समाजवाद एक संक्षिप्त विवेचन – राज नारायण

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Raj Narayan

राज नारायण जी पुस्तक के आरम्भ में जनतंत्र, समाजवाद और संक्रमणकालीन अधिनायकशाही की संक्षिप्त व्याख्या करते हैं। उन्होंने लिखा है कि शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता परिवर्तन ही जनतंत्र है। उनका मानना है कि जनतंत्र में आम जनता के पास केवल सत्ता परिवर्तन का अधिकार होना ही पर्याप्त नही है, वरन इसमें अभिव्यक्ति की आजादी और आर्थिक आजादी भी शामिल हैं।

समाजवाद को परिभाषित करते हुए कहते हैं -‘ समाजवाद की साधारण धारणा समानता की विचारधारा से ओत-प्रोत है। ‘
इसी क्रम में वे आगे ए लिखते हैं कि समाजवाद मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास के लिए वह तमाम अवसर प्राप्त होने चाहिए, जो दूसरों को प्राप्त हैं। इसी क्रम में राज नारायण मानते हैं कि समाजवाद की अवधारणा जनतंत्र में ही सफल हो सकती है। किसी भी तरह का अधिनायकवाद या इससे भिन्न अन्य प्रकार के समाजवाद अपने स्वत: की परिभाषा के अनुसार समानता का निषेध है। सीधी सपाट भाषा में समाजवाद किसी तरह की अधिनायकवाद का समर्थन नही करता चाहे पूंजीपतियों का अधिनायकत्व हो या फिर सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व। ऐसी शासन व्यवस्था जो नागरिकों के अभिव्यक्ति के अधिकार पर अंकुश लगाती हो समाजवाद के लिए उचित आधार प्रदान नही कर सकती।

संक्रमणकालीन अधिनायकशाही

लेखक की नजर में समाजवादी साहित्य में सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व शुरू से विवाद में रहा है। मार्क्स ने पेरिस कम्युन के बाद पूंजीवादी व्यवस्था की समाप्ति पर संक्रमणकालीन सर्वहारा की अधिनायकशाही की बात की है, बाद में रूढ़िवादी मार्क्सवादियों ने इस अधिनायकशाही व्यवस्था को स्थायी मान लिया और १९१७ की क्रांति के बाद से अब तक रूस में अधिनायकशाही कायम है।

मार्क्स ने जब भी अधिनायकत्व की चर्चा की थोड़े समय के लिए की है लेकिन बाद के साम्यवादियों ने इसे स्थायी मान लिया। एंजेल्स ने १८९१ में ही इस खतरे को भांप लिया था और कहा था – ‘सर्वहारा की अधिनायकशाही शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति या पार्टी की अधिनायकशाही नही है वरन इसका अर्थ है एक विशेष प्रकार का जनतांत्रिक प्रजातंत्र।’ एजेंल्स के विचार का समर्थन बाद में रोजा लक्जेमबर्ग ने भी किया।


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