अनुवाद दिवस – परिचय दास

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Translation Day

Parichay Das

।। एक ।।

नुवाद दिवस अपने भीतर शब्दों का एक गहरा संगीत लिए हुए आता है। यह केवल एक तिथि नहीं है, बल्कि उन असंख्य पुलों की स्मृति है, जो भाषा से भाषा, संस्कृति से संस्कृति और मनुष्य से मनुष्य को जोड़ते हैं। जब कोई शब्द अपनी मातृभाषा से निकलकर दूसरी भाषा में प्रवेश करता है, तो वह केवल अपना रूप नहीं बदलता, बल्कि वह अपने साथ पूरे जीवन की एक गंध, एक लय और एक संवेदना लेकर आता है। अनुवाद उस गंध और उस लय को सुरक्षित रखने का प्रयास है, ताकि दुनिया का हर कोना एक-दूसरे की धड़कनों को सुन सके।

भाषा स्वयं में एक नदी है, और अनुवाद उसकी धाराओं को मिलाने वाली वह संगम भूमि है, जहाँ अलग-अलग जलधाराएँ एकाकार हो जाती हैं। जिस प्रकार गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम अपने में एक पवित्रता का आभास कराता है, उसी प्रकार अनुवाद में भाषाएँ अपना अहं छोड़कर एक-दूसरे की आत्मा को छूने लगती हैं। यही कारण है कि किसी भी अनुवादित रचना में हमें दो संस्कृतियों का संगीत एक साथ सुनाई देता है—एक वह जो मूल भाषा की आत्मा है, और दूसरी वह, जो अनुवादक की भाषा में नये जीवन के रूप में खिल उठती है।

अनुवाद दिवस उस अनजाने कारीगर का उत्सव है, जो नयी दुनिया के लिए खिड़की खोलता है। अनुवादक शब्दों का माली है, जो एक देश की मिट्टी में उगी हुई कविता को दूसरे देश की मिट्टी में रोपता है और उसका नया फूल खिला देता है। यह फूल भले ही अपने रंग में हल्का-सा बदल जाए, पर उसकी गंध में वही पुरानी मिट्टी की पहचान बनी रहती है। कभी-कभी यह गंध इतनी प्रखर हो जाती है कि पाठक को लगता है जैसे वह स्वयं उस मूल भाषा का निवासी हो। यही अनुवाद का चमत्कार है।

वास्तव में अनुवाद का कार्य केवल भाषा का आदान-प्रदान नहीं है, बल्कि आत्माओं का संवाद है। एक भाषा में कही गई पीड़ा जब दूसरी भाषा में उतरती है, तो वह किसी अनजाने हृदय में भी हलचल पैदा कर देती है। यही कारण है कि रूस का दर्द हिन्दी में गूँज सकता है, जापान की नाजुक संवेदनाएँ बंगला में खिल सकती हैं, और भारत की मिट्टी से निकली हुई आवाज़ें फ्रेंच या जर्मन में वही ताप और वही स्पंदन पहुँचा सकती हैं।

अनुवाद दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि साहित्य किसी सीमा का बंधक नहीं होता। वह राष्ट्रों की दीवारों को पार करता है और अनुवादक उसके पंखों को और भी दूर तक उड़ान देता है। अगर अनुवाद न होता, तो न जाने कितने कवि और लेखक अपनी भाषा की सीमाओं में ही कैद रह जाते। तुलसीदास के रामचरितमानस की गूंज केवल हिंदी पट्टी तक सीमित होती, दोस्तोवस्की का “अपराध और दंड” केवल रूसी हृदय तक सीमित रह जाता, और पाब्लो नेरूदा की कविताएँ केवल चिली की धरती में ही धड़कतीं। पर अनुवाद ने इन सबको विश्व का साझा बना दिया।

अनुवाद दिवस इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि यह हमें विनम्र बनाता है। यह हमें सिखाता है कि कोई भी भाषा सम्पूर्ण नहीं होती। हर भाषा के पास अपनी धरोहर है, अपनी सीमाएँ भी। जब हम दूसरी भाषा से कुछ ग्रहण करते हैं, तो हम अपनी भाषा को और समृद्ध करते हैं। जैसे किसी बगीचे में अलग-अलग रंगों के फूल खिलते हैं और उनका सामूहिक सौंदर्य बगीचे को अद्वितीय बनाता है, वैसे ही अनुवाद से भाषाओं का बगीचा खिल उठता है।

अनुवादक की कठिनाई भी इसी में है। उसे शब्दों से अधिक आत्मा का रूपांतरण करना होता है। कभी-कभी एक शब्द के भीतर छिपे हुए अनुभव को दूसरी भाषा में उतारने के लिए पूरे वाक्य या पूरे दृश्य का सहारा लेना पड़ता है। यही कारण है कि अच्छा अनुवाद केवल शिल्प का नहीं, बल्कि साधना का कार्य है। अनुवाद दिवस उन साधकों को प्रणाम करने का अवसर है, जो अपनी निष्ठा और संवेदनशीलता से हमें पराई भाषा का स्वाद घर बैठे चखा देते हैं।

आज जब दुनिया और अधिक निकट आ रही है, अनुवाद का महत्व और भी बढ़ गया है। यह केवल साहित्य की आवश्यकता नहीं रहा, बल्कि जीवन की आवश्यकता बन गया है। विज्ञान, तकनीक, राजनीति, समाज—सब अनुवाद पर निर्भर हैं। कोई भी आविष्कार, कोई भी विचार तब तक वैश्विक नहीं हो सकता, जब तक वह विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध न हो। अनुवाद इस युग की साँस है, जो मानवता को एक साझा श्वास में बाँधता है।

अनुवाद दिवस इसलिए भी सुंदर है कि यह दिन हमें केवल किताबों की दुनिया में नहीं ले जाता, बल्कि हमें यह भी सिखाता है कि हमें अपने जीवन में भी अनुवाद करना है। हमें दूसरों के दुख को अपनी भाषा में समझना है, दूसरों की खुशी को अपने हृदय में स्थान देना है। यह अनुवाद मानवीयता का अनुवाद है। भाषा से परे जाकर भी यह हमें जोड़ता है।

जब हम अनुवाद दिवस मनाते हैं, तो हम यह स्वीकार करते हैं कि दुनिया एक ही भाषा की नहीं है, बल्कि अनेक भाषाओं की है। हर भाषा एक सितारा है और अनुवाद वह आकाश है, जिसमें ये सभी सितारे एक साथ चमकते हैं। यही अनुवाद का सौंदर्य है और यही उसकी अनिवार्यता।

।। दो ।।

अनुवाद दिवस का विस्तार मानो एक ऐसी नदी है, जिसकी धारा दूर-दूर तक जाती है और अपने तटों पर अनेक सभ्यताओं की मिट्टी को सींचती है। भारतीय परंपरा में अनुवाद का इतिहास बहुत पुराना है। संस्कृत के शास्त्र और काव्य जब क्षेत्रीय भाषाओं में रूपांतरित हुए, तब वह केवल भाषाई रूपांतरण नहीं था, बल्कि वह जन-जन तक ज्ञान पहुँचाने का लोकप्रयास था। वाल्मीकि की रामायण से लेकर तुलसीदास के मानस तक, व्यास की महाभारत से लेकर कश्मीर, बंगाल, तमिल और असम की महाभारतों तक, यह यात्रा अनुवाद की शक्ति का प्रमाण है। अनुवाद ने ही महाकाव्यों को केवल राजाओं और पंडितों की सीमाओं से निकालकर सामान्य जन की थाली तक पहुँचा दिया।

संस्कृत का गूढ़ दार्शनिक साहित्य भी अनुवाद के बिना लोक तक नहीं पहुँच पाता। उपनिषदों और गीता का अंग्रेज़ी और अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद हुआ, तभी पश्चिम के चिंतक भारतीय दर्शन से परिचित हो सके। इसी कड़ी में मैक्समूलर और अनुवादकों की एक लंबी परंपरा सामने आती है। अनुवाद ही वह साधन था, जिसने भारत की आध्यात्मिक परंपरा को विश्व का साझा अनुभव बना दिया।

भारतीय भाषाओं के बीच का संवाद भी अनुवाद की देन है। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा की वाणी जब बांग्ला, मराठी, उर्दू और पंजाबी में पहुँची, तब उसकी अनुगूंज नई संवेदनाओं के साथ और व्यापक हो गई। एक भाषा की कविता दूसरी भाषा में गाकर लोकधुन बन जाती है, और उसका प्रभाव पीढ़ियों तक बना रहता है। यही कारण है कि अनुवाद भारतीय जीवन का स्वाभाविक अंग है।

अनुवाद दिवस हमें यह भी सोचने को प्रेरित करता है कि अनुवाद केवल विद्वानों का काम नहीं है, बल्कि यह जनता की स्मृति में भी जीवित रहता है। लोकगीत, कहावतें और कहानियाँ जब क्षेत्र से क्षेत्र में जाती हैं, तो वे स्वाभाविक रूप से अनुवादित होती रहती हैं। इस अनुवाद में कोई व्याकरणिक शुद्धता नहीं होती, पर उसमें लोक की आत्मा जीवित रहती है। यह आत्मा ही अनुवाद का असली आधार है।

आज का समय अनुवाद को और भी आवश्यक बना देता है। वैश्वीकरण की इस धारा में जब संस्कृतियाँ आपस में मिल रही हैं, तब अनुवाद ही वह सेतु है, जो गलतफ़हमियों को दूर करता है और साझा समझ को जन्म देता है। यदि अनुवाद न हो, तो विज्ञान की प्रयोगशाला का आविष्कार समाज तक नहीं पहुँच पाएगा। अगर अनुवाद न हो, तो किसी दूर देश का साहित्यिक अनुभव हमारी आत्मा को छू नहीं पाएगा।

अनुवाद दिवस हमें यह सिखाता है कि हर भाषा में छिपी हुई संपदा को दूसरी भाषाओं तक पहुँचाना मानो धरती की गहराई से खनिज निकालकर संसार को देना है। अनुवाद वह श्रमसाध्य प्रक्रिया है, जिसमें अनुवादक अपनी संवेदनाओं और समझ को उस मिट्टी में रोपता है, जहाँ एक नया पौधा उगना होता है। यह पौधा भले ही अपने मूल वृक्ष से अलग लगे, लेकिन उसकी जड़ें उसी मिट्टी से जुड़ी रहती हैं, जिसने उसे जन्म दिया।

कभी-कभी अनुवाद मूल से अधिक प्रभावशाली भी हो जाता है। जब किसी विदेशी कविता को हिंदी में पढ़ते हैं, तो लगता है कि वह हमारे ही हृदय की उपज है। यह जादू अनुवाद ही कर सकता है। यही कारण है कि अनुवाद दिवस केवल स्मृति का उत्सव नहीं है, बल्कि यह भविष्य की ओर देखती हुई आशा का उत्सव भी है।

अनुवाद हमें यह अहसास कराता है कि हम सब एक ही मानवता के हिस्से हैं। अलग-अलग भाषाएँ हमारी बाहरी पहचान हैं, पर अनुवाद इन सबके भीतर छिपी हुई आत्मा को सामने लाता है। अनुवाद दिवस उस आत्मीयता की स्मृति है, जो हमें यह कहने का साहस देती है कि कोई भी भाषा पराई नहीं, हर भाषा हमारी ही है।

।। तीन।।

अनुवाद की यात्रा केवल पुल बनाना ही नहीं है, बल्कि यह निरंतर संघर्ष का मार्ग भी है। हर भाषा की अपनी एक आत्मा होती है—उसकी ध्वनियाँ, उसके रूपक, उसकी सांस्कृतिक परतें। जब अनुवादक उन्हें दूसरी भाषा में उतारने की कोशिश करता है, तो सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि आत्मा न खो जाए। एक साधारण-सा मुहावरा, जो अपनी मातृभाषा में सहज और जीवंत है, दूसरी भाषा में अक्सर फीका या अनगढ़ लगता है। अनुवादक को तब शब्दों से आगे जाकर उस भावभूमि को पकड़ना पड़ता है, जहाँ अर्थ छूटकर भी प्रभाव बचा रह सके। यही कारण है कि अनुवाद रचना से कम नहीं, बल्कि कई बार उससे कठिन साधना बन जाता है।

अनुवाद की सबसे बड़ी कठिनाई यही है कि हर भाषा अपनी संस्कृति से बंधी होती है। हिंदी में “मन” का जो अर्थ है, उसे अंग्रेज़ी में पूरी तरह व्यक्त करना कठिन है। संस्कृत में “ऋतु” केवल मौसम नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चक्र है। जापानी भाषा का “हाइकु” केवल कविता की विधा नहीं, बल्कि उनके जीवन का सौंदर्य-दर्शन है। जब इन्हें दूसरी भाषा में ढाला जाता है, तो शब्द केवल वाहक बनते हैं, और अनुवादक को उनके पीछे छिपी संस्कृति को भी पहुँचाना होता है।

अनुवादक की स्थिति कभी-कभी उस गायक जैसी होती है, जो किसी और का गीत गा रहा है, लेकिन अपनी आवाज़ से उसे नया जीवन दे रहा है। मूल की धुन बनी रहती है, पर स्वर कहीं-न-कहीं अनुवादक का हो जाता है। यही कारण है कि अनुवाद केवल पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि पुनर्निर्माण है। अनुवाद दिवस इस पुनर्निर्माण की कला को मान्यता देता है।

फिर भी, यह सच है कि अनुवाद का सौंदर्य उसकी अपूर्णता में ही निहित है। कोई भी अनुवाद पूर्ण नहीं हो सकता। पर इसी अपूर्णता में वह नयी संभावनाएँ खोलता है। जब कोई रचना दूसरी भाषा में आती है, तो उसमें नए पाठक, नए अर्थ और नए संदर्भ जुड़ जाते हैं। यही कारण है कि अनुवाद मूल से अलग होकर भी उसके बराबर का एक नया साहित्य बन जाता है।

अनुवाद की यह प्रक्रिया हमारे समय में और भी अधिक जीवन्त हो गई है। तकनीक ने अनुवाद को सरल बनाया है, लेकिन आत्मा को छूने वाला अनुवाद आज भी मनुष्य के संवेदनशील स्पर्श पर निर्भर है। मशीनें शब्दों का रूपांतरण कर सकती हैं, पर भावों की लय, संस्कृति की परतें और कविता की धड़कन केवल मानव अनुवादक ही पहुँचा सकता है। इसीलिए अनुवाद दिवस केवल एक तकनीकी आवश्यकता का उत्सव नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना की विजय का दिन भी है।

आज के दौर में जब भाषाएँ धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं, अनुवाद का महत्व और बढ़ गया है। हर अनुवाद एक भाषा के अस्तित्व को बचाए रखने का प्रयास भी है। जब किसी जनजातीय कविता का अनुवाद हिंदी या अंग्रेज़ी में होता है, तो वह केवल एक कविता का रूपांतरण नहीं, बल्कि पूरी संस्कृति का संरक्षण भी होता है। इस प्रकार अनुवाद इतिहास की स्मृतियों को आने वाले समय तक पहुँचाने का माध्यम भी है।

अनुवाद दिवस हमें यह याद दिलाता है कि भाषाओं के बीच कोई सीमा नहीं होनी चाहिए। शब्दों का यह आदान-प्रदान मनुष्य की आत्मीयता का प्रमाण है। अनुवाद हमें उस वैश्विक परिवार की ओर ले जाता है, जहाँ हर आवाज़ सुनी जाती है और हर अनुभव साझा होता है। यह दिन उस गहरे विश्वास का दिन है कि हम चाहे किसी भी भाषा में बोलें, हमारी संवेदना एक है।

अनुवाद का अंतिम सौंदर्य इसी में है कि यह हमें दूसरों के भीतर झाँकने की क्षमता देता है। यह हमें सिखाता है कि अपने को दूसरे में और दूसरे को अपने में कैसे देखें। यही मानवीयता का सबसे बड़ा अनुवाद है। अनुवाद दिवस दरअसल उसी मानवीय अनुवाद का उत्सव है—एक भाषा से दूसरी भाषा, एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति और एक हृदय से दूसरे हृदय तक।


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