लोक-अवधारणा

0

Rajendra Ranjan Chaudhary

— राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी —

देह स्थूल है और मन सूक्ष्म है लेकिन जैसे देह सत्य है, वैसे ही मन और चेतना भी सत्य है, वे परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। इसी प्रकार से भौतिक और मनोवैज्ञानिक-सत्य भी परस्पर अन्योन्याश्रित हैं और अभिन्न भी हैं। यह सच है कि जीवन में भौतिक-सत्य की आधारभूत भूमिका होती है, लेकिन मनोवैज्ञानिक-सत्य का महत्त्व भी कम नहीं है। स्वर्ग भी संकल्पना है. पाप-पुण्य भी अवधारणा हैं, ईश्वर की भी अनेकानेक अवधारणाएँ हैं- मनोवैज्ञानिक-सत्य। अवधारणा मनोवैज्ञानिक तथ्य है और समष्टिचित्त की स्वीकृति का बल उसके साथ जुड़ा है।

मनोवैज्ञानिक-सत्य के पीछे जब लोकमानस का विश्वास जुड जाता है, तो वह भौतिक-सत्य से भी अधिक शक्तिशाली बन जाता है, जैसे- लोकतन्त्र की अवधारणा के साथ लोगों का विश्वास जैसे-जैसे दृढ हो रहा है, वैसे ही वैसे लोकतन्त्र दृढ़ हो रहा है। मुझे वे दिन याद हैं, जब समाजवाद की अवधारणा का जोर था, संपूर्णक्रान्ति की अवधारणा का जोर था। लोगों के विश्वास की शक्ति प्राप्त करके अवधारणा कितनी शक्तिशाली बन जाती हैं कि इसे लेकर वादविवाद तो नित्य ही होते रहते हैं, लेकिन कभी-कभी हिंसा, संघर्ष और युद्ध भी हो जाते हैं।

अवधारणा या CONCEPT के लिए अनेक विद्वान संकल्पना, परिकल्पना, प्रत्यय, संप्रत्यय, मान्यता भी कह देते हैं। यों तो दर्शन-शास्त्र, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, गणित, भौतिकी में तरह-तरह की अवधारणाएँ हैं और उन अवधारणाओं को लेकर ही अनेक प्रश्नों का समाधान भी किया जाता रहा है लेकिन लोक-जीवन में अवधारणा का महत्त्व इतना अधिक है कि शत-शत अवधारणाएं लोकजीवन का संगठन करती हैं, उसे शक्ति देती है, लोकजीवन का नियमन करती हैं। लोकजीवन को प्रेरित उत्तेजित और संचालित करती हैं। समय की गति के अनुसार अवधारणाओं का विकास भी होता है, परिवर्तन भी होता है और एक अवधारणा का स्थान दूसरी अवधारणा ले लेती है। अनेक अवधारणाओं से मिल कर और-अधिक बड़ी या व्यापक अवधारणा बन जाती है।

सवाल है कि ये अवधारणा क्यों जन्म लेती हैं? जीवन का नियमन कैसे करती हैं? अवधारणा क्यों जन्म लेती है? इसका कारण है मनुष्य की जिज्ञासा। प्रकृति और जीवन को लेकर उसकी जिज्ञासाएँ अनन्त है। इस संसार में इस तरीके से सोचने वाला प्राणी अकेला मनुष्य ही तो है। मनुष्य प्रत्येक कार्य और प्रक्रिया का कारण जानना चाहता है। लेकिन सचाई यह है कि मनुष्य विराट तो है किन्तु जीवन और विश्व के सामने मनुष्य गूलर के उस कीट के समान है, जो कह रहा था कि “विश्व इतना ही है, जितना यह गूलर का फल।” ज्ञानविज्ञान का इतना विकास हुआ है, इतना विकास हुआ है, इतना हो रहा है और आगे भी इतना होगा, यह बिल्कुल सच बात है किन्तु इस सबके बावजूद जीवन और विश्व के संबंध में उसका अज्ञान कल भी था, आज भी है और कल भी बना रहेगा। क्यों? क्योंकि इस विराटप्रकृति के आगे मनुष्य कल भी गूलर का कीट था, और आज भी गूलर का कीट है। मनुष्य के चारों ओर रहस्य ही रहस्य फैला हुआ है। ऐसी स्थिति में उसके मन में असंख्य सवाल उठते हैं। सवाल भी इतने कठिन ? क्यों हुआ है मेरा जन्म? इसी घर में क्यों हुआ? जन्म से ही कोई गरीब क्यों और जन्म से ही अमीर क्यों? यह “मैं ” क्या है? मृत्यु के बाद क्या? मुझे क्यों नहीं मालूम है कि मेरी मृत्यु कब और कैसे होगी? जीवन में अनहोनी घट जाती हैं, जिनकी कभी कल्पना भी नहीं की होगी। क्यों घट जाती हैं? प्रकृति को लेकर अनन्त प्रश्न हैं। ज्ञानविज्ञान अनेक सवालों का उत्तर देता है लेकिन जितने उत्तर देता है, उससे अधिक सवाल पैदा हो जाते हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह सवाल से हार नहीं मानता। उस सवाल का एक समाधान खोज लेता है।

ज्ञात से अज्ञात की व्याख्या करता है। संवेदनाशक्ति, भावना-शक्ति, कल्पना-शक्ति और विचारशक्ति मनुष्य के पास है और मनुष्य इनके आधार पर अवधारणा को गढ़ लेता है। एक मनुष्य अपनी परिस्थिति में सोचता है, वैसे ही दूसरा मनुष्य अपनी परिस्थिति में सोचता है। सोच सकने वाले सभी मनुष्य अपनी-अपनी परिस्थिति में सोचते रहते हैं, निकट वर्ती अवधारणा को मान्यता भी दे देते हैं। अवधारणा ज्ञात से अज्ञात को पहचानने का अथवा व्याख्या करने का एक प्रयास है। प्रत्येक ‘जीवन-पद्धति में कुछ ‘अवधारणाएँ’ होती हैं। भावना का सत्य हो, विश्वास का सत्य हो या चिंतन का सत्य हो मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में वे ‘अवधारणाएँ’ जनपदीय-जीवन को, सामाजिक जीवन को गति भी देती हैं और गति को मर्यादित भी करती हैं। वे अवधारणाएँ प्रकृति और जीवन के प्रति उस समाज की दृष्टि को अभिव्यक्त करती हैं। जब कोई अवधारणा लोकजीवन के विश्वास की शक्ति से प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेती है, तब वह भौतिकशक्ति के समान बन जाती है। लोकस्वीकृत अवधारणा “मनोवैज्ञानिक सत्य” की भूमिका बड़े महत्त्व की है, जो प्रवृत्तियों के अतिचार को नियन्त्रित करने में सहायक होती है।

उदाहरण के लिए महात्मा बुद्ध ने लोकजीवन में प्रचलित अनेक अवधारणाओं की पुनर्व्याख्या की थी। निर्वाण की अवधारणा का प्रतिपादन भी किया।


Discover more from समता मार्ग

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Comment