— कलानंद मनी —
मैं स्वयं पुराणों को धर्मग्रंथों के रूप में मानता हूँ । देवी-देवताओं को भी मानता हूँ। लेकिन पुराणपंथी उन्हें जिस रूप में मानते हैं अथवा जिस तरह हमसे मनवाना चाहते हैं, मैं उन्हें उस तरह नहीं मानता । इन्द्र, वरूण, इत्यादि देव आकाश में रहते हैं , ऐसा भी मैं नहीं मानता ।
आजकल का समाज उन्हें जिस तरह मानता है, उस तरह भी मैं नहीं मानता । किंतु मैं ऐसा मानता हूँ कि देवी-देवतागण अनेक शक्तियों के सूचक हैं । उनका यह वर्णन काव्य है । धर्म में काव्य को स्थान है ।
समुद्र-मंथन इत्यादि के विषय में जिसे जैसा योग्य लगे ऐसा नीति में वृद्धि करने वाला अर्थ बैठा सकता है । पण्डितों ने अपनी अपनी मति के अनुसार इन सब रूपकों के अर्थ लगाये हैं ।
शब्दों, वाक्यों इत्यादि के अर्थ में उसी प्रकार विकास होता रहता है, जिस तरह मनुष्य में । जैसे जैसे हमारी बुद्धि और हृदय विकसित होते हैं, वैसे वैसे शब्द और वाक्य इत्यादि के अर्थ भी विकसित होने चाहिए और होते ही रहते हैं ।
जहाँ लोग अर्थों को मर्यादित कर डालते हैं, उनके आसपास दीवारें खींच देते हैं, वहां समाज का पतन हुए बिना नहीं रहता । अर्थकार और अर्थ इन दोनों का साथ-साथ विकास होता है । सभी अपनी अपनी भावना के अनुसार अर्थ निकालते रहेंगे ।
जो कुछ छपा हुआ है, और विशेषतः संस्कृत में, उस सबको यदि हम धर्म मान बैठें, तो यह धर्मांन्धता अथवा जड़ता ही होगी ।
मैं तो एक ही स्वर्ण-नियम लागू करता हूँ, हम जो कुछ पढ़ते हैं, फिर चाहे वह ‘वेद ‘ में हो, चाहे ‘पुराण’ में अथवा अन्य किसी पुस्तक में, यदि उससे सत्य को आघात पहुँचता हो अथवा हम जिसे सत्य मानते हैं उस पर आघात करता हो, अथवा दुर्गुणों का पोषक जान पड़ता हो तो उसका त्याग कर देना हमारा धर्म है ।
जो वस्तु मुझे निर्विकार कर सकती है, मेरे राग-द्वेष आदि को नरम बना सकती है, जिस वस्तु का मनन मुझे शूली पर चढ़ते हुए भी सत्य पर दृढ़ रखने में सहायक हो सकता है वही वस्तु मेरे लिए धार्मिक शिक्षण हो सकती है ।
यदि हम विश्वास करें कि जो कुछ शास्त्रों के नाम से प्रचलित है वह धर्म है और इसलिए हमें तदनुसार आचरण करना चाहिए तो उसका परिणाम अनर्थकारी होगा । ‘मनुस्मृति’ को ही लें । इसमें कुछ श्लोक तो ऐसे हैं जिनका धर्म कहकर समर्थन किया ही नहीं जा सकता । ऐसे श्लोकों को त्याज्य ही मानना चाहिए ।
मैं तुलसीदास का पुजारी हूँ , ‘रामायण’ को उत्तम से उत्तम ग्रंथ मानता हूँ, किंतु ‘ढोल, गँवार, शुद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी’ में जो विचार निहित है, मैं उसे सम्मानीय नहीं मान सकता ।
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