हान कांग को नोबेल पुरस्कार जीतने के लिये बधाई!

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Han Kang

Pankaj Mohan

— पंकज मोहन —

कोरिया की सबसे बडी और मशहूर किताब की दूकान का नाम है “क्योबो” जिसमें तेईस लाख किताबें सजी रहती हैं। इस पुस्तक भंडार की हर दीवार पर किताबें सजी हैं, लेकिन एक दीवार दशको सा सूनी है। उस पर टंगे बोर्ड पर लिखा है “साहित्य के नोबेल विजेता कोरियाई लेखक के लिये आरक्षित”। आज उस बोर्ड का सूनापन दूर हुआ। कोरियाई साहित्य-रसिकों का मनोरथ पूरा हुआ।

दक्षिण कोरिया की कवियित्री और कथाकार हान कांग को नोबेल पुरस्कार जीतने के लिये बधाई।

हान कांग ने शैशवकाल से ही अपना जीवन कोरियाई और विश्व साहित्य के गौरव ग्रंथ के साथ बिताया। उसके पिता हान संग-वन फणीश्वरनाथ रेणु की तरह कोरियाई साहित्य में आंचलिक उपन्यास के सफल प्रयोगकर्ताओं के रूप में जाने जाते हैं। उनकी एक कथा पर “आजे आजे परा आजे” (प्रज्ञा पारित हृदय सूत्र की एक पंक्ति का कोरियाई अनुवाद जिसका अर्थ है, चलें, मोहमुक्त हो आगे बढें) नामक फिल्म भी बन चुकी है। हान कांग के बडा भाई (दो साल बडा) भी फिछले बीस वर्षों से बहुत परिश्रम से कहानी और उपन्यास लिखता आ रहे हैं और साहित्य के पथ पर अपनी बहन का मार्ग दर्शन भी करते आ रहे हैं। हान कांग ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि बचपन में उनके लिये किताबें अर्ध-जीवित प्राणी थीं जिनके साहचर्य में उन्हें सहजता का अनुभव होता था और किताबें उन्हें आश्वस्त करती थीं, “मैं तुम्हारे साथ हूं — मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी। मकान बदलकर नये इलाके में जाने पर पड़ोस के बच्चों से दोस्ती बाद में होती थी, लेकिन पुरानी किताबों की आलमारी साथ होने के कारण उन्हे लगता था कि मैं नयी जगह आयी हूं, लेकिन पुराने दोस्तों से जुदा नहीं हुयी हूं।

किशोरावस्था में हान कांग रूसी साहित्य, विशेषकर दोस्तोवस्की और पास्तरेनाक के उपन्यासों की दुनिया में डूबी रहती थी। 14 साल की उम्र में उन्होंने कोरियाई साहित्यकार लिम चल-वू की एक कहानी “सैपयोंग स्टेशन” पढ़ी जिससे वह बहुत प्रभावित हुयीं। इस कथा में बर्फीली रात में एक छोटे-से कस्बाई रेलवे स्टेशन का वर्णन है। इसमें कोई नायक नहीं है; आखिरी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे यात्री साथ बैठे हैं– एक खांसता है, दूसरा अपने बगलगीर मुसाफिर से बातचीत शुरू करने की कोशिश करता है, एक यात्री घूरे की आग की आंच में लकडी रख रहा है और आंच के चारो ओर बैठे यात्री अपने शरीर को गरमा रहे हैं।

अपने साहित्य-सिंचित पारिवारिक परिवेश और इस कथा की मोहिनी शक्ति के कारण और हान कांग ने कैशोर्यावस्था में लेखक बनने का फैसला किया। सेओल-स्थित यनसे विश्वविद्यालय में उन्होंने कोरियाई साहित्य का अध्ययन किया। बाद में पोलैंड प्रवास के समय जब उन्होंने WG Sebald की पुस्तक Austerlitz पढी, उन्हें लगा कि लेखक ने सामूहिक स्मृति को आत्मसात करने के लिये अन्तर्जगत में गहराई से प्रवेश किया है। Jorge Luis Borges, Primo Levi, Italo Calvino, Arundhati Roy की रचनाओं को भी उन्होंने चाव से पढा।

आरम्भ में हान कांग कविता लिखती थीं। उनकी कवितायें मुझे पसन्द है। यह लम्बी कविता है जिसकी आरम्भिक पंक्तियां नीचे दे रहा हूं

“अगर एक दिन नियति मुझसे बात करे, मुझसे पूछे “मैं तुम्हारी नियति हूं, पता नही तुम्हारे मन में मेरे प्रति गिला-शिकवा है या मैं तुम्हें पसंद हूं,” मैं चुपचाप उसे अपने बाहों में भर लूंगीऔर लंबे समय तक उसे लगे से लगाये रखूंगी।

एक क्षण का टुकड़ा

मैं नहीं जानती कि उस समय मेरी आंखो से आंसू छलक उठेंगे या मैं इतना शांत रहूंगी कि मुझे लगेगा कि मुझे किसी और चीज़ की ज़रूरत ही नहीं है।” ….

इस कविता का अभिप्रेत है कि हर व्यक्ति की नियति समान नहीं होती, सब अपने-अपने ढंग से जीते और मरते हैं, लेकिन दुनिया में सरल और सहज जीवन नहीं होता। हमारे जीवन की रीति-नीति भिन्न जरूर दिखती हैं, लेकिन हर आदमी अपने-अपने हिस्से की व्यथा-विषाद को झेलता है। जीवन जो दर्द लाता है, वह वस्तुतः समान है।

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