2 अप्रैल, 1947 को दिल्ली में एक इंटर एशियन रिलेशंस कान्फ्रेंस हुई थी, जिसमें महात्मा गांधी ने यह भाषण दिया:
“आप सभी दोस्तों ने वाकई जो भारत है, उसे नहीं देखा है। यह कांफ्रेंस भी असल भारत में नहीं हो रही है। दिल्ली, बॉम्बे, मद्रास, कलकत्ता, लाहौर—बड़े शहर होने की वजह से ये सभी पश्चिम से प्रेरित हैं। इससे मुझे एक कहानी याद आती है।
मूल कहानी तो फ्रेंच में थी, लेकिन एक आंग्ल-फ्रेंच दार्शनिक ने मेरे लिए इसका तर्जुमा किया। वह वाकई एक निस्वार्थ आदमी था। वह मुझे ठीक से जानता भी नहीं था, फिर भी वह मुझसे मित्रवत था। दरअसल, वह हमेशा अल्पसंख्यकों का पक्ष लिया करता था। उस वक्त मैं अपने देश में नहीं था। मैं एक निराश और अपमानित अल्पसंख्यक वर्ग का हिस्सा था। उम्मीद करता हूं कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले यूरोपीय ऐसा कहने के लिए मुझे क्षमा करेंगे। मैं कुली मजदूरों का वकील था। उस वक्त कुलियों के लिए डॉक्टर और वकील नहीं होते थे। यह काम करने वाला मैं पहला ही था। शायद आप समझते होंगे कि इस ‘कुली’ शब्द के क्या मायने हैं।
मेरे इस मित्र की मां फ्रांसीसी थी, और पिता अंग्रेज। एक बार उसने मुझसे कहा—”मैं तुम्हारे लिए एक फ्रांसीसी कहानी का अनुवाद करना चाहता हूं।”
एक बार की बात है, फ्रांस के तीन वैज्ञानिक सत्य की खोज में निकले। तीनों एशिया के अलग-अलग हिस्सों में चले गए। इनमें से एक वैज्ञानिक ने भारत में अपनी खोज जारी रखी। वह उस वक्त के तथाकथित शहरों में गया। यह अंग्रेजों और मुगलों के आधिपत्य से पहले की बात है। उसने यहां के कथित ऊंची जाति के लोगों, पुरुषों व महिलाओं को देखा। मगर उसे संतुष्टि नहीं मिली। अंत में थक-हार कर वह एक साधारण-सी कुटिया में जा पहुंचा। वहां उसे उस सत्य के दर्शन हुए, जिसकी उसे लंबे समय से तलाश थी।”
अगर आप वाकई भारत को देखना चाहते हैं, तो आपको यहां के गांवों में बसे दलितों के बेहद साधारण-से घरों में आना होगा। यहां ऐसे सात लाख गांव हैं, जिनमें अड़तीस करोड़ लोग रहते हैं। आप में से कुछ लोग अगर भारतीय गांवों को देखें, तो जो दृश्य देखने मिलेंगे, उनसे आपको खुशी नहीं मिलेगी। यहां पहुंचने के लिए आपको गोबर खुरचना होगा। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ये जगहें कभी स्वर्ग सरीखी हुआ करती थीं। मगर आज ये वाकई गोबर हैं। इतनी बुरी हालत पहले कभी नहीं थी। मैं इतिहास को आधार बनाकर नहीं बोल रहा—जो मैंने खुद अपनी आंखों से देखा, वही कह रहा हूं। मैंने भारत की एक छोर से दूसरे छोर तक यात्रा की है। मुरझाई आंखों से मैंने यहां मनुष्यता की दयनीय तस्वीर देखी है। भारत यहीं बसता है—गोबर से सनी इन मामूली झोपड़ियों में मिलते हैं वे दलित, जिनमें मिलेगा आपको खांटी ज्ञान।
मैं फिर से कहना चाहूंगा कि मैंने अंग्रेज इतिहासकारों की लिखी किताबों से काफी कुछ सीखा है। हम इन इतिहासकारों की किताबें पढ़ते हैं, मगर हम अपनी मातृभाषा या अपने राष्ट्र की भाषा हिंदुस्तानी में नहीं लिखते। हम अपने इतिहास को मूल किताबों की बजाय अंग्रेजी किताबों के जरिये पढ़ते हैं। इसी सांस्कृतिक लड़ाई में भारत खुद को ढूंढ रहा है।
ऐसे विद्वानों में सबसे पहला था जोरास्टर। उसका संबंध पूर्व से था। उसके बाद बुद्ध आए और वह भी पूर्व भारत से थे। बुद्ध के बाद कौन आया? जीसस, वह भी पूर्व से थे। जीसस से पहले मोसेस आए और उनका संबंध फलस्तीन से था, हालांकि उनका जन्म मिस्र में हुआ। और जीसस के बाद मुहम्मद आए। मैं इस क्रम में राम और कृष्ण तथा अन्य प्रकाशपुंजों का जिक्र नहीं कर रहा हूं। मैं उन्हें कम प्रेरणाप्रद नहीं मानता, लेकिन एशिया की इन शख्सियतों की तुलना में व्यक्ति के तौर पर दुनिया में उन्हें कम जाना जाता है। और उसके बाद क्या हुआ? ईसाइयत जब पश्चिम की ओर गई, तो उसे ठीक से नहीं पहचाना गया। मुझे माफ कीजिए कि मुझे ऐसा कहना पड़ रहा है। और अब आगे मैं बोल नहीं पाऊंगा।
इस कहानी को सुनाने का उद्देश्य आपको यह समझाना था कि बड़े शहरों में जो दिखता है, वह असल भारत नहीं है।
जैसा कि मैंने कल भी कहा था कि जो शर्मनाक नरसंहार हो रहे हैं, उनकी स्मृति को अपने जेहन में रखकर भारत से मत जाइए। एशिया के इस संदेश को आप समझें, ऐसी मैं उम्मीद करता हूं। पश्चिमी ऐनक लगाकर या परमाणु बम की होड़ के जरिये सत्य को नहीं जाना जा सकता। मैं केवल आपके दिमाग को नहीं, बल्कि आपके हृदय को जीतना चाहता हूं। लोकतंत्र और निर्धनतम लोगों के जागरण के इस दौर में आप पूरी ताकत से इस संदेश को फैला सकते हैं। अपने शोषण का बदला लेकर नहीं, बल्कि सही समझ के जरिये ही पश्चिम को जीता जा सकता है।”
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