठी लिख दी.

यह खबर रामनंदन के पिताजी को मिली. घर का माहौल बदला. परिवार में तनाव शुरू हुआ. रामनंदन अपनी पत्नी राजकिशोरी को पढ़ाकर, पढ़ने के लिए घर से बाहर निकालकर यह पर्दा तोड़ने की शुरुआत करना चाहते थे. घर में तनाव इतना बढ़ा कि गांधीजी को बीच में रास्ता निकालना पड़ा. चिट्ठियों के मार्फत ही गांधीजी ने रास्ता निकाला कि राजकिशोरी जहां है, वहीं रहे, वह अपने आश्रम से किसी योग्य महिला को पढ़ाने के लिए भेजेंगे. सरदार वल्लभभाई पटेल की बेटी मणिबेन पटेल का नाम तय हुआ लेकिन किसी कारण से वह नहीं आ सकी तो गांधीजी अपने प्रिय भतीजा मगनलाल गांधी की बेटी राधाबाई और दुर्गाबाई का भेज दिया. इधर रामनंदन के पिता ने अपनी बहू यानी राजकिशोरी को उनके नैहर गया जिले के मंझवे गांव में भेज दिया. राधाबाई और दुर्गाबाई वहीं पहुंची. राजकिशोरी को पढ़ाने लगीं लेकिन दुर्भाग्य से घटना यह घटी कि अपनी बेटी से मिलने मंझवे गांव पहुंचे मगनलाल की तबीयत गांव में ही खराब हुई और उनकी मृत्यु भी बिहार में ही हो गयी.

यह एक बड़ी घटना घटी. रामनंदन ने मन ही मन तय किया कि अब पर्दा प्रथा के खिलाफ आंदोलन तेज होगा. पिता की मृत्यु के बाद राधाबाई वापस आश्रम चली गयीं, गांधीजी के पास. गांधीजी ने राजकिशोरी को भी वहीं बुलाया लेकिन राजकिेशोरी का वहां जाना इतना आसान न था. रामनदंन ने अपनी ही पत्नी को चुपके से नैहर से निकाला. रात के अंधेर में. तब तक राजकिेशोरी मां बन चुकी थीं. छोटे से बालक, विजय को लेकर अंधेरे में वह अपने पति के साथ नैहर से निकल गयीं. पटना आयीं. अनुग्रह नारायण सिन्हा साबरमती लेकर चले  गये. 

दो-चार पंक्तियों में ही सिमटी हुई यह घटना अब के समय से कितनी आसान लगेगी लेकिन यह बात 1926 की है. इस घटना का ताल्लुक उस परिवार से है, जो अपनी बहू को पढ़ाने को ही तैयार नहीं था लेकिन उसी बहू का पति अपनी अनपढ़ पत्नी को पढ़ाने और पढ़ाई के जरिये पर्दा तोड़ने के लिए, अपनी ही पत्नी को सबकी नजरों से बचाकर, नैहर से ले जाता है.

रामनंदन के सार्वजनिक जीवन में आने टर्निंग प्वाइंट यही होता और फिर तो इस घटना के बाद उनके जीवन में संघर्ष की नई कहानी शुरू होती है. निजी जीवन में दुख अपना अपार विस्तार पाता है लेकिन अपने संकल्पों और कर्तव्यों से बंधे रामनंदन पीछे पलटकर नहीं देखते. वह और दुख और दुख, और संघर्ष और संघर्ष बटोरते हुए आगे बढ़ते जाते हैं. कई बार ऐसा लगेगा, जैसे वे सृजन के लिए संघर्ष की जमीन पहले तैयार कर रहे थे ताकि सृजन की धार संघर्षों में तपकर और तेज हो.

राजकिशोरी अपने बेटे के साथ साबरमती पहुंची, रामनंदन भी पहुंचे. गांधी ने जीवन का पाठ एक पंक्ति में समझा दिया, घर से विद्रोही हो गये हो तो याद रखो कि विद्रोही पुत्र को पिता के धन की आशा नहीं करनी चाहिए. रामनंदन ने गांधी की इस बात को गांठ की तरह बांध लिया, जीवन मंत्र की तरह. वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ दरभंगा लौटे. दरभंगा जिला के एक गांव में घास-फूस की झोपड़ी डालकर रहने लगे. घर से कोई सहायता नहीं. छह माह चावल नमक खाकर निकल गये. रामनंदन लकड़ी काटते, राजकिशोरी किसी तरह खाना बनाती. रामनंदन दिन भर कंधे पर खादी लेकर गांव-गांव घूमकर बेचते. इस कदर तिरस्कृत और बहिष्कृत हो गये थे कि कई बार तो गांववाले कुएं पर पानी भी नहीं भरने देते. पर, रामनंदन यह सब सहते हुए अपने कर्मों में लगे रहे. नौजवान थे तो एक युवा, जिद्दी धुन में मगनलाल की याद में पटना में 08 जुलाई 1928 को पर्दा विरोधी दिवस मनाया गया. चंदा जमा हुआ. तय हुआ कि पूरे राज्य में पर्दा के खिलाफ आंदोलन चलेगा.

रामनंदन उसके अगुआ बने. गांव-गांव जाते, गालियां सुनते, अपमान झेलते लेकिन वह लगे रहे. संघर्ष के उन्हीं दिनों में गांधीजी की सलाह पर 1929 में लहेरियासराय से पांच किलोमीटर दूर मंझोलिया गांव में मगन आश्रम की स्थापना की. साबरमती आश्रम के तर्ज पर यह खड़ा होने लगा. जगदीश चौधरी ने जमीन दान दी, इलाके के लोगों ने श्रमदान किया, कुल नौ लोग आश्रम में रहने लगे, उसे गढ़ने लगे. आश्रम में जाति व्यवस्था भी नहीं थी और ना ही स्त्रियों के लिए पर्दा. मुसलमानों के घर भोजन करने पर भी रोक नहीं. मिथिला के इलाके में ऐसे आश्रम का होना एक क्रांतिकारी कदम था, इसलिए उपेक्षा के साथ—साथ उस समय विरोध भी कोई कम न झेलना पड़ा.

पर्दा प्रथा के विरोध में उनके सार्वजनिक जीवन में प्रवेश का आंदोलन था. उस आंदोलन की लंबी कहानी है. लेकिन, रामनंदन के सार्वजनिक जीवन में संघर्ष और सृजन की कहानी यही नहीं है. यह तो आरंभ है. अनेक घटनाएं, अनेक कहानियां, जिनका विस्तार से चर्चा न करके, दो आंदोलनों में उनकी भूमिका या सक्रियता पर यहां बात की जा सकती है. 

एक 1942 का आंदोलन और दूसरा चंपारण के किसानों की स्थिति को लेकर 1950 में बनी लोहिया कमिटी में उनकी सक्रियता और सकारात्मक भूमिका. लोहिया कमिटी की रिपोर्ट की बात बाद में, पहले 1942 के आंदोलन में रामनंदन की सक्रियता और भूमिका की चर्चा करते हैं. कांग्रेस से जुड़े रहे और गांधी के बेहद करीबी रहे रामनंदन ने समाजवादी राजनीति का रास्ता अपनाया. 1942 के आंदोलन का बिगुल बजा. रामनंदन सात अगस्त 1942 को बंबई के बिड़ला भवन में थे. गांधीजी के साथ समाजवादियों की बैठक डॉ लोहिया की अगुवाई में थी कि गिरफ्तारी देने की योजना क्या हो. दो दिनों बाद 09 अगस्त को गांधीजी ‘करो या मरो’ का नारा देकर जेल चले गये.

रामनंदन भूमिगत. बंबई से मद्रास गये, फिर कटक. उड़ीसा—आंध्रप्रदेश में वेष बदलकर भागते रहे, घूमते रहे. लेकिन गिरफ्तार कर लिये गये. रामनंदन की पहचान सिर्फ समाजवादी नेता या कार्यकर्ता की नहीं थी बल्कि क्रांतिकारी छवि थी, सो अंग्रेजों ने इन्हें जेल में यातनाएं ज्यादा दीं. अंग्रेजी सरकार रामनंदन को इस जेल से उस जेल भेजती रही. पहले कटक, फिर बहरामपुर, फिर गंजाम जिले के रसलकुंडा में. यह डर था अंग्रेजों को रामनंदन जेल से भाग जायेंगे. आखिर में रामनंदन को हजारीबाग जेल भेजा गया.

हजारीबाग जेल में जयप्रकाश नारायण बंदी के रूप में थे. क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ल और सूर्यनारायण सिंह जैसे नेता भी. अंग्रेजी सरकार जिस रामनंदन को जिस डर से इस जेल से उस जेल में भेजती रही, उसी को अंजाम हजारीबाग जेल से दिया गया. आठ नवंबर 1942 को ऐतिहासिक हजारीबाग जेल की घटना घटी, जब जेपी, योगेंद्र शुक्ल, सूर्यनारायण सिंह, गुलाली प्रसाद और शालीग्राम सिंह के साथ रामनंदन जेल की दीवार फांदकर वहां से भाग गये. हजारीबाग जेल से निकलने के बाद कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, इसकी कहानी लंबी है. 

इसके बाद रामनंदन दूसरे रूप में सक्रिय हुए. क्रांतिकारी रूप में. क्रांतिकारी दलों के संपर्क में आ गये. वेश्याओं के घर जाकर क्रांतिकारियों से मिलना, एसिड, डायनामाइट, हथियार आदि खरीदना, नेताजी सुभाषचंद्र बोस से मिलने की कोशिश करना, नये रामनंदन इस रूप में थे. वायसराय के महल पर बम गिराने की योजना के प्रमुख सूत्रधार बन गये.

कंपकंपाती ठंड में लाहौर पहुंच गये. गुप्त केंद्र स्थापित करने की योजना में लग गये. लाहौर में बड़े प्रदर्शन की तैयारी में लग गये. 22 फरवरी 1943 को रामनंदन वहां गिरफ्तार हो गये. जयप्रकाश भी उस समय लाहौर में ही बंदी बनाकर रखे गये थे. रामनंदन 25 सप्ताह कैद में रहें. विभत्स यातनाएं सहकर. अंग्रेज अधिकारियों ने रामनंदन पर अनेक जुल्म ढाये. पूरी योजना जानने के लिए, गांधीजी की योजना जानने के लिए  ऐसी अनगिनत कहानी रामनंदन के जीवन में जुड़ती गयी. वह अपनी पूरी जवानी ऐसे संघर्षों में गुजारते रहे. किसान आंदोलन में उनकी सक्रियता और भूमिका अलग रही. देश आजाद हुआ. गांधी से उनका संबंध उसी तरह प्रगाढ़ बना रहा. बल्कि यूं कहें कि देश की आजादी के बाद गांधी के और आत्मीय हो गये रामनंदन. हत्या के कुछ दिनों पहले तक उनके बीच हुए संवाद से इस आत्मीयता को महसूसा जा सकता है, जो इस किताब में दर्ज है. आजादी के बाद सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति में रामनंदन सक्रिय रहे.

आजादी पाने के दो साल बाद वह फिर एक नयी भूमिका में दिखे. 1917 में गांधी चंपारण की भूमि पर सत्याग्रह का बीज बोकर, सत्याग्रह आंदोलन का सूत्रपात कर चुके थे. उस सत्याग्रह का फलाफल ठोस रूप में क्या निकला, वहां के किसानों की हालत कैसी है या क्या सुधार हुआ, इसके अध्ययन के लिए सोशलिस्टों ने एक कमिटी बनाई, जिसे ऐतिहासिक लोहिया कमिटी के नाम से जानते हैं. यह बात 1950 की है. इस जांच कमिटी में दो सदस्य थे, एक रामनंदन और दूसरे खुर्शीद एडी नौरोजी 1950 के दशक में कांग्रेस की सरकार थी. केंद्र और राज्य, दोनों जगह इसलिए जो रिपोर्ट तैयार हुई, उसे एक तरीके से दबाकर रखा गया लेकिन रामनंदन ने उसे लेख की शक्ल में भी लिखा, विदेश के अखबारों में भी छपा.

इस जांच और अध्ययन रिपोर्ट से बात सामने आयी थी कि कैसे गांधी के सत्याग्रह के बाद अंग्रेज निलहा तो चले गये थे लेकिन उनकी जगह मिलहा आ गये थे. चीनी मील वाले. रैयतों से ढाई लाख एकड़ जमीन खरीद छीन ली गयी थी. सरकारी ऋण चुकाने में रैयतों की जमीन चली गयी थी. चीनी मील मालिक 40 हजार एकड़ जमीन पर काबिज हो गये थे और इन चीनी मीलों ने दस हजार से अधिक परिवारों को भूमिहीन बना दिया था.

यह तो उस रिपोर्ट का सार भी नहीं, बस एक अध्याय का एक हिस्सा भर है. उस रिपोर्ट में रामनंदन ने खुलकर कांग्रेस के बड़े नेताओं का नाम लिखा कि कैसे अंग्रेज निलहों के जाने के बाद मिलहों को छूट देने के एवज में बिहार के बड़े नेताओं ने, राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित नेताओं ने अपने नाम फार्म हाउस या जमीन आदि लेकर खेल किया. इस रिपोर्ट से भूचाल आया था उस समय. यह रिपोर्ट अगर दगाई गयी नहीं होती तो कई बड़े नेता जनमानस में अपना नायकत्व खो बैठते. लेकिन जांच या अध्ययन रिपोर्ट करने गये रामनंदन उस समय इसे लेकर जरा भी संकोच में नहीं रहे कि कोई बड़े नाम हैं या निजी संबंध हैं तो उनके गुनाह को सामने न लायें.

दरअसल, किशोरावस्था से रामनंदन राजनीति में इतनी जमीनी लड़ाई लड़ चुके थे, आंदोलन और संघर्ष कर चुके थे और गांधी का इतना असर उन पर पड़ चुका था कि वे सत्ता और शासन के मोह—माया में फंसे हुए नेता भर नहीं रह गये थे. इसका विस्तार तुरंत ही दिखा, जब रामनंदन राजनीति में एक बड़ी पहचान बना लेने, बिहारी नेताओं में अग्रणी कतार में शामिल हो जाने बाद अचानक ही सब छोड़कर एक नयी दुनिया में प्रवेश कर गये और जीवन के आखिरी समय तक उसी में रचे-बसे-रमे रह गये. वह नयी दुनिया थी आध्यात्म की. वैज्ञानिक चेतना से लैश आध्यात्म की. वैश्विक चेतना से लैश आध्यात्म की. इस मूलमंत्र के साथ कि मानव जाति को जीवन रक्षा, संस्कृति तथा स्वस्थ्य जीवन के लिए नई दिशा लेनी होगी. आध्यात्मिक जीवन में क्रांति के छह 

बिंदु लेकर आगे बढ़े. वह छह बिंदु थे—

1. आध्यात्म (मैं के स्थान पर हम की स्थापना)

2. मर्यादित विज्ञान

3. प्रजातंत्र

4. स्वतंत्रता (हर हालत में प्रजा का शांतिमय पथ से विरोध का अधिकार)

5. सर्वोदय

6. प्रेम के आधार पर सहजीवन.

आजीवन राजनीति में जीवन लगाने-खपाने के बाद आध्यात्म की दुनिया में इन बिंदुओं को लेकर वे उस समय आगे बढ़े तो उन्हें भी मालूम था कि धर्म की जड़ता को तोड़ना या ऐसी आध्यात्मिक चेतना का विस्तार इतना आसान नहीं. लेकिन वह टैगोर के वाक्य को भी अपने जीवन का एक मंत्र मानते थे-एकला चलो रे.

अब वह पूरी तरह इसी दुनिया में रमते जा रहे थे. इसके लिए पुरी, कलकत्ता, बनारस,प्रयाग, वृंदावन, पांडिचेरी जाने लगे. अपने समय के मशहूर स्वतंत्रता सेनानी दिव्य आध्यात्मिक पुरूष कालीपद गुहा राय से उनका अनुराग हुआ. उन्होंने नंगा बाबा के बारे में बताया. रामनंदन नंगा बाबा के पास पहुंचे और वही उनके आध्यात्मिक गुरु हुए. आध्यात्मिक दुनिया में रामनंदन के विचरने की कहानी लंबी है. अनेक पड़ाव से गुजरे लेकिन जैसे व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक जीवन में विद्रोही स्वभाव के थे, क्रांतिकारी मिजाज के थे, आध्यात्मिक दुनिया में जड़ता को तोड़ने के लिए भी वे विद्रोही और क्रांतिकारी ही रहे.

27 अगस्त 1989 को वे दुनिया से विदा हो गये. एक विरासत, एक परंपरा छोड़कर. एक पगडंडी बनाकर. उस पगडंडी पर चलनेवाले संख्या के गणित के अनुसार भले कम दिखते हैं लेकिन जो हैं, वे बहुत बहुत ही ठोस दृढ़ संकल्पी आदर्शों और कथनी-करनी में एका रखनेवाले रामनंदन सब छोड़ आध्यात्म की दुनिया में क्या एकबारगी चले गये? आखिर क्यों चले गये? क्या महज किसी राजनीतिक घटना की वजह से उनका राजनीति से मोहभंग हुआ? क्या अपने आत्मीय गांधीजी के दुनिया में नहीं रहने के बाद राजनीति के प्रति उनका आकर्षण घटता गया और उन्होंने आध्यात्म का रास्ता अपना लिया? यह सवाल उठते रहते हैं. इसका सही-सही जवाब खुद रामनंदन ही अपने लिखे में सांकेतिक तौर पर दे चुके हैं. एकबारगी से उनका आध्यात्म की ओर झुकाव नहीं हुआ था.

रामनंदन ने लिखा है- ”भोग और वैराग्य के प्रबल आकर्षणों के बीच संतुलन ढूंढती हुई जीवन धारा चली जा रही है. यह संतुलन जिस कर्म क्षेत्र में ढूंढना पड़ा, उसके द्वार पर ही परिवार, समाज और सरकार ने द्वंद्व खड़ा कर दिया. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में जोर के साथ कहा- मेरी मर्जी से चलो.अपने विचारों और सिद्धांतों का आकर्षण उलझ पड़ा जीवन के सुख और शांति के आकर्षण से अंत में विचारों का आकर्षण विजयी हुआ. ”

Leave a Comment