राग, रस और माटी : छन्नूलाल मिश्र का कण्ठ

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Chhannulal Mishra

Parichay Das

— परिचय दास —

ब मैं दिल्ली सरकार की मैथिली – भोजपुरी अकादमी व हिन्दी अकादमी का सचिव था। था तो 2008 से ही लेकिन संयोग बैठा 2012 में , जब यह बात आयी कि छन्नूलाल मिश्र जी को दिल्ली बुलाकर अकादमी के मंच से उनका गायन प्रस्तुत कराया जाय। मुख्यमंत्री जी से मेरी बात हो गयी । उनकी सहज स्वीकृति हो गयी। मुख्यमंत्री जी ने कहा कि आप जो भी कला , साहित्य व संगीत के लिए करेंगे , बेहतर ही होगा। छन्नूलाल जी से चर्चा फोन पर कर ली। उनका हरिहरपुर गाँव, (आज़मगढ़, यूपी) का होना भी एक आश्वस्तिकारक था। अद्भुत सांगीतिक गाँव। वहां का उनका होना। मैं भी पास का ही हूं। पचीस तीस किलोमीटर। संयोग से कुछ कारणों से यह कार्यक्रम रह गया, नहीं हो पाया किंतु उनसे हुये सम्पर्क ने मुझे गायन व भोजपुरी की ऊंचाई को समझने की तमीज़ दी। मेरी व्यक्तिगत श्रद्धांजलि।

वाराणसी की गलियों में जब भी संगीत का नाम लिया जाएगा तो स्वर स्वयं उठकर छन्नूलाल मिश्र की स्मृति को प्रणाम करेंगे। यह वही कंठ था, जिसमें गंगा की धारा गूँजती थी, यह वही आलाप था, जिसमें माघ की धूप और सावन की वर्षा उतर आती थी। उनके निधन की खबर जैसे ही फैली, लगा कि काशी का एक घाट मौन हो गया, कि मणिकर्णिका की लपटें अब और गंभीर हो उठीं, कि संपूर्ण भारत की संगीतिक परंपरा ने एक स्तंभ खो दिया। यह केवल एक गायक का जाना नहीं था, यह संगीत के एक युग का शांत होना था।

छन्नूलाल मिश्र ने अपने गायन से शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत को लोक के सहज रस से जोड़ा। उनकी ठुमरी, उनकी दादरा, उनके भजन , उनके सोहर, चैती , कजरी , होरी—सबमें एक अद्भुत सम्मोहन था। वे गाते थे तो श्रोता केवल सुनते नहीं थे, वे बह जाते थे। उनकी गायकी का सबसे बड़ा गुण था उसकी रसमयता। प्रत्येक आलाप मानो राग का शृंगार हो, प्रत्येक तान मानो गंगा की लहरों का उठना और थम जाना हो। वे सुर को साधते नहीं थे, वे सुर में समा जाते थे। यही कारण था कि उनकी गायकी में लोक-जीवन की सादगी भी थी और शास्त्रीयता की गरिमा भी।

उनका क़द केवल एक गायक का क़द नहीं था। वे एक संस्था थे, एक विश्वविद्यालय थे, एक चलता-फिरता संगीतिक इतिहास थे। उनकी आवाज़ से बनारस घराने की परंपरा जीवित रही और उनका स्वर उस परंपरा को आधुनिक समय तक ले गया। वे न केवल भारत में सम्मानित थे बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारतीय संगीत की ऊँचाई का प्रतीक बने। लंदन हो या न्यूयॉर्क, पेरिस हो या टोक्यो—जहाँ भी उन्होंने गाया, वहाँ भारत की धरती की गंध और काशी की गंगा की लहरियाँ पहुँच गईं। वे जिस मंच पर बैठते, वहाँ समय ठहर जाता, श्रोताओं का मन संगीत में डूबकर अपने भीतर का विस्मरण कर देता।

छन्नूलाल मिश्र ने संगीत को केवल गाया नहीं, उन्होंने उसे एक ऊँचाई दी। उन्होंने शास्त्रीयता की गंभीरता को लोक की मिठास के साथ मिलाया। यही कारण है कि उनकी गायकी में एक तरफ शास्त्रीय रागों की गहनता थी तो दूसरी तरफ ठुमरी की कोमलता और लोकगीतों की आत्मीयता। उनका भजन जब उठता, तो लगता कि स्वयं तुलसीदास और कबीर उनके कंठ में समा गए हैं। जब वे ठुमरी गाते, तो उसमें शृंगार की आभा होती और जब लोकगीत गाते, तो उसमें गाँव की गलियों का सजीव चित्र।

उनकी गायकी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें केवल संगीत नहीं था, उसमें जीवन था। वे जब “भज मन रामचरन सुखदायी” गाते, तो सुनने वाला स्वयं को रामनाम में विलीन पाता। वे जब “घुँघरू टूट गइल” गाते, तो लगता कि एक पूरी प्रेमकथा उस ठुमरी में समा गई है। उनकी हर प्रस्तुति शास्त्रीय अनुशासन और भाव की सहजता का अनूठा संगम थी।

उनके निधन ने संगीत की दुनिया को एक शून्य में धकेल दिया है। जैसे किसी मंदिर से घंटी उठ जाए, जैसे किसी नदी का स्रोत सूख जाए, वैसे ही उनकी अनुपस्थिति ने संगीत को एक नये मौन से भर दिया है। लेकिन कलाकार कभी मरते नहीं। उनका स्वर गंगा की तरह अमर है। वे अब भी गूंजेंगे—कभी किसी विद्यार्थी के रियाज़ में, कभी किसी श्रोता की स्मृति में, कभी किसी मंच की शांति में।

छन्नूलाल मिश्र केवल वाराणसी के नहीं थे, वे पूरे भारत के थे बल्कि वे विश्व के थे। उन्होंने दिखा दिया कि संगीत केवल कला नहीं बल्कि साधना है, आत्मा की ऊँचाई है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक गायक अपनी साधना से न केवल संगीत को ऊँचाई देता है, बल्कि जीवन को भी एक नई गरिमा प्रदान करता है। उनके महाप्रयाण से एक युग समाप्त हुआ है लेकिन उनकी गायकी की गूँज उस युग को अमर कर गई है।

वाराणसी की धरती पर संगीत की जो गंगा बहती है, उसके प्रवाह में छन्नूलाल मिश्र का स्वर सबसे अधिक निर्मल और गहन प्रतीत होता है। उनका गायन केवल स्वर-साधना नहीं था, वह जीवन का विस्तार था, वह आत्मा का वह संगीत था, जिसमें शास्त्रीयता की गंभीरता भी थी और लोकजीवन की सहजता भी। वे जिस राग को छेड़ते, वह मानो गंगा की लहरों की तरह बहने लगता; उसमें ठहराव भी होता और उमंग भी। यही कारण है कि उनका गायन सुनते समय श्रोता अपने भीतर किसी और ही दुनिया में पहुँच जाता।

उनके गायन की सबसे बड़ी विशेषता उसकी रसमयता थी। वे केवल सुरों का संयोजन नहीं करते थे, बल्कि सुरों के भीतर से रसत की धारा निकालते थे। ठुमरी गाते समय उनमें शृंगार का रस फूट पड़ता था—कभी विरह का आँसू, कभी मिलन की हँसी। दादरा और कजरी में गाँव की गलियाँ जीवित हो उठतीं तो भजन में भक्ति की गंगा बहने लगती। उनकी गायकी में रस का ऐसा अद्भुत संयोग था, जो श्रोता को बाहर से भीतर और भीतर से बाहर तक भिगो देता।

दूसरी विशेषता थी शास्त्रीय और उपशास्त्रीय का संगम। वे शास्त्रीय संगीत के गंभीर अनुशासन में पले-बढ़े थे, लेकिन उन्होंने उसे कभी कठोरता का रूप नहीं दिया। उनके गायन में शास्त्रीय रागों की गंभीरता थी, पर साथ ही उपशास्त्रीय और लोकगीतों की सहज मिठास भी। यही कारण है कि वे जब मंच पर गाते थे तो पंडित और किसान, विद्वान और साधारण श्रोता—सभी उनमें रस ग्रहण करते थे।

भजन-गायन उनकी आत्मा का हिस्सा था। “भज मन रामचरन सुखदायी” जैसे गीत गाते समय लगता था कि स्वयं गंगा किनारे की आरती गूँज उठी हो। उनकी आवाज़ में केवल सुर नहीं बल्कि भक्ति का आह्वान था। श्रोता उनके भजन में डूबकर अपने भीतर के मंदिर से साक्षात्कार करता।

उनकी गायकी का एक और अद्वितीय पक्ष था स्वर की बहुरंगी लयात्मकता। उनके स्वर में गहराई भी थी, कोमलता भी। मंद्र स्वर से लेकर तार सप्तक तक वे सहज गति से विचरते थे। उनकी तानों में लय की चपलता और आलाप में ध्यान की स्थिरता झलकती थी।

वाराणसी की परंपरा उनके कंठ में जीवित थी। वे बनारस घराने के गर्वित प्रतिनिधि थे। उनके गायन में घाटों की गंध, आरती की ध्वनि और गंगा की अनवरत धारा गूँजती थी। जब वे चैती या होरी गाते, तो लगता कि पूरी काशी किसी उत्सव में डूब गई है।

सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने लोकधारा को अपनाकर उसे शास्त्रीयता की गरिमा से जोड़ा। उनकी ठुमरी में शृंगार का आलोक था और लोकगीतों में गाँव की मिट्टी की महक। वे जानते थे कि संगीत तभी जीवित रह सकता है, जब उसमें लोक की आत्मा समाई रहे।

छन्नूलाल मिश्र का गायन इस बात का प्रमाण है कि संगीत केवल मनोरंजन नहीं है, वह जीवन की साधना है। उन्होंने अपने स्वर से यह दिखाया कि शास्त्रीय और उपशास्त्रीय, भजन और लोकगीत—ये सब एक ही रसधारा के विभिन्न रूप हैं। उनका गायन सुनना मानो एक महाकाव्य सुनना था, जिसमें हर तान एक श्लोक और हर आलाप एक अध्याय बन जाता था।

आज जब हम उनकी स्मृति में झुकते हैं तो लगता है कि वाराणसी की गंगा के प्रवाह में उनका स्वर अब भी बह रहा है। उनका कंठ भले ही मौन हो गया हो पर उनकी गायकी की गूँज अब भी आकाश में है। वह गूँज हमें यह बताती है कि संगीत कभी मरता नहीं, वह स्वर की तरह अमर है।

आज़मगढ़ के हरिहरपुर गाँव से वाराणसी की यात्रा छन्नूलाल मिश्र के जीवन की एक ऐसी यात्रा थी, जिसमें केवल भौगोलिक दूरी ही नहीं बल्कि संगीत का उत्कर्ष भी निहित था। आज़मगढ़ का वह गाँव—जहाँ खेतों की मेड़ पर गाए जाने वाले कजरी और चैती, होरी और बिरहा की गूँज थी—छन्नूलाल मिश्र की संगीत-यात्रा का पहला पड़ाव था। गाँव की मिट्टी, तालाब का जल, बैलों की घंटियों की लय और लोकगीतों की सहजता ने उनके कंठ को जन्म दिया। वहाँ का संगीत प्रकृति का संगीत था—पवन की सरसराहट, बारिश की बूंदों का राग, कोयल की कूक और खेतों में काम करते किसानों की तान। यही सब उनके भीतर एक ऐसा लोक-संस्कार बना गए, जिसने आगे चलकर उनके शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गायन को धरती की गंध से जोड़ दिया।

अज़मगढ़ के हरिहरपुर गाँव से वाराणसी का मार्ग केवल मीलों का सफर नहीं था बल्कि एक साधक का साधना-मार्ग था। वाराणसी, जहाँ संगीत केवल कला नहीं, बल्कि तपस्या है। गंगा-किनारे की आरती, मंदिरों की घंटियाँ, घाटों पर बजते शंख और नगाड़े—सब मिलकर एक नाद-ब्रह्म रचते हैं। जब छन्नूलाल मिश्र वहाँ पहुँचे, तो मानो गाँव का लोक-संगीत और काशी की शास्त्रीय परंपरा एक-दूसरे से गले मिल गए।

उनके संगीत में आज भी आजमगढ़ के हरिहरपुर गाँव की मिट्टी की महक और वाराणसी की गंगा का प्रवाह साथ-साथ सुनाई देता है। जब वे “खेलैं मसाने में होरी दिगम्बर” गाते थे, तो लोक का रंग भी होता और शास्त्रीय आलाप की गरिमा भी। चैती और कजरी में गाँव के खेत-खलिहान जीवित हो उठते, वहीं दादरा और भजन में काशी की साधना का रंग भर उठता।

इस यात्रा ने उनके स्वर को दो ध्रुवों से जोड़ दिया—एक ओर लोक की सहजता, दूसरी ओर शास्त्रीयता की गहराई। यही कारण है कि उनकी गायकी में कोई कृत्रिमता नहीं थी। वे जब भी गाते, तो लगता कि खेत से उठी ध्वनि गंगा किनारे पहुँचकर मंदिर की घंटी में बदल गई है।

आज़मगढ़ के हरिहरपुर गाँव से वाराणसी तक का उनका संगीत-मार्ग इस बात का प्रतीक है कि लोक और शास्त्र एक-दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। लोक से उठकर शास्त्र तक पहुँचना और शास्त्र से लौटकर लोक को समृद्ध करना—यही उनके संगीत की आत्मा थी। उनकी गायकी हमें बताती है कि एक कलाकार चाहे जहाँ से उठे, उसकी जड़ों में गाँव का रस और उसके शिखर पर काशी की साधना हो, तभी वह युगों-युगों तक अमर हो सकता है।

वाराणसी की यात्रा ने छन्नूलाल मिश्र को केवल एक स्थानीय गायक से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों का गौरव नहीं बनाया बल्कि भारतीय संगीत की उस गहराई और गरिमा को भी उजागर किया, जिसे वे अपनी साधना से जीवित रखते थे। हरिहरपुर की मिट्टी से उठकर गंगा के घाटों तक पहुँचना, और वहाँ से पूरे विश्व तक अपनी स्वर-लहरियाँ फैलाना—यह केवल एक कलाकार की यात्रा नहीं, बल्कि भारतीय संगीत की आत्मा का वैश्विक संवाद था।

भारत में उनका कद अद्वितीय था। उन्हें सुनना केवल संगीत सुनना नहीं था बल्कि भारतीय संस्कृति की जड़ों से संवाद करना था। उनके मंच पर बैठते ही वातावरण बदल जाता। चाहे राष्ट्रपति भवन हो या कोई राष्ट्रीय संगीत समारोह, जब वे गाना आरंभ करते, तो पूरा सभागार एक साधना-स्थल में बदल जाता। यह उनकी विशेषता थी कि वे हर बार श्रोता को यह अनुभव कराते कि संगीत केवल कानों का सुख नहीं, बल्कि आत्मा का स्नान है।

राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें एक अद्वितीय सम्मान प्राप्त था। वे केवल एक गायक नहीं बल्कि भारतीय शास्त्रीय परंपरा के जीवंत प्रतीक थे। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म भूषण और पद्मश्री जैसे अलंकरणों से सम्मानित किया जाना इस बात का प्रमाण है कि उनकी साधना केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय धरोहर थी। उनके गायन ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई पीढ़ियों तक पहुँचाया और यह दिखाया कि ठुमरी, दादरा या भजन केवल पुराने समय के गीत नहीं हैं, बल्कि आज भी उतने ही जीवंत और आवश्यक हैं।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी छवि उतनी ही गरिमामयी थी। जब वे लंदन, न्यूयॉर्क या पेरिस के मंचों पर गाते, तो श्रोता केवल तालियों से ही नहीं, बल्कि अपनी आँखों के आँसुओं से उनकी साधना को स्वीकार करते। उन्हें सुनते समय विदेशियों को भी लगता कि वे किसी मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर गंगा आरती में शामिल हैं। उनके संगीत ने भाषा और भूगोल की सीमाएँ लाँघ दीं। यही उनकी महानता थी—वे लोक से उठकर शास्त्र तक पहुँचे और फिर शास्त्र से निकलकर पूरी दुनिया को लोक की आत्मीयता का अनुभव कराते रहे।

उन्होंने वाराणसी घराने की परंपरा को विश्व के मंचों तक पहुँचाया। यह परंपरा केवल सुर और ताल की नहीं थी, यह अध्यात्म और जीवन की परंपरा थी। वे अपने गायन से बताते थे कि संगीत किसी विशेष वर्ग या विद्वानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सबका है। जब वे चैती गाते, तो उसमें गाँव की गोरी की तृष्णा भी होती और जब भजन गाते, तो उसमें संतों का निर्वाण भी। इसीलिए वे हर वर्ग, हर संस्कृति, हर देश के श्रोताओं को अपने स्वर से बाँध लेते थे।

उनका कद केवल संगीतकार का कद नहीं था। वे एक युग थे, एक जीवन्त परंपरा थे, जिनके बिना भारतीय संगीत की कल्पना अधूरी लगती है। उनके स्वर में बनारस की घाटी की गहराई, गंगा की धारा का विस्तार और लोकगीतों की सरल आत्मीयता एक साथ मिलती थी। उन्होंने दिखाया कि भारतीय संगीत केवल इतिहास नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य दोनों है।

आज उनके निधन के बाद भी उनकी आवाज़ गूँज रही है। वह आवाज़ गंगा की लहरों की तरह अमर है, जो समय के किसी भी छोर पर सुनी जा सकती है। उनके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय योगदान ने यह सुनिश्चित किया है कि भारतीय संगीत की आत्मा हमेशा जीवित रहेगी और हरिहरपुर से उठी वह तान वाराणसी से होते हुए विश्व के हर कोने में गूँजती रहेगी।

छन्नूलाल मिश्र की स्मृति उनके भजन और ठुमरी की रसमयता की भी है। वे केवल गायक नहीं थे बल्कि भावों के मूर्तिकार थे। उनके कंठ से निकली हर तान केवल संगीत नहीं होती थी बल्कि एक कथा होती थी, एक अनुभव होता था, एक आत्मीय संवाद होता था।

जब वे भजन गाते थे, तो लगता था जैसे गंगा किनारे आरती की लौ揺 रही हो, मंदिर की घंटियाँ गूँज रही हों और समूचा वातावरण भक्ति से भर गया हो। “भज मन रामचरन सुखदायी” जैसा गीत उनके स्वर में केवल एक रचना नहीं था बल्कि एक जीवंत साधना थी। उनके गायन में भजन के शब्द साधारण नहीं रहते, वे आत्मा की पुकार बन जाते। यही कारण था कि उन्हें सुनने वाला हर श्रोता अपने भीतर के मंदिर से साक्षात्कार करता, चाहे वह साधक हो या सामान्य श्रोता। उनकी आवाज़ में भक्ति की वह मिठास थी, जो सीधे हृदय के तारों को छेड़ती थी।

ठुमरी उनके गायन का दूसरा अमूल्य पक्ष था। उनकी ठुमरी में शृंगार और लोक की सहजता एक साथ झलकती थी। जब वे कृष्ण का “सोहर” गाते, तो उसमें एक खास रंग आ जाता। वहीं उनकी ठुमरी केवल शृंगार का प्रदर्शन नहीं , जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति थी। वे ठुमरी को गाते हुए कभी रागिनी की तरह सजाते, तो कभी लोकगीत की तरह सहज बना देते। उसमें राग की शास्त्रीयता और गाँव की गलियों की सादगी एक साथ सुनाई देती।

उनके भजन और ठुमरी में सबसे अद्भुत था रस का प्रवाह। वे रस को केवल गढ़ते नहीं थे, वे स्वयं रस में डूब जाते थे और श्रोता को भी उसी गहराई में ले जाते थे। उनकी गायकी में शृंगार भी था, भक्ति भी, करुणा भी और आनंद भी। यह रसमयता ही उन्हें अद्वितीय बनाती थी।

उनका भजन सुनना ऐसा लगता था जैसे आत्मा गंगा में स्नान कर रही हो और ठुमरी सुनना वैसा लगता था जैसे गाँव की संध्या में किसी आँगन में दीप जलाकर गाना गाया जा रहा हो। यही कारण है कि वे लोक और शास्त्र के बीच पुल थे। भजन में वे संतों के सहचर लगते और ठुमरी में गाँव के अपने आदमी।

छन्नूलाल मिश्र ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत का असली सौंदर्य केवल तकनीक या राग-ताल की जटिलता में नहीं है, बल्कि उसकी रसमयता में है। उनके भजन और ठुमरी में जीवन की वही अनंतता झलकती है, जिसे शब्दों में बाँधना कठिन है। उन्होंने संगीत को केवल गाया नहीं, बल्कि जिया और जीते हुए दूसरों को भी उस रसधारा में शामिल किया।

चैती, कजरी और होरी—ये तीनों केवल ऋतुओं और लोक-जीवन के गीत नहीं हैं, बल्कि भारतीय संगीत की आत्मा के वे स्वर हैं जिनमें धरती की धड़कन, ऋतु-परिवर्तन की लय और लोक की आत्मीयता समाई हुई है। छन्नूलाल मिश्र का कंठ जब इन गीतों में उतरता था, तो वह केवल गान नहीं रह जाता था, बल्कि ऋतु और लोकजीवन का मूर्त रूप बन जाता था।

चैती गाते समय उनके स्वर में फाल्गुन-चैत्र का पूरा परिदृश्य उतर आता था। गेहूँ की बालियाँ पक रही हैं, आम्र-मंजरियों में महक बिखरी है, कोयल की कूक दूर तक गूँज रही है—और इन सबके बीच एक विरहिणी अपने प्रिय को पुकार रही है। छन्नूलाल मिश्र की चैती में यही लोक-संवेदना झलकती थी। उनकी आवाज़ में चैत्र की उजली धूप और आम्र-बौर की मिठास मिलकर एक अनोखा रस रचती थी।

कजरी में उनका कंठ मानो सावन की बूँदों से भीग उठता था। जब वे कजरी गाते, तो लगता कि गाँव की गलियों में कजरी की मंडली सज गई है, महिलाएँ झूला झूल रही हैं और दूर से मेघ गरज रहे हैं। उनकी कजरी में सावन की भींगी मिट्टी की गंध थी, खेतों की हरियाली थी और विरहिणी की आँखों का आँसू भी। श्रोता जब उनकी कजरी सुनता, तो अपने आप ही उसकी कल्पना में गाँव का सावन उतर आता।

होरी में तो वे अद्भुत थे। उनकी होरी में रंगों का आवेग था, उत्सव का उल्लास था। वे गाते थे तो लगता था मानो गंगा के घाट पर रंगों की बौछार हो रही हो। कृष्ण और राधा की रासलीला उनकी होरी में जीवित हो उठती। उनके स्वर में गुलाल उड़ता था, अबीर बिखरता था और श्रोता एक अलौकिक उत्सव में शामिल हो जाते थे।

छन्नूलाल मिश्र ने इन तीनों लोकगीत-परंपराओं को केवल जीवित ही नहीं रखा बल्कि उन्हें शास्त्रीयता की ऊँचाई भी दी। उनकी चैती में आलाप की गंभीरता थी, उनकी कजरी में राग का विस्तार था और उनकी होरी में लय की चपलता। उन्होंने लोक और शास्त्र के बीच ऐसा संगम रचा कि श्रोता को न तो शास्त्रीयता की कठोरता महसूस होती और न ही लोक की सीमितता।

उनका चैती, कजरी और होरी का गायन इस बात का प्रमाण है कि भारतीय संगीत की आत्मा लोक से ही जन्म लेती है और शास्त्र में अपना विस्तार पाती है। उन्होंने इन गीतों को केवल मंच पर नहीं गाया, बल्कि उनमें ऋतु और जीवन की साँस भर दी। यही कारण है कि जब वे गाते थे, तो ऋतु बदल जाती थी—चैत्र का उजाला, सावन की वर्षा और फाल्गुन का रंग—सभी एक साथ अनुभव होते थे।

छन्नूलाल मिश्र का यह अभूतपूर्व गायन भारतीय संगीत की उस परंपरा का अमूल्य धरोहर है, जिसमें ऋतु और रस, लोक और शास्त्र, भक्ति और श्रृंगार सब एक साथ मिलकर जीवन का महाकाव्य रचते हैं।

छन्नूलाल मिश्र के गायन में चैती की कातर पुकार, कजरी की मादक गहराई और होरी की अल्हड़ रसमयता एक साथ बहती है। उनके कंठ से निकली चैती केवल ऋतु का संगीत नहीं थी, वह खेतों में लहलहाती बालियों की थिरकन थी, वह किसान के श्रम का मधुर विराम थी और वह गाँव की साँझ की उस मद्धिम रोशनी जैसी थी जिसमें जीवन की थकान गीत बनकर घुल जाती थी।

कजरी के गान में उन्होंने जिस तरह से बनारस की माटी का रस भरा, वह अद्वितीय था। उनकी कजरी सुनते हुए लगता था जैसे वर्षा की बूंदें सीधे आत्मा पर गिर रही हों, जैसे सावन के मेघ प्रेम और पीड़ा को एक साथ बरसा रहे हों। उनके स्वर की गहराई कजरी को केवल लोकगीत नहीं रहने देती, बल्कि उसे एक शास्त्रीय ऊँचाई देती है, जहाँ भाव और राग का अद्भुत संगम होता है।

होरी में उनका गान तो मानो बनारस का हृदय ही धड़कता था। होली का रंग उनके स्वर में केवल अबीर-गुलाल नहीं था बल्कि उसमें जीवन की उमंग, समाज की आत्मीयता और रस का अद्वितीय विस्तार समाया रहता था। उनके कंठ की अल्हड़ता और गहराई दोनों मिलकर होरी को एक अनोखी ताजगी देती थी।

इस तरह चैती, कजरी और होरी उनके स्वर में केवल गीत नहीं रहे, वे लोकजीवन की संपूर्णता के प्रतीक बन गए। उन्होंने शास्त्रीय और उपशास्त्रीय विधाओं में इन लोकधुनों को वह स्थान दिया, जहाँ वे एक साथ लोक की मिट्टी और शास्त्र की ऊँचाई को साध लेते हैं। यही कारण है कि छन्नूलाल मिश्र का गायन एक अनुपम सेतु है—गाँव की पगडंडी से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंच तक फैली हुई उस स्वर-यात्रा का सेतु, जहाँ परंपरा और आधुनिकता, गंगा और गगन, मिट्टी और संगीत एकाकार हो जाते हैं।

छन्नूलाल मिश्र का सोहर- गायन केवल एक गीत प्रस्तुत करना नहीं था — यह जीवन और लोक का एक अभिव्यक्तिमय स्वरूप था। सोहर, जो जीवन के प्रथम अंक, संतान के जन्म और मानव-संबंध की पवित्रता का गीत है, उनके कंठ से जब गूंजता था तो वह केवल ध्वनि नहीं, एक अनुभव बन जाता था। उनका सोहर गायन जीवन के उल्लास और भाव की गहनता का एक अद्वितीय मिश्रण प्रस्तुत करता था।

उनके सोहर में सबसे पहली विशेषता थी उसकी जीवन-संवेदना। छन्नूलाल मिश्र जब सोहर गाते थे, तो उसमें माता-पिता की भाव-गहनता, गाँव की रस्मों और उत्सवों की मौलिकता झलकती थी। उनके स्वर में स्त्री का पीड़ा और प्रसन्नता, दोनों के रंग होते थे। गायक के स्वर में ऐसा आत्मीयता का भाव होता था कि श्रोता स्वयं उस आनंद-उत्सव का हिस्सा बन जाता था।

सोहर में उनकी गायकी की दूसरी विशेषता थी स्थानीयता और परंपरा का जीवंत मिलन। उन्होंने हरिहरपुर के गाँव की मिट्टी से लेकर वाराणसी के घाटों तक सोहर को अपनी साधना में लिया। उनका गायन न केवल शास्त्रीय रूपांकनों में निखरा, बल्कि लोक के सहज बोल और तानों में भी पूर्ण होता। उनका सोहर लोक-संस्कार और शास्त्रीय अनुशासन का अद्भुत संगम था।

उनकी सोहर में रस और भाव का विशेष प्रवाह था। स्वर का प्रत्येक उतार-चढ़ाव उस भाव की गहराई को दर्शाता था जिसे वे प्रस्तुत करना चाहते थे। मधुर आलाप से लेकर भावपूर्ण अंतरा तक, उनका सोहर एक जीवंत कथा बन जाता था। उसमें मातृत्व का कोमल स्पर्श, जीवन के आरंभ का उत्सव और समुदाय की साझा भावना स्पष्ट झलकती थी।

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि छन्नूलाल मिश्र का सोहर केवल गायन नहीं था, वह अनुभव का एक रूप था। उनकी आवाज़ में एक ऐसा रस था, जो श्रोताओं को अपने भीतर ले जाता और उन्हें जन्म, जीवन और संस्कार की गहन अनुभूति कराता था।

छन्नूलाल मिश्र का सोहर गायन इस बात का प्रमाण है कि लोकगीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन और संस्कृति का प्रतिबिंब हैं। उनके सोहर ने भारतीय संगीत में इस विधा को वह विशिष्ट स्थान दिया जो लोक-संगीत और शास्त्रीय गायन के संगम का प्रतीक बन गई।

छन्नूलाल मिश्र के निधन के बाद भारतीय संगीत-जगत एक गहरे मौन में डूब गया है — ऐसा मौन जो स्वर का नहीं, उसके अभाव का है। उनका कंठ अब गूँज नहीं सकता, पर उनकी गायकी की गूँज हर उस दिल में है जहाँ संगीत केवल कला नहीं, बल्कि जीवन की गहन साधना बनकर रहता है। उनके गायन में केवल स्वर नहीं थे, वे थे भाव, थे रस, थे जीवन के रंग। वे न केवल शास्त्रीय गायन के एक आदर्श बने, बल्कि लोकगीतों में उस मिठास और सहजता को भी जीवित रखा, जो भारतीय संगीत की आत्मा है।

उनका संगीत एक यात्रा थी — आज़मगढ़ के हरिहरपुर गाँव से लेकर वाराणसी के घाटों तक, चैती के कोमल आलाप से लेकर होरी के उल्लास तक। इस यात्रा ने उन्हें न केवल एक महान गायक बनाया, बल्कि एक युग निर्माणकर्ता बना दिया। उनका गायन लोक और शास्त्र का सेतु था, भक्ति और शृंगार का मिलन था और मिट्टी और संगीत का अमर संगम था।

छन्नूलाल मिश्र ने यह सिखाया कि संगीत केवल स्वर या ताल का संयोजन नहीं है, वह अनुभव, वह स्मृति, वह अनुभूति है जो समय और स्थान से परे जाती है। उनके गायन में जो रसमयता थी, वह इस धरती पर संगीत को अमर बना देती है। उनका गायन अब केवल रिकॉर्डिंग या स्मृतियों में नहीं है, वह भारतीय संगीत की धारा में प्रवाहित है — एक ऐसी धारा जो श्रोताओं के हृदय में सदैव बहती रहेगी।

उनका निधन केवल एक व्यक्तित्व का अंत नहीं है, वह एक युग का अंत है। लेकिन उनका संगीत, उनकी साधना और उनकी अमिट छवि इस युग को अमर बना देती है। छन्नूलाल मिश्र आज भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी आवाज़, उनकी रसमयता और उनका संगीत-संसार शाश्वत हैं। उनके स्वर में वह गंगा है जो समय की सीमा को लांघकर अनन्त में बहती रहती है।

उनका गायन हमें यह स्मरण कराता है कि कला का असली मूल्य मृत्यु में नहीं, अमरता में है — और छन्नूलाल मिश्र ने संगीत को वही अमरता दी। उनका संगीत अब केवल सुनाई नहीं देता, वह महसूस किया जाता है, जिया जाता है और पीढ़ियों तक गाया जाएगा।


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