25 अगस्त 2025 को लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण अभियान के पर्यावरण ग्रुप द्वारा माननीय रवि चोपड़ा, देश दुनियां के जाने-माने पर्यावरणविद और सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एक्टिविस्ट का उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बाढ़ के हालातों पर व्याख्यान रात 9 बजे से 11 बजे तक आयोजित हुआ। इसमें प्रोफेसर आनंद कुमार, श्री दीपक ढोलकिया, श्रीमती संध्या, श्री राम सरन, श्री वीरेंद्र, श्री मंथन पूनम, श्री अशोक, हिमाचल कुल्लू से डॉ. कुलराज सिंह कपूर और श्री नेक राम, पद्मश्री श्री दिनेश इत्यादि 40 बुद्धिजीवी और सामाजिक सरोकारी महानुभाव उपस्थित हुए।
डॉ. रवि चोपड़ा ने बताया कि तकरीबन 10 करोड़ वर्ष पहले भारत की भूमि अफ्रीकन कॉन्टिनेंट से अलग होकर एशिया कॉन्टिनेंट के साथ मिली और इस घटनाक्रम में एशिया कॉन्टिनेंट से जबरदस्त टक्कर से हिमालय पर्वत का उभार हुआ। और यह दबाव लगातार बना हुआ है, यही कारण है कि अभी भी हिमालय ऊपर उठ रहा है। हिमालय क्षेत्र में फॉल्ट लाइन हैं यानी बीच-बीच में दरारें हैं। हिमालय यंग माउंटेन है और बहुत ही फ़्रैजाइल है, यानी थोड़ी-सी भी हलचल से गिर जाने वाला भूखंड है। पिछले डेढ़ सौ सालों से औद्योगिकरण की वजह से धरती का तापमान बढ़ रहा है, इससे धरती पर मौसम में बदलाव आ रहे हैं। इसका उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ रहा है, जिस वजह से बहुत बड़े स्तर पर ग्लेशियर पिघलकर बर्फ समुद्र में तैर रही है और पानी के रूप में मिल रही है। इससे समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है और उससे वनस्पति और जीवों पर विपरीत असर देखने को मिल रहा है। तीसरा सबसे बड़ा प्रभाव हिमालय क्षेत्र, जो जम्मू कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक फैला है, पर देखने को मिल रहा है। हिमालय क्षेत्र में बाहरी हिमालय शिवालिक क्षेत्र है जिसकी चौड़ाई 20 किलोमीटर के लगभग है और यह हजार मीटर ऊंचाई तक है। इसी प्रकार मध्य हिमालय 3 से 4 हजार मीटर ऊंचाई तक लगभग 30 से 40 किलोमीटर क्षेत्र तक फैला है और फिर इनर हिमालय 8 हजार मीटर की ऊंचाई तक फैला क्षेत्र है। इनर हिमालय में बर्फ हिमखंडों या ग्लेशियर के रूप में जमी है। धरती के बढ़ते तापमान की वजह से हिमखंड पिघल रहे हैं और बड़ी जल्दी से सिकुड़ रहे हैं। हिमालय क्षेत्र से हजारों नदियां निकलती हैं, जिसमें गंगा, जमुना, सतलुज, रावी, झेलम यानी सिंधु, ब्रह्मपुत्र इत्यादि इन ग्लेशियर से ही निकलती हैं और पूरे साल बहती हैं। बरसाती नदियां भी हैं जो इन नदियों से मिलती हैं। प्राकृतिक रूप में मौसम के प्रभावों से यह नदियां निचले क्षेत्रों को सींचती हैं, वहीं बाढ़ से नुकसान भी करती हैं।
पिछले वर्षों में, विशेषकर आजादी के बाद, इन नदियों पर बांध बनाए गए हैं। इससे नदियों के प्रवाह पर विपरीत असर देखने को मिले हैं और भारी मानवीय हस्तक्षेप से पहाड़ों को क्षति पहुंची है। दूसरी तरफ, 1850 के बाद अंग्रेजी हुकूमत के समय से जंगलों को काटने का सिलसिला शुरू हुआ, वह अभी तक चला हुआ है। साथ में स्थानीय लोगों द्वारा खेती और फिर बागबानी के लिए भी जंगली क्षेत्र को घटाया गया है। इससे धरती नंगी हुई है और मिट्टी बहने का सिलसिला तेज हुआ। फिर विकास के कारण सड़कों का जाल बिछना शुरू हुआ। रेल को भी पहाड़ों में पहुंचाने का सिलसिला तेज हुआ है, सुरंगे बनी हैं। रोजीरोटी को बढ़ावा देने के लिए पर्यटन की दृष्टि से पहाड़ी इलाकों को तैयार किया जा रहा है और दिनों-दिन इसकी डिमांड बढ़ती जा रही है। इसी कड़ी में उत्तराखंड में चारधाम के लिए सड़कें चौड़ी करने की योजना ने बहुत बड़े पैमाने पर पहाड़ों से छेड़छाड़ की है। इससे बहुत बड़े स्तर पर लैंड स्लाइड हो रही है। बदलते मौसम की वजह से वर्षा का वेग भी बढ़ा है, जिसे लोग बादल फटने की संज्ञा दे रहे हैं। ऊपर के क्षेत्रों में हिमखंड पिघलने से झीलें बन रही हैं और जब इनमें ज्यादा पानी होता है तो ये भी मिट्टी-पत्थर को साथ लाती हैं और भयंकर बाढ़ का रूप धारण करती हैं। जहां हिमखंड सूख गए हैं यानी सिकुड़ गए हैं, वहां पर बहुत बड़े स्तर पर मिट्टी, पत्थर, चट्टानें होती हैं, जो ज्यादा बरसात होने पर ज्यादा स्लोप होने की वजह से तीव्र गति से बहने लगती हैं। इसी वजह से गांव के गांव, जो इन नदियों के किनारे बसे हैं, बाढ़ की चपेट में आते हैं। पिछले जोशीमठ और अब जो बड़े हादसे हुए हैं, वे इन्हीं के परिणाम स्वरूप हुए हैं। हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर की भी स्थिति यही है। कहने का मतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से यह घटनाएं ज्यादा हो रही हैं। इसका मुख्य कारण धरती का बदलता मौसम और विकास का गलत तरीका ही है। एक तो लोगों ने बहुत बड़े स्तर पर बिना सोचे-समझे बस्तियां बसाई हैं, सरकारों ने भी बहुत बड़े स्तर पर अपने भवन तैयार किए हैं। डैम बने हैं, इसके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ है। ये सब इन नदियों के रास्तों पर ही हैं और जब भी बाढ़ आती है तो विनाश का कारण बनती है। भूस्खलन से कई बस्तियां जमींदोज हो रही हैं।
सहभागियों द्वारा प्रश्न पूछने पर रवि चोपड़ा ने कहा कि जो डैम बने हैं, इन्हें हटाया नहीं जा सकता है, पर और बांध न बनाए जाएं, ऐसा उनका मानना है। बिना किसी अध्ययन और विस्तृत जानकारी के बड़ी-बड़ी योजनाएं भी नहीं बननी चाहिए। जो ठेकेदारी सिस्टम है उससे भी बड़े स्तर पर प्रकृति से छेड़छाड़ हो रही है, इस पर भी अंकुश लगने की जरूरत है। कुल मिलाकर, जो आजकल हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू कश्मीर में बरसात में जान-माल का नुकसान हो रहा है, यह ज्यादातर मनुष्य द्वारा ही निर्मित है। इसे समय रहते व्यापक स्तर पर बदलाव लाकर और स्थानीय जनता को जागरूक कर और उनके सहयोग से सुधारने की जरूरत है। पर्यटन को भी पहाड़ों की क्षमता मुताबिक ही रेग्यूलेट करने की जरूरत है। वनों को स्थानीय लोगों के सांझे प्रयासों से पुनरुत्पादित यानी दोबारा अपने पहले स्वरूप में लाना है, जिससे जल-जंगल-जमीन-आदमी-जानवर में सामंजस्य बने।
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