रवीन्द्रनाथ टैगोर और शूद्र स्वभाव

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— प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी —

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की जिस तरह शुरुआत की है और उसे अपना प्रधान कार्यक्रम बनाया है उसके दार्शनिक और सामाजिक फलितार्थों की ओर हमारा ध्यान नहीं गया है। हम मीडिया बाइटस देखकर खुश होते रहे हैं और ,वाह-वाह करते रहे हैं। मोदी का स्वच्छ भारत अभियान वस्तुतःझाडूदेने वाले की पहचान का अपहरण है साथ ही उसके दंश,पीड़ा,अपमान आदि पर परादा डालने की चालाकीभरी कोशिश है। इस प्रसंग में मुझे रवीन्द्र माथ टैगोर के ‘मॉडर्न रिव्यू’ में छपे प्रसिद्ध निबंध ‘शूद्र स्वभाव’ की याद आ रही है। टैगोर ने लिखा था ,” यद्यपि राष्ट्र को झाडू देने वालों की सेवाओं की अनिवार्य आवश्यकता है ;पर सारी प्रतिष्ठा मन्त्री ही को प्राप्त होती है।मन्त्री चाहे नाममात्र के लिए अपने पद पर प्रतिष्ठित रहे;और चाहे उसे एक भी कर्त्तव्य का परिपालन न करना पड़े,पर तो भी सारा सम्मान उसी को प्राप्त होता है।यदि भाग्य कहीं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को उसकी स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में सहायता प्रदान करता;और सभी झाडू देने वाले मन्त्री हो जाते,तो उसका परिणाम केवल इतना ही न होता कि झाडू का कार्य एक बार ही स्थगित हो जाता ;वरन् राजनीति का कार्य भी उत्तम रीति से अग्रसर न हो पाता;पर क्योंकि झाडू,देने वाले की राष्ट्र को अनिवार्य आवश्यकता है,इसलिए अपने दुर्भाग्य की बलात् स्वीकृति से उत्पन्न होने वाली उसकी अवमानना की संवेदना सदा ही बनी ही रहती।”

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘शूद्र -स्वभाव’ के नाम से उन एटीट्यूट और आदतों की ओर ध्यान खींचा है जिनके कारण हमें दासता,वर्चस्व अच्छे लगते हैं। अछूतभाव पसंद है। वे समूची समस्या को आदतों और संस्कारों के दायरे में ले जाकर रेखांकित करते हैं।शूद्र-स्वभाव की धुरी है हमारा हिन्दू धर्म महान है, अन्य का धर्म भयंकर है।

टैगोर ने यह भी लिखा ” प्राचीन भारत ने इस प्रकार उत्पन्न होने वाली समस्या की मीमांसा वृत्तियों को परम्परागत बनाकर की थी । राष्ट्र के द्वारा किए जाने वाले बलात्कार ही में दासत्व की अवमानना रहती है;और उसीसे विप्लव का अंकुर पैदा होता है।इस मीमांसा में धर्म का बलात्कार था;अर्थात् अपनी जाति की वृत्ति को परिपालन करना अनिवार्य धार्मिक कर्त्तव्य कहकर निर्दिष्ट किया गया था।”

टैगोर ने सवाल उठाया है कि ”त्याग” से आखिर किसे लाभ मिला है ?पुराने जमाने में हम धर्म के नाम पर ”त्याग’ की मांग करते थे, नए जमाने में देश के नाम पर त्याग की मांग करते हैं, इस ‘ त्याग ‘ के प्रपंच से सवर्णों को तो पहले भी सम्मान मिलता था और आज भी सामाजिक सम्मान मिलता है लेकिन असवर्णों और खासकर झाडूदेने वाले को कोई सामाजिक सम्मान नहीं मिलता,उन्हें तो मात्र आत्म-परितोष प्राप्त होता है। हमारे देश में स्वच्छता अभियान से प्रधानमंत्री की कीर्ति बढ़ी है लेकिन झाडूदेने वालों की कीर्ति नहीं बढ़ी है। वे आज भी बदतर अवस्था में जी रहे हैं।

एक अन्य समस्या है कि हम सब ‘आजीविका’ के लिए अनेक काम करते हैं, जिनसे हमें सामाजिक-सम्मान भी मिलता है, लेकिन शूद्रों को ”आजीविका” के लिए कोई झाडू लगाने से कोई सामाजिक-सम्मान नहीं मिलता। इस प्रसंग में टैगोर ने लिखा है ,” अपनी आजिविका को अपना धर्म मानना वहीं सम्भव हो सकता है,जहाँ व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा समाज का लाभ अधिक गरिष्ठ माना जाता है।लौकिक दरिद्रता को स्वीकार करके भी यदि ब्राह्मण अपने आदर्श को पूर्ण पवित्रता के साथ पालन कर सकता है,तो उसकी यह वृत्ति उसकी आजीविका की साधन भले ही हो;पर वह उससे ऊँची उठ जाती है;क्योंकि वह उसके द्वारा समाज की सेवा करता है।किसान के सम्बन्ध तक में भी यही बात कही जा सकती है ; क्योंकि अन्न का सामूहिक उत्पादन सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक है,इसलिए यदि किसान उसे अपना धर्म कहकर ग्रहण करे तो उसमें असत्यता नहीं है। यह बात दूसरी है कि इसके द्वारा वह उतनी ऊँची प्रतिष्ठा को न प्राप्त कर सके,जितनी कि ब्राह्मण को प्राप्त होती है। वे वृत्तियाँ ,जिनके पालन करने में मनुष्य के उच्चतर गुणों का भी प्रयोग आवश्यक होता है,स्वभावतःउच्चतर सम्मान की अधिकारिणी हैं। यह सिद्धान्त उन सब लोगों ने,जिनका उनसे सम्बन्ध था आँखें खोलकर स्वीकार किया था। ”

सवाल यह है जाति का आज के दौर में स्वरुप क्या है ? उसकी क्या महत्ता है ? जाति की वोट में महत्ता है, जन्म के समय महत्ता, शादी-ब्याह-मरण आदि संस्कारों के समय महत्ता है। इसके अलावा जाति का कहीं पता नहीं चलता।

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पुरानी एक संस्कृत उत्ति का विवेचन करते हुए जाति के स्वभाव और खासकर शूद्र स्वभाव की मीमांसा की है। लिखा है, ” अभी तक हमारे शास्त्र के वचन हमारे कानों में गूँज रहे हैं-”स्वधर्मों निधनं श्रेयःपरधर्मों भयवहः”-(अपने धर्म में रह कर मर जाना अच्छा,पर दूसरे का धर्म अत्यन्त भयंकर है) परन्तु आज इसका केवल यही अर्थ स्वीकृत होता है कि चाहे कुछ भी हो,प्रत्येक जाति केअपने परम्परागत नियमों का परिपालन करना चाहिए और इसका प्रकृ-पक्ष में यही अभिप्राय है कि संस्कारों के आन्तरिक महत्व अथवा उपयोगिता की ओर कण-मात्र ध्यान न देकर,उनके परम्परागत बाह्य स्वरुपों ही का परिपालन होना चाहिए;और फिर चाहे इस स्वतंत्रता के ह्रास से कितनी ही बड़ी व्यक्तिगत हानि क्यों न हो। ” आगे लिखा ” वे लोग जो,जो अपने कट्टर नेताओं के आदेशों का अन्ध अनुकरण करते हैं,अपने उन कृत्यों को बड़े गौरव की दृष्टि से देखते हैं। यद्यपि उनका यह कृत्य एकान्त असार और असहनीय है।”

पीढ़ी दर पीढ़ी बर्तन बनाते रहना,तेल निकालते रहना;अथवा उच्च जाति के लोगों की सेवा करते रहना-यह सब कोई कठिन काम नहीं है।सच पूछिए तो जितना ही मानसिक ह्रास होता जाता है,उतना ही यह सब कार्य सरल होते जाते हैं;परन्तु शिल्प-कला को समुन्नत करने के लिए बुद्धि के प्रयोग की आवश्यकता होती है; परन्तु जातीय-वृत्ति के पीढ़ी दर पीढ़ी परिपालन से जब इसका विनाश हो जाता है,तब मनुष्य केवल मशीन के समान हो जाता है और बार बार अपनी आवृत्ति करता रहता है।”
सवर्णों मनोदशा पर व्यंग्य रेखांकित करते हुए टैगोर ने लिखा , ” परन्तु जो कुछ भी हो, इस समय भारतभूमि में यदि कोई धर्म जीवित है,तो वह है शूद्र धर्म ;और यही एक ऐसी अवस्था है ,जिसे जाति-धर्म की चिरस्थायिता में विश्वास रखने वालों ने आग्रहपूर्वक स्वीकार कर रखा है। और यही कारण है कि हम उन अर्द्धविलायती रमणियों के मुखों से, जिन्होंने बहुत दिनों तक भारत का नमक खाया है; और जिन्हें भी भारतीय क्षार ने खा लिया है,प्रायःइस प्रकार की शिकायतें सुना करते हैं जब ”वे” लौटकर जाती हैं कि वहाँ वैसे दास प्राप्त नहीं होते हैं जैसे कि ‘उनकी निर्वासन भूमि’ में प्राप्त होते थे। वास्तव में आज विश्व में उनके समान मनुष्य कहाँ मिलते हैं,जिनके धर्म ही ने उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी से दास बना रखा है।आघात,अपमान-कोई भी उन्हें अपने धर्म के परिपालन से विरत नहीं कर सकता। उन्होंने यह तो आज तक अभी नहीं जाना कि आत्म-सम्मान को अपना अधिकार समझ कर उसकी जिज्ञासा करना एवं उसे प्राप्त करना किस चिड़िया का नाम है। अपनी शूद्र स्थिति के कर्त्तव्यों के शुद्ध परिपालन मात्र ही में उन्होंने पीड़ितों से आत्म-परितोष की प्राप्ति की है।और आजकल, कभी-कभी दूर देशों से लाई हुई वर्त्तमान जागृति की भावना में यदि वे अपने आप को आत्मस्मृत कर भी देते हैं,तो उनके कट्टर नेतागण शीघ्र ही उनकी मूर्खता सुधार देते हैं।”

टैगोर ने लिखा ” आज भारतवर्ष में अपने शूद्र-धर्म का परिपालन करने वाले शूद्रों की संख्या का आधिक्य है;और इसीलिए भारतवर्ष इस समय शूद्र-धर्म क भूमि हो रहा है। शूद्र-स्वभाव के असह्य भार से दबा हुआ हिन्दू निराशा से व्याकुल होकर व्यथित हो रहा है,किसी प्रकार से भी अभ्युदय की प्राप्ति की स्कीम को,जिसके लिए बुद्धि,विज्ञान और सदाचार की आवश्यकता हो;और जिसकी सिद्धि के लिए हम प्रयत्न करना चाहें, सब से पहले इस भयंकर भार से युद्ध करना होगा।यदि हम कुछ थोड़ी बहुत सिद्धि प्राप्त भी करते हो,तो उस सिद्धि को हमें इस सर्वव्यापी अन्धता के हाथों सुरक्षित रखने के लिए समर्पित करना पड़ता है। और इसी पर हमें गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।”

रवीनद्रनाथ टैगोर ने लिखा ” शूद्र देश और विदेश दोनों जगह अपने धर्म परिपालन करता है;कितने आनन्द और गर्व के साथ वह,अपने ‘नमक’ को अदा करने के लिए अपने आत्मा के आदेश की सीमा तक का उल्लंघन कर जाता है।”

टैगोर ने सवाल उठाया है ” शूद्र-भारत का क्या होगा ? उस समय भी भारत उन श्रृखंलाओं में, जो इंग्लैंड की फ़ैक्ट्रीओं में बनी होंगी,अपने प्राचीन मित्र और पड़ोसी के अंगों को बाँधने के लिए अग्रसर होगा। वह मर जायगा और मारेगा;पर इस सम्बन्ध में एक बार ‘क्यों और कैसे’ नहीं कहेगा;क्योंकि ऐसा करना उसके धर्म के विपरीत होगा। वह कहेगा- ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयःपरधर्मों भयावहः।”

टैगोर ने शूद्र- स्वभाव पर व्यंग्य करते हुए लिखा,” शूद्र के कर्म में न तो स्वार्थ सिद्धि है,न कोई उच्चतर स्वार्थ ही है;और महत्व का ते अणुमात्र भी नहीं है- है केवल इसका अनुकरण-”स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।” अपने धर्म में प्राण त्यागने के अवसरों का उसे अभाव नहीं है;पर उसके मनुष्यत्व का सबसे बड़ा विघातक उसका यह विश्वास है, जिसे वह बड़ी सरलता से स्वीकार कर लेता है कि दूसरों के स्वार्थ की सिद्धि के लिए,दूसरों का विनाश करना उसका धर्म है।यदि सभी विधि के विधान से यह भारत ब्रिटेन के हाथ से जाता रहा,तो उसे सबसे अधिक दुख इस बात का होगा कि ” मेरा श्रेष्ठतम दास छिन गया…।”


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