— ओमप्रकाश दीपक —
निर्गुण सिद्धान्तों की सगुण व्याख्या
समाजवाद को समूचे विश्व के लिए वैध विचारदर्शन बनाने के लिए जरूरी है कि निर्गुण सिद्धान्तों और उनकी सगुण व्याख्या में पारस्परिकता का सम्बन्ध स्थापित हो और यह पारस्परिकता समाजवादी नीतियों, संगठन और कर्म में बराबर व्यक्त होती रहे। यह तभी सम्भव है जब लोकतन्त्र, समता और सम्पन्नता जैसे शब्दों को ठोस अर्थ दिये जाएँ।
लोकतन्त्र का अर्थ न केवल कुछ अमूर्त्त सिद्धान्तों तक सीमित है, न मात्र कुछ औपचारिकताओं तक । लोकतन्त्र की सार्थकता ऐसी पद्धतियों के निर्माण और विकास में ही है जिनके माध्यम से मनुष्य अपनी नियति को खोजने और पाने को स्वतन्त्र हो । इसकी सबसे बड़ी और अनिवार्य शर्त है विकेन्द्रीकरण, जिसमें राज्य-शवित तोड़कर केन्द्र और प्रदेश के अलावा जिला, शहर और गांव के उन समुदायों में बाँट दी जाए जिनमें मनुष्य अपने जीवन का महत्त्व-पूर्ण भाग बिताता है। दूसरे सिरे पर सीमित अधिकारों वाली विश्व-संघ-सरकार की स्थापना हो जो बालिग मताधिकार पर चुनी गयी विश्व-पंचायत के प्रति जिम्मेदार हो।
समता को ठोस अर्थ तभी हासिल होगा जब निजी सम्पत्ति, आमदनी और खर्च को तर्कसंगत सीमाओं में बांध दिया जाए, न सिर्फ राष्ट्रों के अन्दर बल्कि राष्ट्रों के बीच भी, ताकि सारी दुनिया के लोगों में सापेक्षिक समता से अधिकतम सम्भव समता की ओर बढ़ा जा सके। निजी सम्पत्ति की सीमाएं तय हों और उसी तरह निजी आमदनी और खर्च की अधिकतम और न्यूनतम सीमाएं भी । अन्तरराष्ट्रीय समता की ओर पहले कदम के रूप में एक अन्तरराष्ट्रीय निधि की स्थापना हो, जिसमें हर देश अपनी क्षमता के अनुसार दे और अपनी आवश्यकता के अनुसार उसमें से ले सके ।
सम्पन्नता की बहस को मौजूदा उत्पादन पद्धति के द्वारा ही सारी दुनिया में बाहुल्य की मरीचिका और गरीबी की नैतिक उच्चता के झूठे आदर्श के जाल से निकालना होगा। मनुष्य को अपने ज्ञान और हुनर का इस्तेमाल उत्पादन और वितरण की ऐसी पद्धतियों और व्यवस्थाओं के आविष्कार और विकास में करना होगा जिनके अन्तर्गत सम्भव समता के दायरे में सारी दुनिया के मनुष्य अच्छा रहन-सहन हासिल कर सकें और व्यक्तियों में सम्पत्ति का मोह मिटे ।
भारतीय समाजवादी यह मानते हैं कि वेतनभोगी मजदूरों से काम लेने-वाले उत्पादन के सभी साधन राज्य की सम्पत्ति होंगे। निजी स्वामित्व केवल ऐसी सम्पत्ति तक सीमित होगा जिसमें मजदूर न लगें और जिसे मालिक-परिवार के सदस्य ही चलायें । सामाजिक स्वामित्व गांव से लेकर केन्द्र तक विभिन्न स्तरों पर बंटा होगा। समाजीकरण के कार्यक्रम के पहले कदम में कम-से-कम सभी बड़े उद्योग-धन्धों के समाजीकरण और जो विदेशी पूंजी अपना दसगुना या ज्यादा मुनाफा कमा चुकी है उसकी बिना मुआवजा जब्ती का कार्यक्रम शामिल होगा। इसी प्रकार भूमि का निजी स्वामित्व भी प्रति परिवार न्यूनतम आर्थिक जोत के तीन गुने तक अनुपात में सीमित होगा।
समाजवादी यह मानते हैं कि व्यक्ति को मर्यादित उपभोग का अधिकार है, सम्पत्ति के असीमित स्वामित्व का नहीं, और यह भी कि राज्य को सम्पत्ति के बारे में कानून बनाने का पूरा अधिकार है। इसलिए हम समाजी-करण के बदले मुआवजे के सिद्धान्त को बिलकुल अस्वीकार करते हैं। इसके बदले समाजवादी यह मानते हैं कि समाजीकरण के कानूनों से अगर किन्हीं व्यक्तियों के पास जीविका का कोई साधन नहीं बचता तो राज्य उनके पुनर्वास की व्यवस्था करे।
समाजीकरण के अतिरिक्त भी आमदनी और खर्च की सीमाएं बांधना जरूरी है। पहले चरण में ये सीमाएं इस प्रकार बांधी जाएं कि अधिक-से-अधिक निजी खर्च कम-से-कम निजी खर्च के दसगुने से अधिक न हो। कम-से-कम आमदनी और खर्च को बढ़ाने में समय लग सकता है, लेकिन अधिक-से-अधिक खर्च किसी भी हालत में प्रति अर्जक व्यक्ति 1500 मासिक से अधिक न हो, यह कदम तत्काल उठाया जाए और देश का कोई भी व्यक्ति इसमें अपवाद न हो। समान काम के लिए समान वेतन का नियम निरपवाद लागू हो ।
दो-तिहाई पिछड़ी दुनिया में, खास तौर पर भारत में, सामाजिक स्वामित्व के विकेन्द्रीकरण और आमदनी खर्च की सीमा का विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि राष्ट्रीयकरण के नाम पर सरकारीकरण के द्वारा नौकर-शाही के प्रभुत्व का आर्थिक क्षेत्र में विस्तार और सत्तारूढ दकियानूसी राजनीति के मेल से व्यापक भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची को ‘समाजवादी कदम’ नाम देने का छल-भरा अभियान चला है। इस प्रवृत्ति के पीछे देश को सड़ाये रखनेवाली यह असलियस रही है कि नौकरशाही के अफसर, व्यापारी सेठ और दकियानूसी राजनीति के नये सेठ-तीनों ही वर्ग संख्या में बहुत कम होने पर भी मानसिक दृष्टि से खानदानी गुलामों के उस वर्ग से आते हैं जिसने सदियों से हर हुकूमत के साथ मिलकर एक ओर दासवृत्ति को देश में बढ़ाया है और ‘समन्वय’ के नाम पर उसे प्रतिष्ठा दी है, दूसरी ओर वह स्वयं दूसरे नम्बर वा राजा बना रहा है और उसने हर स्थिति में देश की कीमत पर समझौता करके अपनी स्वार्थी शक्ति को बनाये रखा है।
वास्तव में, समता और सम्पन्नता के लक्ष्य के सन्दर्भ में आज सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। निजी क्षेत्र अगर मुनाफाखोर, भ्रष्ट और विलासी है तो सरकारी क्षेत्र फिजूलखर्च होने के साथ उतना ही भ्रष्ट और विलासी है। फलस्वरूप पूरी अर्थव्यवस्था विस्तार-मुखी होने के बजाय हिस्सामार बनी हुई है जिसमें शासक वर्ग अधिक-से-अधिक हड़पने की होड़ में लगा हुआ है। आधुनिकीकरण के नाम पर हवाई अड्डों या खर्चीले होटलों-जैसी चीजों पर राष्ट्र के साधनों को लगाना फिजूल-खर्ची भी है और भ्रष्टाचार भी। प्रशासन के साथ-साथ आर्थिक विकेन्द्री-करण और निजी आमदनी और खर्च पर सीमा लगाकर ही इस शिकंजे को तोड़ा और अर्थव्यवस्था को विकास के लिए मुक्त किया जा सकता है।
समाजीकरण वास्तव में तभी होगा जब उत्पादन के साधनों का स्वामित्व भी केन्द्र और प्रदेश के अलावा जिला, शहर और गांव में घंटे। स्थानीय और क्षेत्रीय उपभोग की वस्तुओं के छोटे और मझोले कारखाने गांव, शहर या जिले की निर्वाचित संस्थाओं की सम्पत्ति हों और उनकी प्रवन्ध वा संचालन समितियों में इन संस्थाओं के अतिरिक्त मजदूरों, वितरकों और उपभोक्ताओं के प्रतिनिधि हों। उपभोग की वस्तुओं के उद्योग-धन्धे प्रदेश और भारी उद्योगकेन्द्र की सम्पत्ति हो सकते हैं। केन्द्र की मिल्कियत वाले उद्योगों में लोकसभा के अतिरिक्त उस प्रदेश की विधानसभा के प्रतिनिधि हों जहां वह उद्योग स्थित हो और प्रदेश की मिल्कियत बाले उद्योगों में सम्बन्धित नगर या जिला पंचायत के प्रतिनिधि हों। सभी प्रबन्ध या संचालन समितियों में मजदूरों, वितरकों और उपभोक्ताओं के प्रतिनिधि रहें। हर हालत में मजदूरों को हड़ताल करने का कानूनी हक हासिल रहे।
विना इस प्रकार मिल्कियत के विकेन्द्रीकरण, लोकतांत्रिक प्रबन्ध तथा निजी आमदनी और खर्च पर सीमा लगाये, उत्पादन के साधनों का सरकारी-करण प्रगतिशील नहीं बल्कि प्रतिगामी कदम रहेगा।
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