— शुभनीत कौशिक —
हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ के अक्टूबर 1936 के अंक में समाजवादी नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया का एक लेख ‘पर-राष्ट्र-नीति’ शीर्षक से छपा था। तब देवी दत्त शुक्ल और श्रीनाथ सिंह ‘सरस्वती’ के सम्पादक थे। डॉक्टर लोहिया द्वारा हिन्दी की किसी पत्रिका में लिखे गए आरम्भिक लेखों में से एक यह है लेख। सम्पादक-द्वय ने सरस्वती के पाठकों से डॉक्टर लोहिया का परिचय कराते हुए लिखा था ‘इस लेख के लेखक श्रीयुत लोहिया जी बर्लिन के पी०एच०डी० हैं। इस समय ये कांग्रेस के वैदेशिक विभाग के मंत्री हैं। इन्होंने पर-राष्ट्र-नीति के राजनैतिक रूप का इस लेख में बहुत ही सरल ढंग से विश्लेषण किया है, जो रोचक और बोधगम्य है।’
अपने इस लेख में डॉक्टर लोहिया ने विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की तत्कालीन दशा की विस्तार से चर्चा की थी। लोहिया मनुष्य का मनुष्य से सम्बन्ध — आदम-जाति का सम्बन्ध को सर्वोपरि रखते हैं। लेकिन राष्ट्र-राज्यों ने जिस विदेश नीति को तरजीह दी, उसकी हक़ीक़त बताते हुए लोहिया ने लिखा कि इस नीति का आधार आदम-जाति का आपसी सम्बन्ध, शान्ति, उन्नति और प्रेम की बुनियाद पर नहीं खड़ा है। बल्कि युद्धमय स्वार्थ और साम्राज्य गुलाम-सम्बन्ध ही इस पर-राष्ट्र-नीति नीति के वास्तविक निर्माता हैं। इस लेख में रूस, फ़्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका समेत दुनिया के तमाम देशों की पर-राष्ट्र-नीति का मूल्यांकन लोहिया करते हैं। लेख में विदेश नीति के सम्बन्ध में कही गई अनेक बातें नौ दशक बीतने के बाद भी उतनी ही प्रासंगिक और सच्ची हैं, जितनी वे तब थीं।]
मनुष्य का आपसी रिश्ता उसे कुटुम्ब में इकट्ठा करता है, पंचायत और जाति के नाते में बाँधता है, एक देश, राष्ट्र अथवा राज्य की उसे एकता देता है। कुटुम्ब, जाति या राष्ट्र का सम्बन्ध काफ़ी मज़बूत सम्बन्ध होता है, इतना मज़बूत कि आदमी सामूहिक फ़ायदे के लिए अपना निजी नुक्सान सहने के लिए राज़ी होता है, कभी कभी तो जान भी न्योछावर कर देता है।
इन सब सम्बन्धों के अलावा एक और सम्बन्ध है, जिसे हम अक्सर भूल जाया करते हैं। वह है मनुष्य का मनुष्य से सम्बन्ध — आदम-जाति का सम्बन्ध। चाहे वह चीनी हो या हिन्दुस्तानी, नीग्रो हो या अँगरेज़, है तो आदमी ही। एक दूसरे के साहित्य, विज्ञान और कला से लाभ उठाने की संभावना है, एक दूसरे के देश की अच्छी बातों का मनन कर खुद और अच्छा बनने की संभावना है, एक दूसरे के गले लगकर सारी दुनिया को शान्तिमय उन्नति की ओर ले जाने की संभावना है।
लेकिन यह नहीं हो पाता। अक्सर युद्ध होते हैं। पिछली ४ बरस की लड़ाई में तो एक करोड़ से भी अधिक आदमी मरे और जब गोला और गैस नहीं भी बरसते रहते तब भी कम से कम उनके लिए तैयारियाँ तो होती रहती है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार या ख़रीद-फरोख्त का भी यही उद्देश रहता है कि किसी तरह देश की राजनैतिक और फौजी ताक़त बढ़ती रहे, जिससे व्यापार का फायदा कहीं कम न हो जाय। गरज़ यह कि आदम-जाति का आपसी सम्बन्ध शान्ति, उन्नति और प्रेम की बुनियाद पर नहीं, बल्कि युद्धमय स्वार्थ पर ही अब तक जमा हुआ है।
इसी सम्बन्ध को पर-राष्ट्र-नीति कहते हैं। एक राज्य या राष्ट्र में संगठित समाज का किसी दूसरे समाज के साथ की नीति को पर-राष्ट्र-नीति कहते हैं। यों तो चाहे बतौर मिसाल के इक्के-दुक्के अँगरेज़ या नीग्रो या हिन्दुस्तानी कहीं सफ़र में एक दूसरे से मिल भी जायें, शायद दोस्ती भी हो जायँ, लेकिन समस्त अँगरेज़-जाति का समस्त नीग्रो या हिन्दुस्तानी जाति के साथ व्यावहारिक सम्बन्ध तो उसके राष्ट्र की पर-राष्ट्र-नीति के ही मुताबिक होता है।
इस पर-राष्ट्र नीति की बुनियाद जैसा कि वर्तमान संसार और मानवीय इतिहास अच्छी तरह बताता है, युद्धमय स्वार्थ है, और यह बिलकुल स्वाभाविक भी है। अगर हम राष्ट्र या राज्य की उत्पत्ति और क्रमविकास का अध्ययन करते है तो हमें राष्ट्र की सबसे बड़ी ज़रूरत यह मालूम होती है कि अपने को उत्तरोत्तर मज़बूत बनायें। जब से आधुनिक राष्ट्र बने हैं, और सोलहवीं सदी में फ्रांस, स्पेन और इंग्लिस्तान बन ही चुके थे, तभी से उन्हें अपनी सत्ता, अपनी एकता और बाहरी हमलों से अपनी ज़मीन की रक्षा के लिए जी-तोड़ परिश्रम करना पड़ा है। पहले तो अँगरेज़ों को स्पेन के जहाज़ी बेड़े अर्मडा का सामना करना पड़ा, उसे हराने के लिए ताक़त बढ़ानी पड़ी, और फिर इस डर से कि कहीं और हमला न हो, अपनी राज्य-सत्ता को सिर्फ कायम ही नहीं रखना पड़ा, वरन उत्तरोत्तर बढ़ाना भी पड़ा। अपनी फ़ौज को बढ़ाते रहना, खास ख़ास राष्ट्रों से समय समय पर दोस्ती करते रहना जिससे दुश्मन का अकेले सामना न करना पड़े, दूसरे देशों पर अपनी राज्य-सत्ता का आधिपत्य जमाना जिससे वहाँ के जान और माल भी अपनी हिफाज़त के काम आयें, यह सब कार्रवाइयाँ आधुनिक राष्ट्रों को करनी पड़ी हैं और अब भी करनी पड़ती हैं।
आधुनिक राष्ट्र अगर बढ़ता नहीं. फूलता-फलता नहीं, तो ख़त्म हो जाता है। मुक़ाबिले और मुठभेड़ की दुनिया में रहकर कोई दूसरा चारा भी नहीं है।
मुकाबिले और मुठभेड़ के आधुनिक संसार को जब हम समझने की कोशिश करते हैं तब इमें पर-राष्ट्र-नीति का सबसे बड़ा पाया मिलता है साम्राज्य और गुलाम-राज्य का पारस्परिक सम्बन्ध । हिन्दुस्तान के पैंतीस करोड़, अफ्रीका के छः करोड़, अन्य देशों और द्वीपों के बाशिन्दों की कोई पर-राष्ट्र-नीति है तो वह अंगरेज़ी राज्य से साम्राज्य सम्बन्ध है। इन्डो-चीन तथा उत्तरी-पश्चिमी अफ्रीका का इसी तरह फ्रांस से सम्बन्ध है। जावा-सुमात्रा का हालैंड के साथ है। और चीन के पैंतालीस करोड़ तो अँगरेज़ी राज्य, अमरीका, फ्रांस, जापान के साम्राज्य-सम्बन्ध में गुथे हुए ही हैं, मानो चीन का राष्ट्रीय और साम्यवादी आन्दोलन काफ़ी मज़बूत हो गया है। मतलब यह कि दुनिया का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा, एक अरब (१०० करोड़) से भी ज़्यादा लोग, सिर्फ एक पर-राष्ट्र-नीति जानते हैं और यह है साम्राज्य की सेवा करना, उसकी जान और माल से हिफ़ाज़त करना। इन्हीं में अमरीका के संयुक्त राष्ट्र के एक करोड़ से अधिक नीग्रों लोग भी शामिल है। इन सभों के लिए मानवता का सम्बन्ध सिर्फ एक अर्थ रखता है — साम्राज्य गुलाम-सम्बन्ध । अगर ये लोग दूसरे देश के निवासियों के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करना चाहते हैं, उनके साहित्य, विज्ञान, कला और व्यापार से अपनी तरक्की करना चाहते हैं, तो उन्हें साम्राज्य के तंग, निचले और अक्सर बन्द दरवाज़े के सिवा और कोई मार्ग नहीं।
दुनिया का आधे से ज़्यादा हिस्सा तो यों ही चला गया। बाकी हिस्से की पर-राष्ट्र-नीति की बुनियाद, जैसा हम ऊपर लिख चुके हैं, युद्धमय स्वार्थ है। दुनिया के बड़े राष्ट्र हमेशा इसी फ़िक्र में रहते हैं कि किसी तरह साम्राज्य का विस्तार करें, व्यापार बढ़ावें, अपनी ताक़त और शान दूसरों से ऊँची रक्खें। इसी लिए इनमें समय समय पर मेल-अनमेल, जोड़-बेजोड़ हो जाया करता है। आजकल इन राष्ट्रों के मेल-अनमेल की नीति एक ख़ास तरह की मालूम होती है। एक तरफ तो फ्रांस, रूस, स्पेन जैसे राष्ट्र और दूसरी तरफ जर्मनी और इटली जैसे राष्ट्र है। इंग्लिस्तान की अवस्था छछूँदर जैसी है। फ्रांस आदि का दल राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में प्रगतिशील माना जाता है। यह कैसे? आख़िर फ्रांस का भी साम्राज्य है, उसे भी अपनी रक्षा के लिए ताक़त पढ़ानी पड़ती है।
फ्रांस प्रगतिशील है या नहीं, इसे समझने के लिए हमें रूस की पर-राष्ट्र-नीति पर नज़र दौड़ानी होगी। यह तो शायद सभी मानेंगे कि रूस की पर-राष्ट्र-नीति दुनिया के और राष्ट्रों जैसी नहीं है। रूस को साम्राज्य की ज़रूरत नहीं, न ज़रूरत है उसे ऐसे व्यापार और उद्योग- धन्धे की जिसकी बुनियाद पर-शोषण है। इसका कारण यह है कि रूस की राष्ट्रीय नींव ही बिलकुल असामान्य है, उसमें और अमरीका या इंग्लिस्तान में कोई सामञ्जस्य नहीं। पन्द्रहवीं सदी से अब तक आधुनिक राष्ट्र निर्मित हुए है। फ्रांस, इंग्लिस्तान, अमरीका, जर्मनी, इटली, जापान आदि ऐसे ही राष्ट्र है। उनकी सबसे बड़ी बुनियाद है वैयक्तिक विकास, वैयक्तिक पूँजी, वैयक्तिक उद्योग-धंधा। इन राष्ट्रों में ज़मीन, कल-कारखाने, पूँजी समस्त राष्ट्र की नहीं, किन्तु कुछ व्यक्तियों के अधीन है। पर रूस में ये सब राष्ट्रीय या सामाजिक सम्पत्ति है। इस सारी सम्पत्ति को उद्योग-धंधों में लगाने पर जो नफ़ा होता है वह सारे समाज के काम आता है। और देशों की तरह कुछ ख़ास ख़ास आदमी इस नफ़े के बड़े हिस्से को अपना नहीं पाते, और इस बात की गुञ्जाइश नहीं कि पहले तो अपना समाज ग़रीब बने, फिर और देशों के समाज पर वही हरकत दोहराई जाय। इसी लिए आधुनिक दुनिया में रूस ही अकेला राष्ट्र है, जिसकी पर-राष्ट्र-नीति की बुनियाद युद्धमय स्वार्थ नहीं है।
लेकिन फ्रांस कैसे प्रगतिशील हुआ ? उसकी बुनियाद तो वही है जो जर्मनी या इंग्लिस्तान की है। बात तो ठीक है, लेकिन फ्रांस की मौजूदा सरकार और अधिकांश जनता अगर इस नींव को तोड़ना नहीं चाहती या तोड़ नहीं सकती तो भी कम-से-कम इसके भयानक और खूनी स्वरूप को तो प्रकट नहीं होने देती । फ्रांस में और रूस में विश्व-शान्ति के लिए एक समझौता भी हुआ है। इसी लिए यह कहा जाता है कि तुलनात्मक दृष्टि से फ्रांस प्रगतिशील है। लेकिन इस सिलसिले में कोई अन्तिम बात कह देना गलत होगा। आसार को हम लक्षण नहीं मान सकते। अब फ्रांस की सरकार का इन्डो-चीन या मोरक्को के साथ कैसा बर्ताव रहेगा, ख़ुद अपने देश के गरीब मज़दूर और किसान को कैसे आर्थिक हक़ देगी और विश्व-शान्ति की रक्षा के लिए कैसे उपाय काम में लावेगी, इसका उत्तर तो आज नहीं दिया जा सकता।
मानवता का सम्बन्ध आज साम्राज्य-गुलाम और युद्धमय स्वार्थ की बुनियाद पर रची हुई पर-राष्ट्र-नीति के कुत्सित रंग में रंगा हुआ है। किस संवत् में संसार इस कलंक को मिटा पायेगा, कहना मुश्किल है। लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है, दुनिया के एक अरब से भी ज़्यादा लोग जाग तो ज़रूर गये हैं, खुद मज़बूत साम्राज्यवादी राष्ट्रों के मज़दूरों और गरीबों के ख़ास ख़ास गिरोह भी इनसे गले मिलना चाहते हैं। कलंक का मिटना अब सदियों का काम नहीं, वर्षों का ही रह गया है। वह समय ज़रूर आवेगा जब मानवता का सम्बन्ध मनुष्य का सबसे बड़ा सम्बन्ध होगा। वह प्रेम, बराबरी, मिलनसारी, मदद और सहानुभूति की भावनाओं को जगावेगा, जिसमें पर-राष्ट्र और पर-राष्ट्र-नीति की गुञ्जाइश न होगी।
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