— शशि शेखर सिंह —
(कल प्रकाशित लेख का बाकी हिस्सा)
नेहरू असहमति प्रगट करने से पीछे नहीं हटते थे किन्तु असहमति को कभी भी वे अलगाव की परिणति तक नहीं ले गए। यही कारण है कि कांग्रेस या गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन के संबंध में निर्णयों से असहमति और मतभेद के बावजूद उनकी निष्ठा में दोनों के प्रति कभी कमी नहीं आई। इतना ही नहीं, जहां दृढ़ता के साथ निर्णय करने की आवश्यकता हुई वो पीछे नहीं हटे। 1929 की पूर्ण स्वराज की घोषणा को लेकर गांधी की असहमति से परिचित होते हुए भी जब नेहरू को लगा कि पूर्ण स्वराज की घोषणा के लिए अब इंतजार नहीं किया जा सकता तो लाहौर में रावी नदी के तट पर पूर्ण स्वराज की मांग के साथ नेहरू ने तिरंगा फहराकर ब्रिटिश साम्राज्य के सामने खुली चुनौती रख दी।
गांधी और सुभाष के वैचारिक टकराव में उन्होंने सुभाष का साथ दिया किन्तु जब 1939 में सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस का अध्यक्ष पद त्याग कर कांग्रेस छोड़कर चले गए और नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा कर दी तो नेहरू ने गांधी और कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा। हिटलर के नाज़ीवादी अधिनायकवाद के वे घोर विरोधी थे और लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे किन्तु जब द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजी हुकूमत ने कांग्रेस की बिना सहमति और आजादी के किसी ठोस आश्वासन के बगैर युद्ध में भारत के शामिल होने की घोषणा कर दी तो युद्ध में अंग्रेजों का साथ न देने के गांधी और कांग्रेस के फैसले को नेहरू ने स्वीकार कर लिया, हालांकि उन्हें लगता था कि हिटलर की जीत से दुनिया में लोकतंत्र और समाजवाद को खतरा हो जाएगा लेकिन एक सच्चा राष्ट्रवादी होने के नाते उन्हें लगा कि देश की आजादी की मांग से बढ़कर कुछ नहीं और यह उपयुक्त समय है जब कांग्रेस अंग्रेजों से आजादी का लिखित आश्वासन ले।
1942 में क्रिप्स मिशन के साथ बातचीत विफल होते ही गांधी पर आरपार की लड़ाई लड़ने का दबाव बनाने में नेहरू अग्रणी थे और गांधी ने 8 अगस्त को बंबई में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन’ की घोषणा कर दी। गांधी सहित नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद आदि सारे बड़े कांग्रेसी नेता तुरंत गिरफ्तार कर लिये गए लेकिन गांधी के ‘करो या मरो’ के नारे के साथ पूरे देश में भारत छोड़ो आंदोलन जंगल की आग की तरह फैल गया। इन बड़े नेताओं की अनुपस्थिति में कांग्रेस समाजवादी नेताओं जयप्रकाश नारायण, लोहिया, अरुणा आसफ अली आदि ने आंदोलन को नेतृत्व देकर महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आजादी के आंदोलन में गांधी के बाद नेहरू स्वाभाविक रूप से नेता थे और ब्रिटिश साम्राज्य ने उनको कई बार गिरफ्तार कर कुल नौ साल से अधिक समय तक विभिन्न जेलों में रखा।
1945 के मई में नेहरू भी लगभग तीन साल बाद कई नेताओं के साथ जेल से छोड़ दिए गए ताकि कैबिनेट मिशन के साथ वार्ता में भाग ले सकें। कैबिनेट मिशन से वार्ता के बाद देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त हो गया और संविधान सभा के गठन पर सहमति बनानेवाले नेताओं में नेहरू की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही। यह अलग बात है कि देश की आजादी का मार्ग मुस्लिम लीग और उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना की जिद के कारण बिना विभाजन के अंततः प्रशस्त नहीं हो पाया। द्वि-राष्ट्र के सांप्रदायिक सिद्धांत का नेहरू ही नहीं, सम्पूर्ण कांग्रेस ने विरोध किया किन्तु मुस्लिम लीग और उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना के द्वारा ‘डायरेक्ट एक्शन’ की घोषणा से भयानक सांप्रदायिक दंगे और रक्तपात के कारण नेहरू, पटेल सहित कांग्रेस कार्यसमिति माउंटबेटन प्लान पर आधारित भारत के विभाजन की त्रासदी को स्वीकारने करने को बाध्य हो गई।
उत्तराधिकार का प्रश्न और नेहरू
समाजवादी विचारधारा में विश्वास करनेवाले नेहरू, गांधी के सत्य और अहिंसा में अटूट आस्था रखते थे। गांधी के विचारों से कई बिंदुओं पर मत-भिन्नता के बावजूद गांधी के द्वारा उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किए जाने और उन्हें स्वतंत्र भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बनाए जाने के संबंध में पूर्वाग्रह से ग्रसित झूठा इतिहास गढ़ा जाता है। सच तो यह है कि वो इसके स्वाभाविक हकदार थे। इस संबंध में कुछ विवेक-सम्मत तर्क और स्वतंत्र भारत के भविष्य को सुरक्षित रखने की गांधी की दूरदृष्टि को जानना और समझना जरूरी है ।
1947 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेताओं सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद में यदि उम्र की दृष्टि से देखा जाए तो नेहरू सबसे कम उम्र के थे और यदि सरदार वल्लभ भाई पटेल और नेहरू की उम्र की तुलना की जाए तो जहां पटेल 1875 में पैदा हुए थे वहीं नेहरू 1889 में और पटेल तथा नेहरू के बीच चौदह वर्ष का फासला था, साथ ही पटेल का स्वास्थ्य ठीक नहीं रह रहा था। यह इसलिए बताना जरूरी है क्योंकि इस विषय में नेहरू विरोधी शक्तियां और खासकर सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी संगठन झूठे तथ्य फैलाकर देश को गुमराह करने की कोशिश करते रहे हैं। गांधी की हत्या में शामिल ऐसी शक्तियां निरंतर यह कोशिश करती रही हैं कि गांधी और नेहरू मुस्लिम समर्थक और हिन्दू विरोधी थे, और इन्ही कारणों से देश विभाजित हुआ था। नेहरू और पटेल के बीच मतभेद का मिथ्या प्रचार करने के पीछे भी यही शक्तियां सक्रिय रही हैं।
सच यह है कि जब कोई देश सदियों की गुलामी से मुक्त होकर एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करता है तो उसे अपेक्षया लंबे समय तक एक स्थिर, कुशल प्रगतिशील नेतृत्व की आवश्यकता होती है अन्यथा राजनीतिक अस्थिरता और अधिनायकवाद का खतरा बढ़ जाता है। यदि एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों की राजनीतिक यात्रा का तुलनात्मक अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि भारत में स्वतंत्रता से लेकर यदि सत्तर वर्षों से अधिक समय तक एक क्रियाशील उदारवादी लोकतंत्र कार्य करता रहा है तो इसका श्रेय नहरू के लंबे, कुशल तथा सफल नेतृत्व को जाता है। यहां ज्ञात रहे कि आजादी के तीन वर्ष पूरे होने के तुरंत बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु अक्टूबर 1950 में हो गई।
गांधी की यह दूरदृष्टि ही थी कि नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और लगभग 17 वर्षों तक नेहरू ने न सिर्फ नव स्वतंत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था को राजनैतिक स्थिरता प्रदान की बल्कि नवजात लोकतंत्र को युवा और परिपक्व लोकतंत्र का रूप देने के लिए मजबूत आधारशिला तैयार की। अगर दुनिया के नव स्वतंत्र देशों का तुलनात्मक अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि कैसे नेहरू ने न सिर्फ कांग्रेस पार्टी को निरंतर चुनावों में सफलता दिलाई बल्कि देश में नियमित चुनाव कराकर उदारवादी प्रक्रियात्मक लोकतंत्र को देश के राजनीतिक अभिजन तथा आम नागरिकों में शासन की एक पद्धति के रूप में स्वीकृति दिलाई जबकि एशिया और अफ्रीका के अधिकतर देशों में आजादी के कुछ वर्षों के भीतर नेतृत्व की कमियां, अलोकतांत्रिक तरीके से शक्तियों का केंद्रीकरण, नागरिक स्वतंत्रता का दमन और विपक्षी पार्टियों पर विभिन्न प्रकार के राजनीतिक प्रतिबंधों का यह दुष्परिणाम निकला कि कुछ वर्षों में या तो बहुदलीय लोकतंत्र की जगह एकदलीय अधिनायकवाद या वैयक्तिक तानाशाही या सैनिक शासन की स्थापना हो गई। घाना, नाईजीरिया, जांबिया, यहां तक कि विभाजन के बाद अस्तित्व में आया पड़ोसी पाकिस्तान इसके उदाहरण हैं।
आखिर भारत जैसे विशाल, बहुधर्मी, बहुभाषी, बहु-संस्कृति वाले देश में क्यों लोकतंत्र न सिर्फ जीवित रहा बल्कि क्रियाशील भी रहा। इसके पीछे नेहरू के शासन का नेतृत्व और कांग्रेस पार्टी में सापेक्षिक लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को बढ़ावा देना, तथा सेना को निर्वाचित नागरिक प्रशासन के अधीन कार्य करने के लिए तैयार करना महत्त्वपूर्ण रहा।नेहरू ने वैचारिक मतभेदों के बावजूद ऐसी अंतरिम सरकार का गठन किया जिसमें दक्षिणपंथी श्यामाप्रसाद मुखर्जी, सामाजिक समता और न्याय के प्रबल हिमायती डॉ भीमराव आंबेडकर तथा अल्पसंख्यक समूहों के नेतृत्व को स्थान देकर, राजकुमारी अमृत कौर आदि की उपस्थिति कराकर अंतर्विरोधों को कम करने की कोशिश की। इतना ही नहीं, उन्होंने समाजवादी जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया जैसे आलोचकों को मंत्रिमंडल में शामिल होने का निमंत्रण दिया। यह अलग बात है कि समाजवादी जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया ने अपनी चौदह सूत्री आर्थिक मांग को मानने की शर्त रखी थी और नेहरू शर्तों को तत्काल मानने के लिए तैयार नहीं थे। अलबत्ता धीरे-धीरे मंत्रिमंडल से कई नेता वैचारिक विरोधों के कारण हट गए।
नेहरू और लोकतंत्र
गांधी युग में नेहरू समाजवादी विचारधारा से प्रभावित प्रगतिशील सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। ब्रिटेन में शिक्षा के कारण ग्रेट ब्रिटेन के संसदीय लोकतंत्र से परिचित थे। भारत में भी ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान संवैधानिक विकास क्रमशः संसदीय लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा था। स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रीय स्वतंत्रता की मांग के साथ देश में संसदीय गणतंत्र की आधारभूमि तैयार हो रही थी। राष्ट्रीय आंदोलन के निरंतर दबाव के कारण ब्रिटिश साम्राज्य मताधिकार का विस्तार कर प्रतिनिधि प्रांतीय विधानसभाओं का गठन करने के लिए मजबूर था। नागरिकों को विभिन्न नागरिक तथा राजनैतिक अधिकार के लिए 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में पारित प्रस्ताव महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं।
1937 के प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव में कांग्रेस की भारी सफलता में नेहरू की लोकप्रियता और चमत्कारी प्रभावशाली नेतृत्व का व्यापक योगदान था। इन चुनावों में कांग्रेस की सफलता तथा अधिकाश प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनने और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मुस्लिम लीग की भारी विफलता से धर्मनिरपेक्षता को बहुत बल मिला था। और नेहरू – जो धर्मनिरपेक्षता के कट्टर हिमायती थे और मानते थे कि आजाद भारतीय राष्ट्र की बुनियाद धर्मनिरपेक्षता पर ही हो सकती है – ने संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ भीमराव आंबेडकर के साथ मिलकर कांग्रेस तथा दक्षिणपंथी हिंदूवादी ताकतों के विरोध के बावजूद भारत के संविधान के मूल में धर्मनिरपेक्षता के राजनैतिक दर्शन को स्थान दिलाने में सफलता प्राप्त की।
इतना ही नहीं, यह याद रखना चाहिए कि संसदीय गणतंत्र के प्रबल समर्थक नेहरू ने आजादी के पूर्व ही देशी रियासतों में जब गांधी और अन्य नेता वहां स्थानीय राजाओं के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन के हिमायती नहीं थे, तब भी नेहरू ने राजशाही के खिलाफ अखिल भारतीय राज्य प्रजा परिषद (ए.आई.एस.पी.सी.) का गठन कराने में अहम भूमिका निभाई थी और 1939 में उसका अध्यक्ष भी बने थे। यह लोकशक्ति में नेहरू के विश्वास का प्रतीक था और यही कारण है कि भारत के संविधान सभा में सभी भारतीय वयस्कों को मताधिकार देने के क्रांतिकारी कदम का नेहरू, आंबेडकर आदि नेताओं ने पुरजोर समर्थन कर भारत में राजनैतिक लोकतंत्र को सुनिश्चित कर दिया। यह उदारवादी पूंजीवादी विकसित देशों की तुलना में ऐतिहासिक कदम था क्योंकि जहां ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार एक बार में नहीं बल्कि सैकड़ों वर्षों के क्रमिक विकास का परिणाम था वहीं स्वतंत्र भारत के गणतंत्र की घोषणा के साथ सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के द्वारा लोक संप्रभुता की स्थापना हो गई।
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने लिखा है कि नेहरू निस्संदेह हमारे लोकतंत्र के मुख्य निर्माता थे। किसी अन्य राष्ट्रवादी नेता की तुलना में उन्होंने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और बहुदलीय व्यवस्था को अधिक प्रोत्साहित किया और आगे बढ़ाया! भारत के संविधान की प्रस्तावना का प्रारूप तैयार करनेवाले नेहरू थे जिसमें इसी लोक संप्रभुता की छाप पहली ही पंक्ति ‘हम भारत के लोग’ में दिखाई देती है। इस प्रस्तावना में भारतीय संविधान की आत्मा बसी है जिसमें समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के साथ-साथ व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता का पूरक भाव निहित है।
अबतक जनता की चुनी हुई सरकार भले किसी दल या विचार की हो, एक दल के बहुमत वाली हो या गठबंधन की हो, इसी संविधान ने उदारवादी प्रतिनिधि लोकतंत्र को भारत में न सिर्फ जीवित रखा है बल्कि भारत को तीसरी दुनिया के देशों में तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद सफल लोकतंत्र बनाकर रखा है बल्कि भारत आज दुनिया का विशालतम क्रियाशील देश है तो इसमें नेहरू के लोकतांत्रिक विचार, मूल्य और राजनीतिक विश्वास के साथ-साथ सत्रह वर्षों के लोकतांत्रिक नेतृत्व का योगदान का सबसे अधिक है।
सच तो यह है कि जो लोग आज केंद्र की सरकार में बैठकर नेहरू को खलनायक बनाने की और उनके ऐतिहासिक योगदान को झुठलाने की कोशिश कर रहे हैं वो भी नेहरू समेत संविधान निर्माताओं के द्वारा निर्मित इसी लोकतांत्रिक संविधान के कारण ही सत्ता में पहुंचे हैं जबकि देश की आजादी के संघर्ष से लेकर संविधान निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं। उलटे वे तो आज उसी संविधान और उसके लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों तथा नागरिक समानता को खत्म करने की साजिश में जुटे हुए हैं।