— परिचय दास —
।। एक ।।
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी भारतीय साहित्य के विराट नक्षत्र हैं जिनकी उपस्थिति केवल आलोचना या रचना तक सीमित नहीं है बल्कि वह भारतीय संस्कृति, इतिहास और दार्शनिक चेतना के भीतर गहराई तक व्याप्त है। उनका जीवन और साहित्य, दोनों मिलकर एक ऐसी संगति रचते हैं जिसमें प्राचीन और आधुनिक, लोक और शास्त्र, परंपरा और प्रयोग सब मिल जाते हैं। वे केवल विद्वान नहीं थे, वे एक ऐसे साधक थे जिन्होंने शब्दों को तपस्या की अग्नि में तपाकर जीवन्त कर दिया। उनकी भाषा में जो लय है, वह केवल कथन का शिल्प नहीं बल्कि भीतर से उठती हुई सरस्वती की धारा है। उनका लेखन केवल पढ़ा नहीं जाता, उसे सुनते हुए लगता है मानो किसी मनीषी की वाणी धीरे-धीरे अंतरात्मा में गूँज रही हो।
द्विवेदी जी की उपस्थिति भारतीय साहित्य में गंगा की तरह है—सतत बहती, संस्कार देती और जीवनदायी। वे न केवल हिंदी आलोचना के आकाश में, बल्कि निबंध, उपन्यास और सांस्कृतिक विमर्श में भी उतने ही व्यापक हैं। उनका “आलोचनात्मक विवेक” केवल तर्क का विस्तार नहीं, बल्कि सहृदयता और संवेदना का आलोक है। वे जब कबीर पर लिखते हैं तो ऐसा लगता है जैसे उनकी आत्मा ने कबीर की ज्वाला को अपने भीतर उतार लिया हो। जब वे संस्कृत साहित्य पर दृष्टि डालते हैं तो वहाँ उनकी दृष्टि इतिहास के धूल-धूसरित पन्नों को चमका देती है। और जब वे उपन्यास रचते हैं, तब उसमें इतिहास, संस्कृति और कल्पना की अनूठी त्रिवेणी प्रवाहित होती है।
उनका व्यक्तित्व एक ऋषि-समान था। वे भारतीय परंपरा को केवल संग्रहालय का अवशेष मानकर नहीं देखते थे बल्कि उसे जीवित अनुभव के रूप में ग्रहण करते थे। उनकी दृष्टि में परंपरा का अर्थ जड़ता नहीं, बल्कि सतत प्रवहमान चेतना है। वे मानते थे कि समय बदलता है तो परंपरा भी नए रूप में सामने आती है। यही कारण है कि वे लोक और शास्त्र दोनों को बराबरी से अपनाते हैं। वे गाँव की मिट्टी में गुँथे गीतों को उतना ही महत्त्व देते हैं जितना संस्कृत के श्लोकों को। उनके भीतर भारतीय संस्कृति का विशाल संसार साँस लेता था—बौद्ध ग्रंथों से लेकर नाथ परंपरा तक, वेदांत से लेकर संत साहित्य तक।
उनकी भाषा की एक विशेषता यह है कि उसमें तर्क और काव्य दोनों का सम्मिलन होता है। वे विद्वत्ता को कभी शुष्क नहीं होने देते। उनकी पंक्तियाँ पढ़ते समय लगता है कि कोई गंभीर विचार किसी सुरम्य धुन में ढल गया हो। जैसे—उनका कबीर पर लिखा गया निबंध केवल शोध का परिणाम नहीं, बल्कि आत्मिक संगति का साक्ष्य है। उनकी शैली में ऐसी आभा है जिसमें शास्त्र भी काव्य का रूप धारण कर लेता है। यह विशेषता उन्हें हिंदी आलोचना में अद्वितीय बनाती है।
उनका लेखन केवल अकादमिक नहीं, बल्कि मानवीय है। वे मनुष्य की गरिमा और जीवन की सुंदरता के खोजी थे। चाहे वे इतिहास की विवेचना करें या साहित्य का मूल्यांकन, हर जगह उनके केंद्र में मनुष्य ही है। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं बल्कि जीवन के रहस्यों को उजागर करना है। इसीलिए उनकी आलोचना केवल ग्रंथों तक सीमित नहीं रहती बल्कि जीवन की धड़कनों को भी सुनती है।
उनका व्यक्तित्व अद्भुत संतुलन का प्रतीक था। वे विद्वान भी थे, अध्यापक भी और साथ ही एक ऐसे मार्गदर्शक भी, जो आने वाली पीढ़ियों को रोशनी दिखा सके। उन्होंने शांति निकेतन और बनारस जैसे केंद्रों को अपनी विद्या और विचार से आलोकित किया। उनके विद्यार्थियों के लिए वे केवल गुरु नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन थे। वे जहाँ भी रहे, वहाँ साहित्य और संस्कृति का एक नया वातावरण निर्मित किया।
उनकी उपस्थिति हमें यह बताती है कि साहित्य केवल कागज़ पर लिखा हुआ शब्द नहीं, बल्कि जीवित अनुभव है। जब वे उपन्यास लिखते हैं तो उसमें इतिहास का वैभव और मानवीय संवेदनाएँ साथ-साथ चलती हैं। जब वे निबंध लिखते हैं तो उसमें विचार का तेज और काव्य का माधुर्य साथ-साथ उपस्थित होता है और जब वे आलोचना करते हैं तो उसमें शोध की गहराई और संवेदना की ऊष्मा साथ-साथ मिलती है।
द्विवेदी जी का महत्त्व केवल उनके समय तक सीमित नहीं है। वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं क्योंकि उनका चिंतन हमें जीवन और साहित्य को नए दृष्टिकोण से देखने की शक्ति देता है। उनका लेखन समय की परिधि को पार कर जाता है। वे भारतीय संस्कृति को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते थे और इसी कारण उनकी दृष्टि संकीर्णता से मुक्त और उदात्त है।
उनकी उपस्थिति हिंदी साहित्य के लिए एक आशीर्वाद की तरह है। उन्होंने हमें यह सिखाया कि ज्ञान केवल संग्रह नहीं है, बल्कि वह आत्मा का विस्तार है। उन्होंने यह दिखाया कि परंपरा केवल अतीत की विरासत नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा भी है और उन्होंने यह भी प्रमाणित किया कि साहित्य का कार्य केवल सौंदर्य का आस्वादन कराना नहीं बल्कि जीवन को गहराई से समझने का माध्यम बनना है।
उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हज़ारीप्रसाद द्विवेदी केवल एक लेखक या आलोचक नहीं थे बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना के प्रतिनिधि थे। वे हमारे समय के उस स्वर थे, जिसमें इतिहास की गहराई, संस्कृति की विविधता और जीवन की लय एक साथ गूँजती है। उनके बिना हिंदी साहित्य का आकाश अधूरा होता। वे हमारे साहित्य के ध्रुवतारा हैं—स्थिर, उज्ज्वल और पथप्रदर्शक।
।। दो ।।
द्विवेदी जी के उपन्यासों की दुनिया में प्रवेश करना मानो किसी प्राचीन बस्ती में उतरना है, जहाँ इतिहास की हवाएँ बह रही हैं, संस्कृति की ध्वनियाँ गूँज रही हैं और मानवीय हृदय अपनी अनंत जिज्ञासाओं और संवेदनाओं के साथ जीवित है। उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ केवल एक साहित्यिक कृति नहीं है बल्कि इतिहास और कल्पना का ऐसा संगम है जिसमें गंगा-यमुना की धारा की तरह दो प्रवृत्तियाँ साथ बहती हैं। यहाँ बाणभट्ट केवल एक ऐतिहासिक चरित्र नहीं रह जाता बल्कि हमारे समय का भी साक्षी बन उठता है। द्विवेदी जी ने उसमें संस्कृति के वैभव, राजनीति के संघर्ष और मनुष्य के आत्म-संघर्ष की झलकें दी हैं। उपन्यास की भाषा में शास्त्रीयता का तेज और लोक-जीवन की सादगी एक साथ मिलती है। पढ़ते हुए लगता है कि हम भी उसी युग में खड़े हैं जहाँ संस्कृत साहित्य का वैभव था पर साथ ही जीवन की वास्तविकताओं का स्पंदन भी था।
उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘चारुचंद्रलेख’ प्रेम, सौंदर्य और संस्कृति के अंतर-संघर्ष का अद्भुत आख्यान है। यहाँ इतिहास के भीतर मानवीय भावनाएँ अपनी पूरी नमी और गहराई के साथ उतरती हैं। इसमें प्रेम केवल दैहिक आकर्षण नहीं है बल्कि वह संस्कृति और कला की खोज का हिस्सा है। द्विवेदी जी ने इसमें भारतीय सौंदर्य-बोध को इतिहास और जीवन के सन्दर्भ में बाँधा है। इस उपन्यास में भाषा मानो चाँदनी की तरह बहती है—कभी उज्ज्वल, कभी कोमल, कभी धुंधली और कभी तीव्र।
उनका तीसरा उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ आत्म-खोज की यात्रा है। यहाँ किसी व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि जीवन के प्रश्नों की खोज है। यह उपन्यास भारतीय अध्यात्म और जीवन-दर्शन का प्रतीक है। इसमें यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा है। द्विवेदी जी ने इसमें प्रश्न उठाए हैं—मनुष्य कौन है, जीवन का अर्थ क्या है, संस्कृति का दायरा कहाँ तक है। यह उपन्यास भारतीय साहित्य में अद्वितीय है क्योंकि इसमें कथा की रेखा से अधिक महत्त्व विचार की गहराई को दिया गया है।
उनके निबंधों की दुनिया में उतरें तो ऐसा लगता है जैसे कोई रसज्ञ साधक धीरे-धीरे हमारे कानों में भारतीय संस्कृति का मंत्र फूँक रहा हो। ‘आश्रम प्रणाली’ पर उनका लेख भारतीय समाज के आदर्श और जीवन-पद्धति की ऐसी व्याख्या करता है जिसमें न केवल अतीत की छवि है, बल्कि भविष्य की दिशा भी है। उन्होंने आश्रम व्यवस्था को जड़ परंपरा नहीं माना, बल्कि जीवन के विभिन्न आयामों की सहज अभिव्यक्ति बताया। उनका दृष्टिकोण यह था कि आश्रम केवल धार्मिक संस्था नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की धुरी था।
‘कबीर’ पर उनका स्वर तो मानो अग्नि और अमृत दोनों से बना है। कबीर की वाणी को उन्होंने किसी विद्वान की तरह नहीं बल्कि साधक की तरह समझा। उन्होंने कबीर के भीतर छिपे उस क्रांतिकारी स्वर को पकड़ा जो जाति, पाखंड और अन्याय के विरुद्ध था लेकिन साथ ही उन्होंने कबीर के भीतर की करुणा और मानवता की आँच को भी देखा। उनकी दृष्टि में कबीर केवल एक विद्रोही नहीं बल्कि मानव-धर्म का कवि था।
‘भारतीय संस्कृति की समस्याएँ’ में उनकी दृष्टि अत्यंत व्यापक है। उन्होंने संस्कृति को केवल धर्म या कला तक सीमित नहीं किया बल्कि उसे जीवन की सम्पूर्णता के रूप में देखा। उनके लेखन में यह विश्वास बार-बार सामने आता है कि भारतीय संस्कृति सहिष्णुता, सामंजस्य और विविधता की संस्कृति है। वे इतिहास की गहराइयों से यह सिद्ध करते हैं कि भारतीयता का मूल स्वभाव ही उदारता और आत्मसात करने की क्षमता है।
द्विवेदी जी का निबंध ‘कुटज’ विशेष उल्लेखनीय है। इसमें उन्होंने एक साधारण वनस्पति को लेकर जीवन और प्रकृति के ऐसे आयाम खोल दिए हैं कि पाठक चकित रह जाता है। यह उनकी शैली की अद्भुत क्षमता है—वे किसी छोटे से प्रसंग से भी जीवन का दर्शन निकाल लेते हैं। उनकी भाषा यहाँ अत्यंत ललित और संगीतमयी हो जाती है।
उनके निबंधों की शैली में एक तरह का आभिजात्य है पर वह आभिजात्य केवल शब्दों का नहीं, बल्कि विचारों का है। उनकी भाषा में संस्कृत का गरिमामय छंद है, पर साथ ही उसमें हिंदी की कोमलता और लोक की सहजता भी है। यही कारण है कि उनका लेखन न तो केवल विद्वानों तक सीमित है और न ही केवल सामान्य पाठकों तक; वह दोनों की दुनिया को जोड़ता है।
इस सबके बीच उनकी आलोचना को भी याद करना होगा। वे आलोचना में केवल साहित्यिक मूल्यांकन तक नहीं रहते, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से उसे देखते हैं। उनके लिए साहित्य केवल साहित्य नहीं बल्कि संस्कृति की अभिव्यक्ति है। इसी कारण उनकी आलोचना में साहित्य, समाज और इतिहास—तीनों एक साथ उपस्थित रहते हैं। वे जब रीतिकालीन काव्य पर लिखते हैं तो उसमें केवल रस और अलंकार की चर्चा नहीं करते बल्कि उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को भी सामने लाते हैं। यही उनकी आलोचना को गहराई और ऊँचाई देती है।
इस प्रकार द्विवेदी जी के उपन्यास, निबंध और आलोचना तीनों मिलकर एक विराट सांस्कृतिक व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। वे केवल रचनाकार नहीं बल्कि जीवन-द्रष्टा थे। उनके लेखन में भारतीय संस्कृति की आत्मा गूँजती है। उनके शब्द समय के पार जाकर हमारे भीतर उतरते हैं और हमें सोचने, समझने और जीवन को नए ढंग से देखने की प्रेरणा देते हैं।
।। तीन।।
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों की दुनिया हिंदी साहित्य में एक अनुपम सौंदर्य की तरह है। वे निबंधकार मात्र नहीं, बल्कि एक ऐसे शिल्पी हैं, जिन्होंने निबंध को गद्य की कलात्मक ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उनके निबंध पढ़ते समय लगता है कि विचार किसी काव्यात्मक लय में बह रहा है। यह गद्य है पर उसमें छिपा हुआ एक गुप्त संगीत है, एक ऐसी लय जो पाठक को भीतर तक भिगो देती है। उनके निबंधों में इतिहास है, दर्शन है, संस्कृति है किंतु इन सबसे बढ़कर उनमें एक जीवित जीवन है, जो हर शब्द से साँस लेता है।
द्विवेदी जी के निबंधों में सबसे पहले जिस बात की ओर ध्यान जाता है, वह है उनकी दृष्टि। उनकी दृष्टि केवल सतह पर नहीं ठहरती; वे साधारण वस्तुओं और प्रसंगों में भी असाधारण अर्थ खोज निकालते हैं। उदाहरण के लिए, उनका प्रसिद्ध निबंध ‘कुटज’—यहाँ एक साधारण वनस्पति उनके लेखन में आकर एक विशाल प्रतीक में बदल जाती है। कुटज केवल एक पौधा नहीं रह जाता, वह मनुष्य के धैर्य, करुणा और जीवन-रस का रूपक बन जाता है। यह द्विवेदी जी की निबंध शैली की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे छोटे से छोटे प्रसंग को भी जीवन-दर्शन से जोड़ देते हैं।
उनके निबंधों की दूसरी विशेषता है—शब्दों की काव्यात्मकता। उनका गद्य पढ़ते समय लगता है मानो हम कविता पढ़ रहे हों। उनकी पंक्तियों में संगीत की तरह लय है और दृश्य की तरह चित्रात्मकता। यह केवल विद्वता का बोझिल लेखन नहीं, बल्कि हृदय को छू लेने वाली काव्य-धारा है। वे चाहे कबीर पर लिख रहे हों, चाहे संस्कृत साहित्य पर उनकी भाषा में वह निखार और माधुर्य है जो निबंध को साहित्य का आनंद बना देता है।
द्विवेदी जी का निबंध ‘आश्रम प्रणाली’ इसका उदाहरण है। यहाँ उन्होंने भारतीय परंपरा के आश्रम-जीवन को इस तरह प्रस्तुत किया है कि वह केवल इतिहास नहीं रह जाता बल्कि एक जीवित अनुभव बन उठता है। वे बताते हैं कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास केवल धर्मशास्त्र की बातें नहीं हैं बल्कि जीवन के चार संगीत हैं—हर आश्रम का अपना स्वर है, और इन स्वरों से मिलकर जीवन की संपूर्ण रचना बनती है। यहाँ विचार है पर वह विचार काव्यात्मक बिंबों में ढलकर आता है।
उनकी पुस्तक ‘कबीर’ तो हिंदी निबंध साहित्य की धरोहर है। कबीर का व्यक्तित्व, उनकी वाणी और उनकी क्रांतिकारिता—इन सबको द्विवेदी जी ने जिस गहराई और सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है, वह अद्वितीय है। उन्होंने कबीर को केवल विद्रोही कवि के रूप में नहीं देखा, बल्कि उन्हें मानवीय संवेदना और जीवन-दर्शन के प्रतीक के रूप में समझा। कबीर की साखियों को उन्होंने जिस प्रकार से समझाया, उसमें न केवल विद्वता है बल्कि आत्मीयता भी है।
‘भारतीय संस्कृति की समस्याएँ’ निबंध में उनकी दृष्टि का व्यापक स्वरूप दिखाई देता है। यहाँ वे इतिहास, धर्म, दर्शन और कला—सबको मिलाकर भारतीय संस्कृति की आत्मा को खोजते हैं। वे बताते हैं कि भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी शक्ति है उसकी सहिष्णुता और उसकी बहुलता। यह निबंध केवल शोध का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि एक ऐसी वाणी है जो पाठक को गर्व और गहराई दोनों से भर देती है।
उनके निबंधों में तीसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता है—जीवन का दर्शन। वे केवल अकादमिक लेखन नहीं करते; वे हर निबंध में जीवन के गहरे प्रश्नों से टकराते हैं। उनकी दृष्टि में साहित्य और संस्कृति तभी सार्थक हैं, जब वे मनुष्य को जीवन का अर्थ समझाएँ। इसीलिए उनके निबंधों में हर जगह मनुष्य की उपस्थिति मिलती है—कभी करुणा के रूप में, कभी संघर्ष के रूप में, कभी सौंदर्य के रूप में।
उनका निबंध ‘कालिदास’ इसका उत्तम उदाहरण है। यहाँ वे केवल कवि की प्रशंसा नहीं करते, बल्कि यह दिखाते हैं कि कालिदास के काव्य में किस प्रकार जीवन की कोमलता और प्रकृति की लय गूँजती है। वे कालिदास को केवल संस्कृत काव्य का शिखर कवि नहीं मानते, बल्कि उन्हें भारतीय सौंदर्य-दृष्टि का प्रतिनिधि मानते हैं।
द्विवेदी जी के निबंधों का आकर्षण इस बात में है कि वे विद्वता को बोझिल नहीं बनाते। वे गहन विषयों को इस तरह लिखते हैं कि पाठक रसास्वादन भी करता है और विचार भी करता है। यह द्वंद्व ही उनके निबंधों को जीवंत और कालजयी बनाता है।
उनकी शैली में एक विशेष संतुलन है। वे न तो केवल काव्यात्मकता में डूबते हैं और न ही केवल तर्क में। वे दोनों को मिलाकर ऐसी भाषा रचते हैं, जिसमें विचार भी स्पष्ट हो और सौंदर्य भी। उनकी भाषा संस्कृत-प्रधान होते हुए भी बोझिल नहीं है। उसमें एक लयात्मकता है जो उसे सहज बना देती है।
द्विवेदी जी के निबंधों को पढ़ना मानो एक यात्रा करना है—कभी इतिहास के अंधेरों में, कभी संस्कृति की धूप में, कभी दर्शन के गहरे कुओं में और कभी मानवीय भावनाओं की सरिता के किनारे। यह यात्रा केवल ज्ञान नहीं देती बल्कि आत्मा को स्पर्श करती है। यही कारण है कि उनके निबंध आज भी उतने ही प्रासंगिक और आनंददायी हैं जितने उनके समय में थे।
संक्षेप में कहा जाए तो हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी निबंध को केवल गद्य-रूप में नहीं लिखा बल्कि उसे काव्यात्मकता, दर्शन और संवेदना का ऐसा रूप दिया जो भारतीय साहित्य की धरोहर है। उनके निबंध केवल पढ़े नहीं जाते, वे भीतर उतरते हैं और पाठक को अपने साथ बहा ले जाते हैं। वे निबंधकार होकर भी कवि हैं, आलोचक होकर भी कलाकार हैं और जीवन-द्रष्टा होकर भी साधक हैं।
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों को जब हम “ललित निबंध” की दृष्टि से देखते हैं, तब उनके भीतर छिपा हुआ एक अनूठा सौंदर्यशास्त्र सामने आता है। ललित निबंध केवल विचार का दस्तावेज़ नहीं होता, उसमें सौंदर्य, रस और कला की उपस्थिति आवश्यक है। द्विवेदी जी ने इस कला को उच्चतम स्तर पर पहुँचाया। उनके निबंधों का ललित पक्ष उन्हें सामान्य गद्य से अलग करता है और उन्हें एक काव्यात्मक गद्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
सबसे पहले उनकी भाषा—यह उनकी सबसे बड़ी शक्ति है। द्विवेदी जी की भाषा में एक विशेष लय है। शब्दों का चयन इस प्रकार है कि वे केवल विचार व्यक्त नहीं करते, बल्कि एक दृश्य या ध्वनि रचते हैं। “कुटज” पढ़ते समय कुटज का वृक्ष केवल वनस्पति नहीं लगता बल्कि एक जीवंत चित्र बनकर आँखों के सामने उग आता है। उनकी भाषा में एक आलंकारिकता है पर वह बोझिल नहीं, सहज है। इसमें संस्कृतनिष्ठता है पर उसके भीतर हिंदी की मधुरता और लोक की सहजता भी मिलती है। यही संतुलन उनके निबंध को ललित बनाता है।
दूसरा है चित्रात्मकता और बिंब-रचना। द्विवेदी जी किसी विचार को सीधे-सीधे नहीं कहते, वे उसके चारों ओर एक वातावरण रचते हैं। उनका निबंध पढ़ते समय लगता है कि हम किसी कलात्मक दृश्य के बीच हैं। उदाहरण के लिए, “आश्रम प्रणाली” में वे केवल चार आश्रमों का वर्णन नहीं करते बल्कि ऐसा वातावरण बनाते हैं कि पाठक ब्रह्मचारी के तप, गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ, वानप्रस्थ का संतुलन और संन्यासी का वैराग्य—सबको आँखों के सामने घटित होता देखता है। यह दृश्यात्मकता निबंध को सौंदर्यात्मक ऊँचाई देती है।
तीसरा है संगीतात्मकता। उनकी वाणी में गद्य के भीतर छिपा हुआ एक संगीत है। वाक्य लंबे भी होते हैं, पर उनमें एक प्रवाह है। इस प्रवाह में कहीं रुकावट नहीं आती। जैसे कविता में छंद और लय पाठक को बाँधते हैं, वैसे ही द्विवेदी जी के निबंधों में वाक्य-विन्यास और ध्वनि-संयोजन पाठक को बाँध लेते हैं। उनकी शैली में ‘गद्य-कविता’ का सौंदर्य है।
चौथा है विचार और भाव का संतुलन। ललित निबंध की विशेषता यही होती है कि उसमें न केवल सौंदर्य हो, बल्कि विचार भी हो। द्विवेदी जी इस दृष्टि से आदर्श निबंधकार हैं। उनका हर निबंध विद्वत्तापूर्ण है—इतिहास, संस्कृति, दर्शन की गहराई उसमें है लेकिन साथ ही उसमें करुणा, सौंदर्य और संवेदना भी है। कबीर पर लिखते समय उनकी विद्वत्ता स्पष्ट होती है पर उस विद्वत्ता में करुणा और जीवन-दृष्टि की गहनता भी है। यही भाव और विचार का संतुलन उनके निबंधों को स्थायी बनाता है।
पाँचवाँ है लोक और शास्त्र का मेल। ललित निबंध तभी आकर्षक बनता है जब उसमें व्यापकता हो। द्विवेदी जी के निबंध इस मायने में अद्वितीय हैं कि वे शास्त्रों की गहराइयों में भी जाते हैं और लोक के अनुभवों को भी साथ लेते हैं। वे न केवल संस्कृत साहित्य या दर्शन का विवेचन करते हैं, बल्कि गाँव की मिट्टी, पेड़-पौधे, लोककथाएँ और जनजीवन के अनुभव भी उनकी भाषा में आ जाते हैं। यह मेल उनके निबंध को भारतीयता का जीवंत स्वर बना देता है।
छठा है मानवीयता का स्पर्श। ललित निबंध का सार यही है कि वह जीवन को छू ले। द्विवेदी जी का हर निबंध मानवीय मूल्यों की ओर लौटाता है। “भारतीय संस्कृति की समस्याएँ” में वे इतिहास का विश्लेषण करते हैं, पर अंत में पाठक यह अनुभव करता है कि यह सब मनुष्य के लिए ही है—उसकी गरिमा, उसकी करुणा और उसकी संवेदना को बचाने के लिए।
सातवाँ है आत्मीयता और साधकत्व। द्विवेदी जी के निबंधों में एक साधक की वाणी है। वे केवल अकादमिक दृष्टि से नहीं लिखते बल्कि साधना की गहराई से लिखते हैं। उनकी शैली में एक ऐसी आत्मीयता है जो पाठक को अपना बना लेती है। यही कारण है कि उनके निबंध पढ़ते समय लगता है कि कोई गुरु शिष्य से धीरे-धीरे बातें कर रहा है, कोई संत अपनी साधना का अनुभव साझा कर रहा है।
इन सब विशेषताओं के कारण द्विवेदी जी के निबंध सामान्य गद्य नहीं रह जाते, वे ललित गद्य बन जाते हैं। उनमें शास्त्रीयता है पर वह शुष्क नहीं; उनमें काव्य है, पर वह हल्का नहीं; उनमें दर्शन है पर वह बोझिल नहीं। वे एक साथ गंभीर भी हैं और सौंदर्यपूर्ण भी। यही द्वंद्व और सामंजस्य उनका सौंदर्यशास्त्र रचता है।
इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि द्विवेदी जी ने हिंदी निबंध को केवल विचार का माध्यम नहीं रहने दिया, बल्कि उसे काव्यात्मक गद्य की ऊँचाई दी। उनके निबंधों में जो ललितता है, वही उन्हें स्थायी बनाती है और उन्हें आज भी पढ़ते समय उतना ही आनंद मिलता है जितना सौंदर्यशास्त्र के किसी श्रेष्ठ ग्रंथ को पढ़ते समय।
।। चार ।।
द्विवेदी जी का अध्यापन जीवन अपने आप में एक अद्भुत सांस्कृतिक अध्याय है। वे केवल कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक नहीं थे, बल्कि अपने छात्रों के भीतर एक जीवन-दर्शन जगाने वाले मार्गदर्शक थे। जब वे बोलते थे तो लगता था मानो कोई गंगा धीरे-धीरे बह रही हो और उसकी ध्वनि श्रोताओं के भीतर उतरकर उन्हें शुद्ध और निर्मल कर रही हो। उनकी कक्षाएँ केवल विषय की जानकारी देने का स्थल नहीं थीं, वे साधना के स्थल थीं, जहाँ ज्ञान और संवेदना मिलकर छात्रों के भीतर नई चेतना जगाते थे।
शांतिनिकेतन का उनका समय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वहाँ उन्होंने रवींद्रनाथ ठाकुर की परंपरा को अपने भीतर समाहित किया और विद्यार्थियों को यह समझाया कि शिक्षा केवल पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं होती। शिक्षा का अर्थ है—जीवन को देखना, संस्कृति को समझना और मानवीयता को अपने भीतर गहराई तक अनुभव करना। शांतिनिकेतन के खुले वातावरण में द्विवेदी जी की वाणी मानो वटवृक्ष की छाया जैसी थी—विस्तृत, शीतल और जीवनदायी।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उनका अध्यापन भी अत्यंत प्रेरणादायी था। वहाँ वे केवल हिंदी विभाग के आचार्य नहीं थे बल्कि संस्कृति और साहित्य के ऐसे मार्गदर्शक थे जिन्होंने पूरे विश्वविद्यालय को आलोकित किया। उनके शिष्य कहते थे कि उनकी कक्षाओं में बैठना मानो किसी साधना-गृह में प्रवेश करना है। उनकी बातों में गहरी विद्वत्ता होती थी, पर वह बोझिल नहीं होती। वे गंभीर विषयों को भी सरल भाषा में इस तरह समझाते थे कि शिष्य मंत्रमुग्ध हो जाते।
वे गुरु केवल ग्रंथों के अध्येता नहीं थे बल्कि जीवन के अध्येता थे। वे अपने विद्यार्थियों से कहते थे कि साहित्य का अध्ययन केवल परीक्षा के लिए मत करो, उसे जीवन की समझ के लिए करो। उनके लिए साहित्य का अर्थ था—मनुष्य की आत्मा से जुड़ना। इसीलिए उनके शिष्य जहाँ-जहाँ गए, वहाँ उन्होंने साहित्य को केवल पाठ्यवस्तु नहीं बल्कि जीवन की धड़कन के रूप में अनुभव किया।
उनका व्यक्तित्व भारतीय गुरु-परंपरा का जीवंत रूप था। जैसे प्राचीन काल में आचार्य शिष्य को केवल ज्ञान ही नहीं बल्कि जीवन की दृष्टि भी देते थे, वैसे ही द्विवेदी जी अपने शिष्यों को दृष्टि देते थे। वे अध्यापन में केवल बुद्धि को नहीं, हृदय को भी शामिल करते थे। उनके लिए शिक्षा एक राग की तरह थी—जिसमें स्वर भी हैं, लय भी है और मौन भी है।
उनकी सांस्कृतिक भूमिका भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण थी। वे केवल विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं रहे। वे सेमिनारों, सभाओं और सांस्कृतिक आयोजनों में भी अपने विचारों से वातावरण को आलोकित करते थे। उनकी वाणी में वह शक्ति थी कि जो सुनता, वह अपने भीतर कुछ बदलते हुए अनुभव करता। वे भारतीय संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि थे—ऐसे प्रतिनिधि, जिनकी दृष्टि में विविधता और सामंजस्य दोनों एक साथ थे।
उन्होंने अपने लेखन और भाषणों में बार-बार यह कहा कि संस्कृति केवल अतीत का संग्रह नहीं बल्कि वर्तमान की साँसों में जीवित है। वे भारतीय संस्कृति को किसी म्यूज़ियम की वस्तु नहीं मानते थे। उनके लिए संस्कृति का अर्थ था—जीवन का सतत प्रवाह, जिसमें पुराना और नया मिलकर आगे बढ़ते हैं। यही कारण था कि वे परंपरा के प्रति सम्मान रखते हुए भी नवीनता को अस्वीकार नहीं करते थे।
उनके व्यक्तित्व का एक बड़ा आकर्षण उनकी विनम्रता थी। जितने बड़े विद्वान थे, उतने ही सरल भी। उनके साथ रहने वाले बताते हैं कि वे किसी शिष्य से कभी अहंकारपूर्ण व्यवहार नहीं करते थे। वे सबके साथ उतनी ही आत्मीयता से मिलते थे। यही कारण है कि उनके शिष्य आज भी उन्हें केवल ‘आचार्य’ नहीं, बल्कि ‘गुरु’ मानते हैं।
उनका जीवन एक सच्चे शिक्षक का आदर्श है। उन्होंने दिखाया कि अध्यापन केवल पेशा नहीं, बल्कि साधना है। एक गुरु का कार्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि अपने शिष्यों के भीतर वह दीपक जलाना है जो जीवन भर उन्हें राह दिखाता रहे। द्विवेदी जी के शिष्यों के जीवन में वह दीपक आज भी जल रहा है।
यही उनकी सबसे बड़ी सांस्कृतिक भूमिका है—वे अपने समय से बहुत आगे तक रोशनी फैला गए हैं। उन्होंने न केवल अपने ग्रंथों और निबंधों से बल्कि अपने अध्यापन और व्यवहार से भी आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। वे आचार्य होकर भी साधु थे, विद्वान होकर भी विनम्र थे और शिक्षक होकर भी जीवन-द्रष्टा थे।
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