स्त्री का व्याकरण

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Parichay Das

— परिचय दास —

स्त्री के होने में ही सृष्टि का संगीत है, उसके स्पर्श में वसंत की पुलक, उसकी वाणी में शब्दों का माधुर्य और उसकी दृष्टि में समुद्र की गहराई। वह केवल शरीर नहीं, आत्मा का विस्तार है; केवल भूमिका नहीं, संपूर्ण काव्य है। वह युगों-युगों से धरती का सौंदर्य और आसमान की उड़ान रही है। वह घर की दीवारों में प्रतिध्वनित होने वाला गीत भी है और सभ्यता की प्राचीनतम लिपि भी। उसके अस्तित्व में जीवन की अनगिनत संभावनाएँ हैं, और उसकी चुप्पी में भी एक असंख्य कथाएँ साँस लेती हैं।

सृष्टि की प्रथम रेखा से लेकर आज तक वह समय के गर्भ में पलती रही है, कभी सरस्वती बनकर विचारों को पोषित किया, कभी दुर्गा बनकर अन्याय का प्रतिरोध किया, कभी राधा बनकर प्रेम का सबसे अनोखा व्याकरण गढ़ा, तो कभी मीरा बनकर आत्मा की अनंत प्यास को गीतों में उड़ेल दिया। वह कितनी ही बार जलाई गई, मगर अग्नि में भी कमलवत खिली। कितनी ही बार कुचली गई, मगर उसके पैरों के निशान धरती पर अमिट रहे। वह किसी प्रतिमा में ढलने वाली कोई संरचना नहीं, बल्कि निरंतर बहने वाली नदी है, जो अपने प्रवाह से इतिहास को रचती है।

स्त्री का प्रेम केवल देने में है। वह अपने आपको जलाकर भी उजाला करती है, अपनी हड्डियों को गलाकर भी अन्न उगाती है, अपनी हँसी को गिरवी रखकर भी घर की दीवारों को सुरक्षित रखती है। उसकी गोद में संसार की पहली लोरी गूँजती है और उसी की हथेलियों में जीवन की पहली सीख लिखी जाती है। उसका मौन भी शब्दों से अधिक मुखर होता है और उसकी पीड़ा भी सौंदर्य की सृष्टि कर देती है। वह जो सहती है, वही आने वाली पीढ़ियों की ताक़त बन जाता है।

मगर यह भी सच है कि समाज ने उसे बार-बार एक दायरे में समेटने की कोशिश की। कभी उसे चारदीवारी के भीतर बाँधा गया, कभी उसकी उड़ान को बेमानी ठहराया गया। कभी उसकी देह को हथियार बनाकर उसे ही घायल किया गया, तो कभी उसके मन को कैद में रखने के लिए उसे कमजोर कहकर पुकारा गया। मगर स्त्री ने हर बार इन दीवारों को ध्वस्त किया। उसने वेदों में मंत्र रचे, उसने युद्धभूमि में शस्त्र उठाए, उसने राजसिंहासन पर बैठकर न्याय किया और उसने कविता में वह गहराई जोड़ी, जो किसी भी भाषा को अमरत्व देती है।

वह केवल देवी नहीं, वह मनुष्य भी है। उसे पूजा जाना भर नहीं चाहिए, उसे समझा भी जाना चाहिए। उसके प्रेम को दायित्व नहीं, उसकी स्वतंत्रता को अनमोल धरोहर माना जाना चाहिए। स्त्री दिवस केवल एक दिन नहीं, बल्कि एक सतत संवाद होना चाहिए, जिसमें उसकी आकांक्षाओं को, उसके संघर्षों को, उसके विचारों को सुना जाए। उसे केवल फूलों का सम्मान नहीं, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता भी दी जानी चाहिए।

क्योंकि स्त्री वही है, जो अंधकार में भी दीपक बनकर जलती है। वह वही है, जो समुद्र के किनारे खड़ी होकर भी अपनी ही गहराइयों से अपरिचित नहीं होती। वह वही है, जो प्रेम में अपना सबकुछ न्योछावर कर सकती है, और अन्याय के विरुद्ध युद्ध में सबसे आगे खड़ी हो सकती है। उसकी हर साँस में एक कविता जन्म लेती है, उसकी हर आहट में एक नया युग आकार लेता है। वह केवल किसी एक दिवस की विषयवस्तु नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जीवन का आधार है।

स्त्री दिवस के पार, स्त्री के उत्सव का विस्तार वहाँ तक नहीं जहाँ शब्द समाप्त हो जाते हैं, बल्कि वहाँ से शुरू होता है जहाँ उसकी सत्ता को अभी स्वीकार किया जाना शेष है। वह समय, जो उसे केवल एक दिन की पूजा और एक दिन की प्रशंसा से आगे देखने की दृष्टि नहीं देता, वह समय अधूरा है। स्त्री दिवस का वास्तविक उत्सव तब होगा जब उसे केवल उसके संघर्षों और सहनशीलता के आधार पर नहीं, बल्कि उसकी पूर्ण मनुष्यता के रूप में स्वीकार किया जाएगा।

स्त्री का होना केवल एक सामाजिक संरचना नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और दार्शनिक अनिवार्यता है। वह केवल रिश्तों के दायरे में नहीं, अपने स्व के साथ भी पूरी होती है। उसके भीतर एक अनगिनत आकाश समाए हैं, जिनमें सपनों के सूर्य और विचारों के चंद्रमा अपनी पूरी आभा के साथ चमकते हैं। उसकी देह से परे उसकी चेतना का प्रवाह, उसकी कल्पनाशक्ति की उड़ान, उसकी संवेदना की धारा—ये सब मिलकर उसके अस्तित्व को एक ऐसी महागाथा में बदलते हैं, जिसकी कोई परिधि नहीं।

स्त्री दिवस केवल सम्मान का दिन नहीं, आत्मचिंतन का अवसर होना चाहिए। क्या हम उसे उसकी पूरी समग्रता में स्वीकार कर पाए हैं? क्या उसके लिए बनी सीमाएँ, चाहे वे रीति-रिवाजों में हों, कानूनों में हों या विचारों में, अब भी उसे अवरुद्ध नहीं कर रहीं? क्या उसकी स्वतंत्रता केवल एक अधिकार की मांग तक सीमित रहनी चाहिए, या उसे सहज रूप से उसका स्वत्व मिलना चाहिए?

जब तक स्त्री को प्रेम और समर्पण की मूर्ति मानकर उसके निर्णयों पर प्रश्न उठाए जाते रहेंगे, जब तक उसकी सफलता को किसी पुरुष की छाया या सहयोग से जोड़ा जाता रहेगा, तब तक यह दिवस अधूरा रहेगा। वह केवल त्याग नहीं, निर्माण भी है; केवल कोमलता नहीं, प्रखरता भी है; केवल ग्रहणी नहीं, सृष्टि की प्रथम विचारक भी है।

उसकी कविता में संसार की सबसे गहरी अनुभूतियाँ हैं, उसकी दृष्टि में भविष्य की सबसे उजली संभावनाएँ। वह लोकगीतों में गूँजती है, इतिहास में छिपी रहती है, कथाओं में जीवित रहती है, और फिर भी उसका नाम बार-बार विस्मृत किया जाता है। अब समय है कि स्त्री दिवस को एक दिन के उत्सव से निकालकर पूरे समाज की चेतना में प्रवाहित किया जाए।

स्त्री दिवस से आगे बढ़कर वह क्षितिज देखना होगा जहाँ स्त्री अपने संपूर्ण अर्थ में जीवंत है। जहाँ वह किसी के द्वारा दी गई स्वतंत्रता पर नहीं, अपने भीतर के आकाश पर निर्भर करती है। जहाँ उसकी पहचान केवल किसी की माँ, बेटी, पत्नी या बहन के रूप में नहीं, बल्कि अपने आप में एक सम्पूर्ण ब्रह्मांड के रूप में होती है। जहाँ वह केवल इतिहास की नहीं, भविष्य की भी निर्माता बनती है।

यह दिवस तब पूर्ण होगा जब हम उसे केवल प्रेरणा की प्रतिमा नहीं, विचार की शक्ति के रूप में भी देख पाएँगे। जब उसकी आवाज़ केवल कविता में नहीं, न्याय के मंचों पर भी बराबरी से सुनी जाएगी। जब उसकी उड़ान किसी आकाश की सीमा में बंधी नहीं होगी, बल्कि अनंत दिशाओं में मुक्त होगी। तभी स्त्री दिवस अपने वास्तविक अर्थ तक पहुँचेगा—उस बिंदु पर जहाँ स्त्री केवल एक विशेष दिवस की नहीं, संपूर्ण जीवन की धुरी बनेगी।

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