— जयराम शुक्ल —
हम कृतघ्न लोग अब सिर्फ उन्हें ही याद करने, उनके जन्मदिन या पुण्यतिथि मनाने तक सिमट गए हैं जो किन्हीं न किन्हीं वजहों से सुर्खियों में रहते हैं। वजह साफ है कि राजनीति में कौन कितने काम का, राजनीति में किसका कितना मोल..। यही पैमाना बचा है पुरखों के याद करने का.।
इस आपाधापी में एक महापुरुष जो प्रतिभा व व्यक्तित्व की दृष्टि से नेहरू और पटेल से इक्कीस ही था हर साल भुला दिया जाता है। इस महापुरुष का नाम है आचार्य नरेंद्र देव..। उनकी जयंती हर साल 30 अक्टूबर को पड़ती है। आचार्य जी ने भारतीय संस्कृति व दर्शन के अनुरूप साम्यवाद की समाजवादी थ्योरी दी थी।
विंध्य उनकी थ्योरी को यथार्थ के धरातल पर उतारने का प्रयोगस्थल था। यमुना प्रसाद शास्त्री, चंद्रप्रताप तिवारी.. जैसे युवातुर्कों के आराध्य डा. लोहिया नहीं, आचार्य जी थे। चंद्रशेखर स्वयं को आचार्य जी का राजनीतिक वंशधर मानते थे।
आज अग्रजवत् मित्र वृहस्पति सिंह (यमुना शास्त्री जी के संगी-साथी) ने पीड़ाजनक शब्दों में आचार्य जी को याद किया और उनपर कुछ न लिखने के लिए मुझे अधिकारपूर्वक खरी-खोटी कही।
आचार्य जी को मैंने ज्यादा पढ़ा नहीं सिर्फ चंद्रप्रताप जी, शास्त्री जी से सुना है। अपनी गल्ती को अंशतः सुधारते हुए, इंटरनेट पर आचार्य जी पर उपलब्ध सामग्री खगालने के बाद उसे जस का तस प्रस्तुत करने का यत्न कर रहा हूँ।
……आचार्य नरेन्द्र देव भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, साहित्यकार, समाजवादी, विचारक और शिक्षाशास्त्री थे। हिन्दी, संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेज़ी, पाली आदि भाषाओं के ज्ञाता नरेन्द्र देव स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान कई बार जेल भी गए। विलक्षण प्रतिभा और व्यक्तित्व के धनी आचार्य नरेन्द्रदेव उच्च कोटि के निष्ठावान अध्यापक और महान शिक्षाविद् थे। वाराणसी स्थित काशी विद्यापीठ में आचार्य बनने के बाद से ‘आचार्य’ की उपाधि उनके नाम का एक अभिन्न अंग बन गई। देश की आजादी का जुनून उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलन में खींच लाया। वह भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के सक्रीय सदस्य थे और सन 1916 से 1948 तक ‘ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी’ के सदस्य भी रहे।
प्रारंभिक जीवन
नरेन्द्र देव का जन्म 31 अक्टूबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में हुआ था। उनके बचपन का नाम अविनाशीलाल था। उनके पिता बलदेव प्रसाद अपने समय के जाने-माने वकील थे। बालक अविनाशी का बचपन मुख्यतः फैजाबाद नगर में बीता। बलदेव प्रसाद धार्मिक प्रवित्ति के इंसान थे और राजनीति में भी थोड़ी बहुत दिलचस्पी लेते थे जिसके कारण उनके घर पर इन क्षेत्रों के लोगों का आना-जाना लगा रहता था। इस तरह बालक नरेन्द्र देव को स्वामी रामतीर्थ, पंडित मदनमोहन मालवीय, पं॰ दीनदयालु शर्मा आदि के संपर्क में आने का मौका मिला। धीरे-धीरे उनके मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग उपजा और फिर बड़ा होने पर देश की सामाजिक और राजनैतिक दशा ने राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया।
नरेन्द्र देव ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया और फिर पुरातत्व के अध्ययन के लिए काशी के क्वींस कालेज चले गए। तत्पश्चात उन्होंने सन् 1913 में संस्कृत में एम.ए. पास किया। चूँकि पिताजी जाने-माने वकील थे इसलिए घरवाले उन्हें भी वकालत पढ़ाना चाहते थे पर नरेंद्रदेव को यह पेशा पसंद नहीं था लेकिन उन्हें लगा कि वकालत करते हुए राजनीति में भाग लेना आसान हो जायेगा इस दृष्टि से कानून पढ़ा।
राजनैतिक जीवन
नरेंद्रदेव जी के राजनैतिक विचार धीरे-धीरे गरम दल के लोगों से मेल खाने लगे। अपने उग्र विचारधारा के कारण इन्होने कांग्रेस के अधिवेशनों में गरम दल के होने के कारण जाना छोड़ दिया। सन् 1916 में जब कांग्रेस में दोनों दलों में मेल हुआ तब फिर कांग्रेंस में आ गए।
वकालत की पढ़ाई के बाद उन्होंने 1915-20 तक पाँच वर्ष फैजाबाद जिले में वकालत की। इसी दौरान अंग्रेजी सरकार के विरोध में असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ जिसके बाद नरेंद्रदेव ने वकालत छोड़ दिया और काशी विद्यापीठ चले गए जहाँ जाकर उन्होंने अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। यहाँ उन्होंने विद्यापीठ में डॉ भगवानदास की अध्यक्षता में कार्य शुरू किया। वर्ष 1926 में वो विद्यापीठ के कुलपति भी बन गए और यहीं पर ‘आचार्य’ का सम्बोधन भी इनके नाम के साथ जुड़ गया। काशी विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने नरेन्द्र देव के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
नरेन्द्र देव अपने विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति में रूचि लेने लगे थे। सन 1916 से लेकर 1948 तक ‘ऑल इंड़िया कांग्रेस कमेटी’ के सदस्य भी रहे और जवाहरलाल नेहरू के साथ ‘कांग्रेस वर्किंग कमेटी’ के भी सक्रिय सदस्य रहे।
ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद नरेन्द्र देव ने 1930 के नमक सत्याग्रह, 1932 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन तथा 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया और जेल की यातनाएँ भी सहीं। 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान जब 8 अगस्त को गांधी जी ने “करो या मरो” प्रस्ताव रखा, तब बंबई में कांग्रेस कार्यसमिति के तमाम सदस्यों के साथ इन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। तत्पश्चात नरेन्द्र देव 1942-45 तक जवाहरलाल नेहरू के साथ अहमदनगर के किले में बंद रहे। यहीं पर उनके ज्ञान से प्रभावित होकर पंडित नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “डिस्कवरी ऑफ़ इंड़िया” की पांडुलिपि में उनसे संशोधन करवाया।
कांग्रेस को समाजवादी विचारों की ओर ले जाने के उद्देश्य से सन 1934 में जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया तथा अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर आचार्य नरेन्द्र देव ने ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ की स्थापना की और 1934 में प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष भी रहे। जब कांग्रेस पार्टी ने यह निश्चय किया कि कांग्रेस के अंदर कोई अन्य दल नहीं रहेगा, तब उन्होंने अपने साथियों के कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। भारत में समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्रदेव का बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
भाषा ज्ञान
राजनैतिक कार्यकर्ता और विचारक के साथ-साथ नरेन्द्र देव एक साहित्यकार और महान शिक्षाविद भी थे। उन्हें संस्कृत, हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी, पाली, बंगला, फ़्रेंच और प्राकृत भाषाओँ का बहुत अच्छा ज्ञान था। ‘काशी विद्यापीठ’ के बाद वो ‘लखनऊ विश्वविद्यालय’ और ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ के भी कुलपति रहे और शिक्षा के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया।
रचनाएँ
एक बार आचार्य नरेंद्रदेव जी ने “मेरे संस्मरण” शीर्षक रेडियो वार्ता में कहा था: “मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियाँ रही हैं – एक पढ़ने-लिखने की और, दूसरी राजनीति की!
बौद्धदर्शन के अध्ययन में उनकी विशेष रुचि थी और जीवन पर्यान्त वो बौद्धदर्शन के अध्ययन में लीन रहे। उन्होंने जीवन के अंतिम दिनों में “बौद्ध-धर्म-दर्शन” पूरा किया और “अभिधर्मकोश” भी प्रकाशित कराया। इसके साथ-साथ “अभिधम्मत्थसंहहो” का भी हिंदी अनुवाद भी किया। उन्होंने बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माणकार्य भी प्रांरभ किया था पर उनके आकस्मिक निधन से यह कार्य पूरा न हो सका।
आचार्य नरेन्द्र देव की प्रकाशित रचनाओं में सबसे महत्वपूर्ण उनके भाषण रहे हैं।
उन्होंने “विद्यापीठ” त्रैमासिक पत्रिका, “समाज” त्रैमासिक, “जनवाणी” मासिक, “संघर्ष” और “समाज” आदि साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। इन पत्र-पत्रिकाओं में कई लेख और टिप्पणियाँ समय-समय पर प्रकाशित हुए जो: राष्ट्रीयता और समाजवाद, समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन, सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास, युद्ध और भारत, किसानों का सवाल आदि के रूप में संग्रहित हैं।
निधन
आचार्य नरेन्द्र देव जीवन भर दमे के मरीज रहे। अपने मित्र और उस समय मद्रास के राज्यपाल श्रीप्रकाश के निमंत्रण पर स्वास्थ्य लाभ के लिए वो चेन्नई गए थे जहाँ दमे के कारण 19 फ़रवरी, 1956 को एडोर में उनका निधन हो गया। मृत्यु के समय उनकी उम्र 67 साल थी।
टाइम लाइन (जीवन घटनाक्रम)
1889: नरेन्द्र देव का जन्म हुआ
1899: अपने पिता के साथ कांग्रेस के लखनऊ अधिवेसन में भाग लिया
1904: 15 साल की उम्र में विवाह
1911: स्नातक की शिक्षा पूर्ण हुई
1913: स्नातकोत्तर की शिक्षा पूर्ण हुई
1915: वकालत की पढाई पूरी की
1921: काशी विद्यापीठ में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया
1926: काशी विद्यापीठ के आचार्य नियुक्त किये गए
1928: इंडिपेंडेंस ऑफ़ इंडिया लीग में शामिल हुए
1947-1951: लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति रहे
1951-1953: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे
1956: 67 साल की उम्र में निधन