कल संसद का सत्र स्थगित हुआ। सभी सांसद अपने-अपने घर वापस लौटे। सरकार को जो मनमानी करनी थी, की, लेकिन पहली बार प्रधानमंत्री को विपक्ष के ज़ोरदार नारे से मुलाक़ात हुई—
“वोट चोर, गद्दी छोड़।”
ग्यारह वर्षों में उन्हें ऐसे विरोध का सामना नहीं करना पड़ा था। पक्ष सन्नाटे में था। विपक्ष आक्रामक था। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला नैतिकता का पाठ पढ़ा रहे थे। वे संसद की गरिमा पर भाषण उगल रहे थे।
सत्र समाप्त होते ही फ़ेसबुक पर एक तस्वीर तैरने लगी जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला आदि बैठे हैं। सभी उदास। आपस में कुछ बोल भी नहीं रहे। पता ही नहीं चल रहा कि ये लोग क्यों बैठे हैं? वे मिल रहे हैं या शोक सभा मना रहे हैं या मनाने की तैयारी कर रहे हैं—कुछ पता नहीं चल रहा।
अंधा युग की याद
मुझे धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ की याद हो आयी।
हर रोज़ महाभारत की लड़ाई में कौरव लौट कर अपने शिविर में लौटते हैं—उदास, थके हुए, कालिमायुक्त।
एक स्थल पर विदुर कहते हैं—
> “मर्यादा मत तोड़ो।
तोड़ी हुई मर्यादा,
कुचले हुए अजगर-सी
गुंजलिका में कौरव-वंश को लपेट कर
सूखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी।”
विदुर की बात नहीं सुनी किसी ने, न ही कृष्ण को सुनना पसंद किया।
“जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है” — रश्मिरथी (रामधारी सिंह दिनकर)
सत्ता और मर्यादा का प्रश्न
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह या लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला मर्यादा की बात करते हैं, तो हँसी भी नहीं आती। अंदर से एक ही आवाज़ आती है कि धरती पर शर्म भी नहीं बची।
जब विधायक ख़रीदकर विपक्षी सरकारों को गिरा रहे थे, तब मर्यादा कहाँ थी?
जब भ्रष्टाचारियों को गले से लगा रहे थे, तब मर्यादा तेल लेने गयी थी।
जब बड़े-बड़े पदों पर बिना विज्ञापन के लैटरल नियुक्तियाँ कर रहे थे, तब मर्यादा कहाँ थी?
2018 से अब तक 63 नियुक्तियाँ की गईं, जिन्हें संयुक्त सचिव, निदेशक, अवर सचिव जैसे बड़े पद दिए गए।
चुनावी बॉन्ड के ज़रिए करोड़ों वसूले, तब मर्यादा कहाँ थी?
पीएम केयर फंड का हिसाब नहीं दिया, तब मर्यादा कहाँ गई?
चुनावों में झूठे वादे किए, तब मर्यादा के नाम पर चेहरे पर शिकन तक नहीं आयी। स्वदेशी की बात करनेवाले विदेशी उत्पादों में डूब गए। अब भरोसा कौन करेगा? कैसे करेगा? और क्यों करेगा?
खोदी हुई खाई
प्रधानमंत्री जी और गृहमंत्री जी, जो खाई आपने खोदी है, उसमें आपको डूबना ही है।
कितनी शर्म की बात है कि प्रधानमंत्री अपनी डिग्री नहीं बता सके। उन्होंने कौन सी डिग्री ली है? क्या प्रधानमंत्री नहीं जानते कि उन्होंने कितनी पढ़ाई की? जो व्यक्ति यह नहीं बता सकता, उससे कोई देशहित की उम्मीद करे—तो गलती प्रधानमंत्री की नहीं है। मुझे कभी नहीं लगा कि वे देश के लिए काम करेंगे, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा करेंगे।
पैंतीस वर्ष भीख माँग कर खाया, स्टेशन पर चाय बेची—ना जाने कितनी झूठी कथाएँ अपने बारे में रचते रहे। अंत में उन्होंने यह भी कहा कि वे नॉनबायलोजिकल हैं। उनके भक्त उन्हें विष्णु का अवतार बताने लगे। देश में चमचे-बेलचे की कोई कमी तो है नहीं। जहाँ शक्ति देखी, वहाँ चिपक गए।
अंधेरा और दुर्भाग्य
यह देश विचित्रताओं से भरा है। अगर तेज रफ़्तार की रौशनी है, तो अँधेरा भी उतना ही गहरा है। कितना दुर्भाग्य है कि सत्ता में बैठे लोग अपने ही नागरिकों को लड़ाने लगे। देश में शांति और तरक्की कैसे क़ायम रहेगी, अगर मन में दूषण हो?
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