राहुल गांधी कब, कहां और कैसे बोलें?

0
Rahul Gandhi's America visit

arun kumar tripathi

— अरुण कुमार त्रिपाठी —

विपक्ष के नेता और लोकतांत्रिक भारत के लिए नई उम्मीद के रूप में उभरे राहुल गांधी के अमेरिका में दिए गए व्याख्यानों पर हमले जारी हैं। भारतीय जनता पार्टी और एनडीए सरकार के प्रवक्ताओं की पूरी फौज इस कोशिश में लगी हुई है कि राहुल गांधी को देशद्रोही साबित किया जाए और इसी के साथ यह बात भी प्रमाणित की जाए कि वे पप्पू ही हैं। दूसरी ओर कांग्रेस के प्रवक्ता भी उसी अंदाज में ताल ठोंक रहे हैं कि अगर हिम्मत है तो देश लौटने पर राहुल गांधी को गिरफ्तार करके दिखाओ।

तमाम ऐसे पत्रकार जिनकी लेखनी और वाणी में न तो लोकतांत्रिक चेतना है और न ही संवाद की मर्यादा है वे भी यह सीख दे रहे हैं कि राहुल को घर लौटकर बोलने का विधिवत प्रशिक्षण लेना चाहिए। पता नहीं यह इस दौर की संवाद पारिस्थितिकी है या खास विचारधारा की स्टाइल है कि सच बोलने वाले को संसद से सड़क तक और देश से विदेश तक घेर कर रखा जाए ताकि इस हिंसक और क्रूर व्यवस्था के साथ समाज की समस्याएं कभी सतह पर न आ पाएं। ऐसे लोग उस समय खामोश रहते हैं जब दस साल से प्रधानमंत्री पद को सुशोभित कर रहे नरेंद्र मोदी अमेरिका में जाकर पूरी दुनिया के लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुके डोनाल्ड ट्रंप का यह कह कर प्रचार कर आते हैं कि अबकी बार ट्रंप सरकार। ऐसे लोग तब भी नहीं बोलते जब वे तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह कह गुजरते हैं कि 2014 से पहले तो भारत में कुछ था ही नहीं। या फिर उनके सांसद कहते हैं कि भारत तो 2014 में आजाद हुआ।

आजकल चैनलों से लेकर यूट्यूब पर ऐसे `विद्वान’ पत्रकारों और उनके लगुओं भगुओं की भरमार है जो यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि 2014 से पहले भारत की रक्षा नीति और विदेश नीति बेहद कमजोर और मूर्खतापूर्ण थी। ऐसा कहते हुए वे यह भी भूल जाते हैं कि मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल का पूरा करियर ग्राफ कांग्रेस के शासन में ही उठा है। कांग्रेस ने देश के हित में उनकी प्रतिभा का पूरा इस्तेमाल किया। वे इस बात का जिक्र भी नहीं करते कि भारत की खुफिया संस्था रॉ(रिसर्च एंड एनलिसिस विंग) का गठन भी 1968 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर में हुआ था। यह इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने पूर्वी पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान से अलग कर बांग्लादेश के गठन में साहसिक भूमिका का निर्वाह किया।

राहुल गांधी ने अमेरिका में जिन तीन बातों पर जोर दिया वे बातें हैं, भारत में निष्पक्ष चुनाव की आवश्यकता, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा और जातिगत असमानता को मिटाने के लिए जाति जनगणना। ऐसे लोग उस समय विश्लेषण से दूर भागते हैं जब केरल से जारी बयान में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी जाति जनगणना के पक्ष में खड़ा होता है। वे लोग तब भी नहीं बोलते जब संघ प्रमुख स्वयं कहते हैं कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर नहीं ढूंढा जाना चाहिए या कौन अवतारी है यह उसे तय करने का अधिकार नहीं है। लेकिन ऐसे लोग उस समय जोर का शोर मचाते हैं जब किसी अंतरराष्ट्रीय रंगभेद विरोधी सम्मेलन में भारत की जाति व्यवस्था पर चर्चा का सवाल उठता है। वे तब सक्रिय हो जाते हैं जब भारत के प्रधानमंत्री से अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा पर अमेरिका में सवाल किया जाता है और वे एक रटा रटाया और असत्य किस्म का जवाब देते हैं।

राहुल गांधी न तो महात्मा गांधी हैं और न ही डॉ भीमराव आंबेडकर। वे स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला से तप कर निकले डॉ राम मनोहर लोहिया भी नहीं हैं। वे रामास्वामी नाइकर पेरियार भी नहीं हैं जो पहले स्वतंत्रता आंदोलन में कांग्रेस के साथ खड़े होने के बाद जाति के सवाल पर उससे अलग हो गए थे। इसके बावजूद राहुल गांधी में साहस, ईमानदारी और साफगोई भरपूर है और उन्होंने अपने दौर की चुनौतयों के मुकाबले एक बड़ी लकीर खींची है। लोग कहते भी हैं कि जिस मुद्दे पर कोई बोलने का साहस नहीं करता उस पर राहुल गांधी धड़ल्ले से बोलते हैं। ब

ल्कि अगर कहें कि वे कांग्रेस की और उसके नेतृत्व की अपनी खानदानी परंपरा से अलग हटकर विद्रोह करने वाले जननायक के तौर पर उभरे हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। बार बार उनके पिता और उनकी दादी के आपत्तिजनक बयानों और गलत नीतियों का दोष उन पर मढ़ना एक कुतर्क और साजिश है। वे सांसदों और विधायकों को सजा होने वाले उसी कानून के शिकार हुए हैं जिसे अगर उन्होंने बन जाने दिया होता तो शायद आज उन पर तलवार न लटक रही होती।

राहुल गांधी और उनकी पार्टी को केंद्रीय सत्ता और संस्थाओं, पूंजीपतियों और उनके द्वारा संचालित मीडिया ने 2014 से पहले ही निशाने पर ले रखा है और अभी वह निशानेबाजी कम नहीं हुई है। इसी की काट के लिए वे जनता से सीधे जुड़ने के लिए `भारत जोड़ो यात्रा’ करते हैं और भारत के लोकतंत्र का सवाल वैश्विक मंचों पर उठाते हैं। वैश्विक मंचों पर भारत और अंतरराष्ट्रीय अन्याय के सवाल को उठाने वाले वे अकेले राजनेता नहीं हैं।

ऐसा काम भारतीय नेता आजादी की लड़ाई के दौरान तो करते ही थे और जब भारत आजाद हो गया तब भी करते थे। अगर ऐसा न होता तो द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में डॉ आंबेडकर भारत की जाति व्यवस्था का सवाल न उठा पाते और मामला पूना समझौते तक न जाता। डॉ राम मनोहर लोहिया तो अमेरिका की रंगभेद नीति के विरुद्ध वहां जाकर गिरफ्तारी तक दे आए थे और वे नेपाल के लोकतंत्र के लिए भारत में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत भी गिरफ्तार हुए थे।

लेकिन डॉ लोहिया जब 1967 में लोकसभा में चुनकर पहुंचे तो स्वयं रामधारी सिंह दिनकर ने कहा कि डॉ साहब अब देश आप की बात सुन रहा है और आप की ओर बड़ी उम्मीद से देख रहा है। इसलिए आप को अपना गुस्सा और कठोर वचन कुछ कम करना चाहिए। डॉ लोहिया ने विनम्रतापूर्वक ऐसा कर पाने में असमर्थता जताई थी। लेकिन राहुल से फिर वही अपील की जा सकती है कि वे अपनी अभिव्यक्ति में विनम्रता लाएं।

इसका मतलब यह नहीं कि वे अपने विचार और सिद्धांत से कोई समझौता करें। उन्हें विचार में दृढ़ रहना चाहिए और व्यवहार और अभिव्यक्ति में विनम्र होना चाहिए। इस चीज को वे अपने मित्र और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से कुछ सीख सकते हैं। अखिलेश यादव का गुस्सा और तंज करने की शैली उनकी अभिव्यक्ति को ज्यादा असरदार बनाती है।

अगर उन्हें समाजवादी परंपरा से नहीं सीखना है, हालांकि आजकल वे उसी मार्ग पर हैं, तो उन्हें अपने पुरखे और देश दुनिया से सबसे महान व्यक्ति महात्मा गांधी से कुछ सीखना चाहिए। मैं नहीं जानता कि राहुल गांधी का भाषण कौन लिखता है लेकिन उसे लिखने वालों में थोड़ा आंबेडकरवादियों और कम्युनिस्टों का सख्त लहजा दिखता है। राहुल अगर उससे बचेंगे तो और ज्यादा असरदार होंगे। मुझे यह भी नहीं मालूम कि राहुल की `मोहब्बत की दुकान’ में कौन सी किताबें बिकती हैं। लेकिन मेरा सुझाव है कि उन्हें अपनी दुकान में महात्मा गांधी के विचारों की बीज पुस्तक `हिन्द स्वराज’ जरूर रखनी चाहिए।

उसका पाठ उनका भाषण लिखने वालों को भी करना चाहिए और स्वंय राहुल को भी करना चाहिए। उन्हें गांधी की `गीता माता’ और `अनाशक्ति योग’ भी रखना चाहिए। हो सके तो `बाइबल’ और `कुरान’ भी पास रखनी चाहिए। गांधी का `हिन्द स्वराज’ इसलिए क्योंकि वह युरोप और अमेरिका की दूसरी परंपरा के साथ भारत की अहिंसा और सत्याग्रह की परंपरा को जोड़ देती है और इससे आगे कहें तो वह वास्तव में सत्याग्रह के दर्शन को वैश्विक स्तर पर स्थापित करती है। वह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है। हर सत्याग्रही अपने संघर्ष का अन्वेषण स्वयं करता है। राहुल गांधी भी सत्याग्रही हैं और कर भी रहे हैं। लेकिन वे अपने ही देश के उत्तर-सत्य यानी झूठ के जंजाल में फंसे हुए हैं। इसीलिए उनके लिए ज्यादा जरूरी है वे न सिर्फ मोहब्बत की दुकान खोलें बल्कि मोहब्बत की अंतरराष्ट्रीय भाषा भी बोलें।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment