चाक पर रेत : बासठ

0
Lohiya

— जाबिर हुसैन —

ये तपिश, ‘डाक बंगला के ओसारे पर बैठे-बैठे, अख़बार पढ़ते-पढ़ते, चाय पीते-पीते, अचानक लोहिया जी ने खुले आसमान की तरफ़ नज़र दौड़ाई और चिंतित स्वर में बोले-‘भागवती, मेरा मन कहता है, इस साल भीषण अकाल पड़ेगा, बड़ी संख्या में लोग भूखों मरेंगे। बड़ी चुनौती होगी, दिन-रात मेहनत करनी होगी, तभी ग़रीब बच पायेंगे।’

‘लेकिन आप ऐसा कैसे कह रहे हैं’ – भागवती जी ने साहस करके लोहिया जी से पूछा। ‘इधर आओ, आसमान की तरफ़ देखो’ – कहते हुए लोहिया जी ओसारे से नीचे डाक बंगला के आगे मैदान में उतर आए। मैदान में उतरते वक्त उन्होंने ज़मीन से सूखी घास के कुछ तिनके उठा लिए। घास को अपनी नाक के करीब ले गए, और बोले –

‘भागवती, देखो, घास का रंग, और इस मिट्टी की तरफ़ भी देखो। इस मिट्टी की भाषा समझो, यह चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है, अबके साल अकाल पड़ेगा, भीषण-अकाल, लोग भूखों मरेंगे। मेरे पास वक्त नहीं है, भागवती, चलो मुझे बाराचट्टी के दूर-दराज़ गांवों में ले चलो। पानी के लिए हाहाकार मचेगा। मुझे तुरंत अपने लोगों से बात करनी पड़ेगी। सरकार को यह चुनौती स्वीकारनी पड़ेगी। यह सरकार की परीक्षा की घड़ी है।’

इतना कहते-कहते भागवती जी की आवाज रूआंसी हो गयी। उनकी सफ़ेद, बड़े दायरे वाली आंखों से पानी की बूंदें छलछला उठीं, और वो बड़े, दूर तक फैले, लोहे की जालियों से घिरे बरामदे में रखी बेंच की तकलीफ़देह कुर्सी में धंस-सी गयीं।

‘वो दूसरे किस्म के दिन थे, भागवती जी, दूसरे क़िस्म के। लोहिया जी मिट्टी से बातें करते थे, मिट्टी की पीड़ा समझते थे, उसकी उदासी, उस का सन्नाटा, उसका अकेलापन, सब कुछ, वो अपने मन में संभालकर रखते थे। सड़क पर हों, या संसद में। वो मिट्टी से अपना रिश्ता नहीं तोड़ते थे। तभी तो उनके विचारों में इतनी ताज़गी थी, और वक्त की धड़कनें भी। अब कहां, वो बात!’

भागवती जी चाय पीकर अपने क्षेत्र बाराचट्टी के लिए प्रस्थान कर गयी हैं। मैं उन्हें बाहर पोर्टिको में, उनकी जीप तक, छोड़ आया हूं। मेरी नज़रें पोर्टिको के सामने वाले लॉन पर चली गयी हैं, जहां साल में दो बार ताम-झाम के साथ, आजादी का झंडा फहराया जाता है। लॉन की घास जल-जल कर बदरंग हो गयी है। दूर-दूर तक, उस में हरियाली का नाम नहीं रह गया है।

मुझे लॉन में घास के रेजे समेटते देखकर गमलों में पानी दे रहा माली तेज़ कदमों से मेरे पास आ गया है। ‘अभी ये हाल है तो भरी गर्मी में, जेठ में, क्या होगा? कितने दिनों से घास पर पानी नहीं डाला?’ ‘रोज डालते हैं, सर’, माली ने जवाब दिया, ‘मगर घास जलती ही जाती है। उस पर हरियाली नहीं आती। अभी सुबह के नौ भी नहीं बजे, मगर माहौल में भट्ठी जैसी गर्मी पैदा हो गयी है। सुबह-शाम पानी डालेंगे, आज से।’

मैंने महसूस किया, माली ठीक कह रहा है, अभी सूरज बीच आसमान नहीं पहुंचा, फिर भी माहौल में तपिश पैदा हो गयी है। माली कहता है, वो हर रोज घास पर पानी डालता है, और घास को हरा-भरा रखने की कोशिश करता है, मगर ज़मीन की मिट्टी जैसे घास की जड़ों से रूठ गयी है। वो अपने स्तनों से सूखी घास के होठों को सैराब नहीं कर पाती। इसीलिए घास की जड़ें जल-जल कर ज़मीन पर बिखरती जा रही हैं।

मैंने लॉन में खड़े-खड़े आसमान की तरफ़ ऩजरें दौड़ाईं। आसमान मुझे अजनबी-सा दिखाई दिया है। मेरे पैरों के नीचे जो जमीन है, वो सूखी और जली घास से भरी है, और मेरे ऊपर जो आसमान है वो अजनबी है। मुझे जमीन की, मिट्टी की भाषा नहीं आती। मैं मिट्टी से बातें नहीं कर सकता। मैं उसकी उदासी, उसका सन्नाटा, उसका अकेलापन नहीं समझ सकता। मेरे अपने मन के सन्नाटे में मिट्टी के दर्द के लिए कोई जगह कहां रह गयी है!

अपने लॉन की बदरंग घास पर खड़े-खड़े मुझे यह ज़रूर महसूस होने लगा है कि वक्त से पहले माहौल में आने वाली ये तपिश अपनी नई ज़िंदगी के लिए किसी का ताज़ा लहू चाहती है!

Leave a Comment