संविधान पर बहस के बीच एक नागरिक हस्तक्षेप

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Indian Constitution

Dhruv Shukla

— ध्रुव शुक्ल —

संसद में संविधान पर पहले दिन की बहस सुनते हुए लगा कि हमारे नेता संविधान पर एकाग्र नहीं हो पा रहे हैं। वे तो बस एक-दूसरे के पापों का घड़ा फोड़ रहे हैं। वे संविधान की ओट में अपनी कमियाॅं छिपा रहे हैं। राजनीति और समाज में नीतिगत असहमति लोकतंत्र को निखारती है। पर अब तो इसने व्यक्तिगत निंदा का रूप ले लिया है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए मङ्गलकारी नहीं है। राजनीतिक व्यक्तियों के बीच सत्ता पाने की होड़ में लोकतंत्र का लोक हितकारी रूप विकृत हो रहा है। राजनीति में आपसी समर्थन का आधार व्यक्तिहित और दलहित नहीं, देशहित होना चाहिए।

हमारी राजनीतिक प्रयोगशालाओं से एक-दूसरे पर अविश्वास का वायरस तेजी से बाहर निकल आया है और वह इस बहुविश्वासी और बहुरंगी देश के जीवन की प्रतिरोधक क्षमता को खाये चला जा रहा है। यह अविश्वास का वायरस जिस शरीर में प्रवेश कर जाता है उसमें एक-दूसरे पर दोष लगाकर व्यर्थ ही जीते रहने की आदत पड़ती जाती है। लोग अपने ऊपर कोई राष्ट्रीय जिम्मेदारी लेने को तैयार ही नहीं होते। यह अविश्वास का वायरस सब में अधिकार मांगने की राजनीतिक चतुराई तो खूब विकसित कर देता है पर देश के जीवन के प्रति कर्तव्य को भुला देता है।

देखने में आ रहा है कि जनता की चुनी हुई राज्य सरकारें अपने कर्तव्य से विमुख होकर केन्द्रीय सरकार से लड़ रही हैं। केन्द्रीय सरकार भी राज्य सरकार से भिड़ रही है। इस लड़न्त-भिड़न्त में देश के बेबस और असहाय जनों की आवाज़ सुनायी नहीं पड़ती। ऐसा लगता है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही एक-दूसरे के अन्याय के शिकार हैं। तब जनता की बात कौन सुने? लोकतंत्र और संविधान पर विचार करने वाले लोगों ने यह याद दिलाया है कि हम जो व्यवस्था देश की समस्याएं हल करने के लिए बनाते हैं अगर वही व्यवस्था खुद समस्या बन जाये तब लोकतंत्र चल ही नहीं सकता। यह एक गंभीर विचारणीय प्रश्न है।

कोई भी लोकतंत्र आपसदारी के अध्यात्म से ही दीर्घायु बना रह सकता है। पर यह अविश्वास का वायरस देश के शरीर में नफ़रत से भरी राजनीतिक प्रतियोगिता और विचारशून्य मानसिक आलस्य की उन कोशिकाओं को विकसित करता रहता है जिनके बीच आपसी सद्भाव की नसें-नाड़ियां सिकुड़ने लगती हैं और जिसके कारण लोकतंत्र के लकवाग्रस्त होने का ख़तरा बना रहता है।

हम ‘राजनीतिक :पक्षाघात’ के समय में जी रहे हैं। देश में लोकतंत्र का शरीर ढह रहा है। अगर लोकतंत्र को देश के जीवन में उतार लाने की राजनीतिक अभिलाषा हमारे नेताओं के मन में पल रही हो तो वह इस बात से पहचानी जायेगी कि देश के जीवन से विषमता की बिदाई हो रही हो, जीवन में न्याय की प्रतिष्ठा हो और आपसी बैर का अभाव हो गया हो। देश के लोगों को सिवा अपने मन को जीतने के अलावा किसी और को बलात् जीत लेने की चाह न बची हो। लोग ही आपस में सुरक्षित महसूस करें। लोकतंत्र सामूहिक संयम को साधे बिना चल ही नहीं सकता।

यह सब आपसी विश्वास से ही संभव है। महामारियों के टीके बनते रहते हैं। अब हमें लोकतंत्र के सत्य की प्रयोगशाला में इस अविश्वास की महामारी से बचने का टीका खोज लेना चाहिए। संविधान में आपसी विश्वास की विधि भी बतायी गयी है जो राष्ट्र की अस्मिता को बचाये रखने के लिए बहुत ज़रूरी है।

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