क्रांतिवादी युवको, हम लोगों का उपदेश मत मानो, हमारी राय, स्वीकार मत करो। तुम्हें हमारा जीवन जीना नहीं है। पहली बात जो मुझे तुम लोगों से कहनी है, वह यह कि पिछली पीढ़ी की ‘कॉर्बन कॉपी’ मत बनो। मेरी पीढ़ी के और तुम्हारे पिताजी की पीढ़ी के लोगों की तरह बनने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है। तुम्हारा जीवन स्वतंत्र है, एक नया संसार बनाने का हौसला तुममें होना चाहिए। तुम्हारा यह हौसला तुम्हारे अपने ही परिश्रम से सिद्ध हो यह आशीर्वाद, यह शुभकामना मेरी पीढ़ी के लोगों को तुम्हारे चरणों में अर्पित करनी चाहिए।
मित्रो, जो यह कहता है कि पहले जो नहीं हुआ वह अब होगा नहीं, वह बूढ़ा है। आज तक जो न हुआ वह कल होकर रहेगा यह जो कहता है वह युवक है। वह बूढ़ा है जो यह कहता है कि अमीरी- गरीबी संसार में कभी मिटी नहीं, रामराज्य में भी अमीरी-गरीबी थी, सत्ययुग में भी थी, महाभारत और रामायण-काल में भी थी, शिवाजी के समय में भी थी, इसलिए अमीरी-गरीबी कभी मिटनेवाली नहीं है।
मार्क्स ने क्या कहा ? उसने कहा कि आज तक अमीरी-गरीबी मिटी नहीं, इसलिए कल वह मिटनेवाली है, बिल्कुल खत्म होनेवाली है। तभी वह क्रांतिकारी सिद्ध हुआ। ‘तलवार’ के बिना आज तर्क क्रांति नहीं हुई इसलिए कल भी होनेवाली नहीं है, कहनेवाला बूढ़ा है।
इतिहास क्या है ?
स्वराज्य से पहले की बात है। मैं एक कॉलेज में गया था। वहाँ एक लड़के ने मुझसे प्रश्न किया- ‘आज तक क्या किसी को तलवार के बिना राज्य मिला है ?’
मैंने कहा- ‘नहीं’।
‘फिर आप भाषण क्यों देते हैं ?’
‘इसलिए देता हूँ कि मुझे लगता है कि वह मिलेगा।’
‘ऐसा लगने का कारण क्या है ?’
‘कारण यही कि तुम पैदा हुए हो। बीस वर्ष पहले तुम नहीं थे। गौतम बुद्ध हुआ, राम हुआ, कृष्ण हुआ, प्रताप हुआ, शिवाजी हुआ, पर तुम नहीं थे। तुम्हारा जन्म इतिहास की अभूतपूर्व घटना है। इसलिए बुद्ध, ईसा, महावीर, शिवाजी, सीज़र, गांधी, तिलक आदि के जमाने में जो हुआ नहीं, वह तुम्हारे जमाने में होनेवाला है। इतिहास में कल जो नहीं हुआ वह आज होनेवाला है। इसीलिए इतिहास लिखा जाता है।’
इतिहास क्या है? शिवाजी पैदा हुआ, विवाह किया, मर गया। क्या संभाजी का भी यही इतिहास है? क्या इतिहास ऐसा हो सकता है? अखबार इस तरह से निकलने लगें तो क्या तुम पैसा देकर खरीदोगे? कल जो नहीं हुआ वह आज होता है, इसलिए इतिहास लिखा जाता है। इतिहास बनाना तरुणाई के विरुद्ध है। यह तरुणाई की शान है।
इस तरुणाई की शान को एक कहानी के रूप में मैं बताया करता हूँ। मेरे जैसा एक बूढ़ा अपने नाती को लेकर बगीचे में घूमने निकला। अब वृढों का एक लक्षण तुम्हें बताता हूँ। बूढ़ा हमेशा शिकायत करता रहता है। शरीर में ताकत होती नहीं, वासनाएँ क्षीण नहीं हुई होतीं। वासनाएँ खूब हों और शरीर में दम नहीं हो तो आदमी संसार पर अक्सर झुंझलाता रहता है। सदा कुछ न कुछ शिकायत करता रहता है। तो वे दोनों जा रहे थे। रास्ते में सबसे पहले एक बड़ा इमली का पेड़ मिला। पहले ही से बूढ़ा खीझा हुआ था, सारे संसार से ऊबा हुआ, जीवन से थका हुआ था ही, तो बोला – “सारे लोग भगवान् की बड़ी तारीफ करते रहते हैं। लेकिन उसने यह संसार भी क्या बनाया ? इमली का इतना तगड़ा पेड़ और इसके पत्ते देखो इतने छोटे और फल भी इतने छोटे ! वाह, क्या ‘सेन्स ऑफ प्रोपोर्शन’ है? प्रमाणबद्धता, ‘सिमेट्री’ कुछ समझता नहीं शायद ! अरे, खुद की अक्ल नहीं थी तो मेरे जैसे किसी सयाने से पूछ लेना था कि नहीं ?…’ इसी तरह, जो भी नजरों में आता उस पर कुछ न कुछ टिप्पणी करता जा रहा था। उसकी टिप्पणी का सिलसिला बराबर जारी था। आखिर गुलाब की क्यारी आयी। गुलाब के सुन्दर-सुन्दर फूल खिले हुए थे। बूढ़ा बोला- ‘यह तो हद हो गयी! उस मनहूस ने गुलाब जैसे कोमल फूलों तक में काँटे लगा दिये हैं। यह उसकी कैसी अरसिकता है? यह तो कोमल बेल पर इतना मोटा कुम्हड़ा लटका देता है और इमली के भारी पेड़ पर इत्ता सा फल।’
उसके साथ जो छोटा बच्चा था, उसे तो हर चीज में नवीनता दिखाई देती थी। हर एक वस्तु देखकर वह बाग-बाग हो रहा था। उसे बड़ा आनन्द आ रहा था। टीका-टिप्पणी के लिए उसके मन में गुञ्जाइश ही नहीं थी। वह बोला- ‘नानाजी, एक काम करें। एक चक्कर और इस बाग का लगा आयें।’
नानाजी तैयार हो गये। दूसरा चक्कर शुरू हो गया। संजोग की बात कि बूढ़े के टक्कल पर इमली का एक फल फटाक से गिर पड़ा। तब नाती ने पूछा- ‘क्यों नानाजी, यह इमली कोहड़े के आकार की होती तो क्या होता?’ बूढ़े ने पहले टीका की थी भगवान् को ‘सेन्स ऑफ प्रोपोर्शन’ नहीं है, इतने बड़े पेड़ पर इतना छोटा फल और ऐसी नाजुक बेल पर इतना मोटा कुम्हड़ा बनाया! यदि इमली की फली कुम्हड़े के बराबर होती तो अब बूढ़े की कपालक्रिया हो गयी होती । बूढ़ा सोचने लगा और बोला कि ‘हाँ, कुछ समझदारी दिखती है उस भगवान् की रचना में।’ नाती ने कहा- ‘बात यही है कि आपकी आँख में और मेरी आँख में बड़ा फर्क है। आपकी आँखें बूढ़ी हो गयी हैं, मेरी आँखें साबित हैं। भगवान् का दिया हुआ यह दिव्य चक्षु है। आपको गुलाब काँटों से घिरा दीखता है पर मुझे धन्यता अनुभव हो रही है कि काँटों में गुलाब खिल रहा है।’
ऐसा यह संसार है। जिस देश में राष्ट्रीयता नहीं है, जिस देश के लोग लम्बी आदत के कारण आलसी हैं, हताश हत्बुद्धि हतवीर्य हो गये हैं, ऐसे देश में जनता के पुरुषार्थ से, जनता के पराक्रम द्वारा नये समाज का निर्माण करना है। प्रयत्नपूर्वक ऐसा समाज बनाना है और वह शक्य है, यह विश्वास जिसके अन्तःकरण में होगा वह तरुण है। तारुण्य सदा प्रयत्नशील रहता है। तारुण्य के शब्दकोष में पराभव शब्द ही नहीं है। असफलता है, पराभव नहीं। असफलता लज्जाजनक नहीं है। असफल तो अच्छे-अच्छे लोग हुए हैं। असफलता से मनुष्य की हानि नहीं हुई है। नाकामयाबी से पस्तहिम्मत होने की आवश्यकता नहीं है, पराभूत नहीं होना है। असफलता से उत्साह बढ़ना चाहिए। असफलता से दुखी होने का कारण नहीं है। क्रांतिवादी युवको, ऐसा यौवन ईश्वर-कृपा से तुम्हें प्राप्त हो।
एक शंका का समाधान पूछा गया है। यथामति स्पष्ट करने का प्रयत्न करता हूँ। मैंने कहा कि तारुण्य के शब्दकोश में पराभव नहीं है, भले ही असफलता हो। इसका क्या अर्थ है?
उत्तर- इतिहास में और कुल क्रांति के तत्त्वज्ञान में और तंत्र में दो बातें बहुत महत्त्व की हैं। क्या सफलता का चिह्न यह माना जाय कि बहुसंख्यक लोगों को जो मान्य होगा वह सफल है? यह एक प्रश्न है। यह प्रश्न पहले मैं गांधीजी की भूमिका से पूछता था, अब क्रांतिकारी की भूमिका से पूछता हूँ। क्योंकि आज का क्रांतिकारी अब पूछने लगा है कि अमुक विचार या अमुक तत्त्वज्ञान बहुसंख्यक लोगों को मान्य नहीं हुआ इसलिए क्या वह उसका पराभव माना जाय? यह बहुत महत्त्व का प्रश्न है। उसका क्षेत्र चूँकि विशाल नहीं हुआ या जीवन के अनेक क्षेत्रों में उसका प्रवेश नहीं हुआ इसलिए क्या उसे गलत माना जाय? यह प्रश्न है। मैं असफलता कहता हूँ, क्योंकि गांधीजी के कार्यक्रमों का अनुकरण लोगों ने किया, बड़ी संख्या में किया, तब भी इन कार्यक्रमों के पीछे क्रांति का जो विचार था, क्रांति की जो प्रेरणा थी उसे लोगों ने स्वीकार नहीं किया। इस अर्थ में गांधीजी असफल हुए, पर इसे मैं पराभव नहीं मानता ।
बहुमत सही-गलत के निर्णय का साधन नहीं है। यह विचार अब राजनीति में भी करना होगा ‘नाथ पै’ का बिल आया था कि मूलभूत अधिकार अबाधित रहें या उनमें परिवर्तन करना पार्लियामेंट के हाथ में
हो? आपसे मुझे यह कहना है कि यह प्रश्न तात्त्विक है, ‘एकडेमिक’ है। क्योंकि ‘पार्लियामेंट कैन डू एनिथिंग-एक्सेप्ट मेकिंग ए मैन ए वुमन एंड ए वुमन ए मैन।’ पार्लियामेंट स्त्री को पुरुष नहीं बना सकती और पुरुष को स्त्री नहीं बना सकती, पर इसके सिवाय पार्लियामेंट ‘सुप्रीम’ है, वह कुछ भी कर सकती है। यह वस्तुस्थिति है। पर ऐसा रहना चाहिए क्या, यह प्रश्न है।
आप कल्पना करें कि गोरे लोगों का दक्षिण अफ्रीका है, वहाँ की पार्लियामेंट यदि एकमत होकर यह प्रस्ताव पारित कर दे कि यहाँ काले लोगों का प्रवेश नहीं है, तो क्या यह उचित होगा?
लोग कौन हैं ?
मुझसे एक सवाल पूछा गया था कि लोगों में भगवान् होता है, पर ये लोग कौन हैं? लोगों में भगवान् का अर्थ क्या है? दूसरों से मेरी जो अपेक्षां होगी वह मेरा वास्तविक मत होता है। खुद मुझे जो चाहिए वह मेरा मत नहीं होता। असली मत क्या है? मुझे यह जो लगता है कि’ दूसरा ऐसा रहे, वह मेरा असली मत होता है। यानी हम धोखाधड़ी करें तो हमें वह खलता नहीं, लेकिन दूसरा मुझे धोखा न दे यह हर कोई चाहता है और यही लोकमत है। यह मनुष्य की असली आत्मा है। दूसरों में जो हम देखना चाहते हैं वह उसका, सही भगवान् का स्वरूप है। वह उसका आत्मस्वरूप है। उपनिषद् में यह दूसरे अर्थ में कहा है- ‘य एष अक्षिणि पुरुषो दृश्यते’- दूसरे की आँख में जो मनुष्य है, यानी मेरी आँखों में दूसरा आदमी कैसा दिखे यह सही राय है, सही लोकमत है। काला मनुष्य स्कूल में न आये यह सही लोकमत नहीं है। यदि काला आदमी मुझे स्कूल में न आने दे तो?
क्रांति और चारित्र्य
मेरे पास बिड़लाजी जैसी मोटरकार हो यह वासना है। लेकिन मेरे जितना सुख भंगी को मिले यह मेरी आत्मा की आवाज है। जो मुझसे कम सुखी होगा उसके साथ समानता हो। गांधीजी ने इसे ‘कोड ऑफ इंडिविजुल कांडक्ट’ कहा था।’
‘मेरी क्रांति की प्रक्रिया में चारित्र्य को स्थान है।’ बंगाल में और अन्यत्र धनी कम्युनिस्ट हैं और समाजवादी अमीर हैं, तो गांधीजी ने जब यह कहा था कि ‘अरे, ये समाजवादी कैसे? इनके पास तो संपत्ति है।
इनके पास स्वामित्व है।’ तो एक समाजवादी ने कहा था कि ‘मैं संपत्ति छोड़ दूँ तो उससे क्या होगा? उतने से तो कोई समाजवाद होगा नहीं। मैं संपत्ति छोड़ दूँ और गौतम बुद्ध बन जाऊँ उतने से समाजवाद होनेवाला थोड़े ही है?’ और जयप्रकाशजी ने भी लिखा ही था कि ‘हमारे समाजवाद में (वे जब समाजवादी थे तब की यह बात है) – व्यक्तिगत आचरण का स्थान नहीं है, उसका कोई महत्त्व नहीं है।’ गांधीजी ने कहा-‘मेरा समाजवाद व्यक्तिगत आचरण से शुरू होता है।’ उन्हें लोकात्मा को जागृत करना था। यह आत्मा है मनुष्य का। मुझसे ज्यादा जो दुखी है वह मेरी बराबरी पर आये, यह उनकी प्रक्रिया में वैयक्तिक चारित्र्य की प्रेरणा थी।
लोकतंत्र में ‘पार्लियामेंटरी एब्सोल्यूटिज्म‘ एक खतरा है। मतलब यह कि पार्लियामेंट का निर्णय अन्तिम और सम्यक् है। लेकिन पार्लियामेंट की सर्वानुमति भी यदि अन्यायमूलक हो तो वह भी प्रमाण नहीं है, यह गांधीजी का सत्याग्रह दर्शन है। और ‘जॉन स्टुअर्ट मिल’ का स्वतंत्रता का तत्त्वज्ञान भी यही है। सारा संसार एक तरफ हो जाय तो भी, एक व्यक्ति को भी दबा देने का अधिकार संसार को नहीं है।
मालिकी का समावेश हमारे संविधान में दिये गये मूलभूत अधिकारों में है। वह अवांछित है। तो उसे निकाल देना जरूरी है। ‘किरपाण’ रखना भी मूलभूत अधिकारों में है। ‘किरपाण’ रखने का हक सिखों को है। ऐसी कुछ धाराएँ निकाल देने का अधिकार पार्लियामेंट को रहे यह कहना दूसरी बात है, लेकिन किसी भी प्रकार का मूलभूत अधिकार ही रद्द कर देने का अधिकार पार्लियामेंट को रहे- यह प्रतिपादन गलत है। स्वामित्व और संपत्ति का अधिकार सार्वत्रिक नहीं हो सकता। उसमें विषमता के बीज हैं। उसे मूलभूत अधिकारों में समाविष्ट करना ही अविवेक था।
एक प्रश्न यह भी है कि लोकमत कहाँ तक समीचीन या शुद्ध हो सकता है। मैज़िनी ने कहा था कि ‘लोगों की आवाज ईश्वर की आवाज है।’ क्या यह सच है? तब तो पार्लियामेंट का निर्णय भगवान् का निर्णय माना जायेगा?
उत्तर-लोकमत दो तरह का होता है- औपचारिक और वास्तविक। पार्लियामेंट में जो लोकमत प्रकट होता है, वह हमेशा वास्तविक नहीं
होता। तिस पर भी ब्रिटिश पार्लियामेंट के बारे में कहा गया है कि वह सिर्फ पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष नहीं बना सकती, और सब कुछ करने की सामर्थ्य उसमें है। यह संवैधानिक तथ्य है। लेकिन इसमें ‘पार्लियामेंटरी एब्सोल्यूटिज्म’ (पार्लियामेंटरी तानाशाही) के बीज छिपे हैं। कल कोई प्रतिनिधि सभा सर्वसम्मति से यह निर्णय करे कि काले लोगों को गोरों में नहीं बैठना चाहिए या अछूतों को ब्राह्मणों को नहीं छूना चाहिए, तो क्या वह मत शुद्ध और सर्वहितकारी माना जायेगा? प्रातिनिधिक या प्रत्यक्ष लोकतंत्र में भी औपचारिक लोकमत की मर्यादा है।
वैचारिक लोकमत की मर्यादा है
वास्तविक लोकमत की क्या पहचान है? एक मोटी कसौटी बतला सकता हूँ। ब्राह्मण यह तो चाहता है कि अस्पृश्य उसे न छुये, मगर वह हरगिज नहीं चाहेगा कि उसे कोई अस्पृश्य माने। कालों को गोरा आदमी दूर रखना चाहता है, लेकिन गोरा आदमी यह कभी नहीं चाहेगा कि उससे कोई परहेज करे। अमीर गरीब को हीन मानता है, परन्तु यह कभी नहीं चाहेगा कि उसे कोई अपने से नीचा माने। मतलब यह कि हम अपने लिए जो अपेक्षा दूसरों से करते हैं वही वास्तविक हमारी आत्मा की आवाज है। यही हर एक के भीतर बैठे हुए परमात्मा का संकेत है। यही लोकात्मा का कौल है। गांधी की कई बातें बहुसंख्यक नागरिकों को पसंद नहीं थीं। लेकिन उनकी अन्तरात्मा उन्हें नकार नहीं सकती थी। मनुष्यों के संबंधों में इसी का नाम है भगवान् का अधिष्ठान !