डॉ. लोहिया ने विश्वबन्धुत्व, मानवतावाद और उन्मुक्त राष्ट्रीयता की बात की। इसका उद्देश्य यह था कि वे एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति को जन्म देना चाहते थे जिससे आदमी से आदमी का भय, दूर हो सके। भेदभाव खत्म हो। सम्पूर्ण विश्व एक सूत्र में बंधे, अन्याय मिटे। सब एक होकर सुधैव कुटुम्बकम्” का स्वप्न साकार करें। वे मानते थे कि आज की दुनिया में युद्ध, हिंसा, कूटनीति, कुटिलता और छलना, राजनीति में खूब प्रचलित है। सत्य का इसमें स्थान नहीं है। इसका अहिंसा से सरोकार नहीं, इससे मनुष्य की कोमल भावनाएँ समाप्त हो रही हैं, जो हमें अच्छा आदमी बनाती हैं, नष्ट हो रही हैं।
डॉ. लोहिया समता प्रधान समाज की स्थापना करना चाहते थे। समता प्रधान को वह समाजवादी समाज मानते थे। जिस समाज में आत्मनिर्णण और आत्म अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। जहाँ आर्थिक समता है। जहाँ मनुष्य स्वावलम्बी और सम्पूर्ण है। वह समता प्रधान समाज है। वे सम्पूर्ण मानव जाति को एक अखण्ड इकाई के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका यह भी मानना है कि कोई एक देश का पतन होता है तो दूसरा देश उन्नति करता है। यह एक ही इकाई मानने के कारण उसकी गतिशीलता मानते हैं।
डॉ. लोहिया की ,आस्था मनुष्य में है। वह मानव अस्तित्व को आदर, स्नेह और पवित्र भाव से ग्रहण करते हैं। इसी आस्था के बल पर वे राजनीति और आर्थिक परिवर्तनों की कल्पना करते हैं। वे मनुष्य की कमजोरियों से परिचित हैं, इसलिए उन कमजोरियों को खत्म करने के लिए विचार और कर्म, कथनी और करनी आदि से साधन जुटाते हैं। मनुष्य की कमजोरियों और अनंत संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए वे मानवीय इतिहास की व्याख्या करते हैं। वे पेरिस के बैले हाल में नृत्यांगना के आंगिक अभिनय में भरतनाट्रयम् की मुद्राएँ तलाश लेते हैं। भरतनाट्यम् के अभिनय के साथ इण्डोनेशिया, कम्बोडिया, चीन और जापान की नृत्य मुद्राओं, मानवीय भावनाओं और चेष्टाओं का चित्रण देख लेना उनकी विश्व दृष्टि का प्रमाण है। लोहिया जी जीवन को समग्रता में देखते हैं।
“इन्टरवल डूयूरिंग पोलिटिक्स‘ के हवाले से लक्ष्मीकांत वर्मा, लोहिया जी की भारतीय पुरातत्त्व के प्रति विशेष दृष्टि का उल्लेख करते हैं। उन्होंने मूर्तियों के सम्बन्ध में सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने मूर्तियों की भाषा जानने, समझने और उनकी भंगिमाओं को सार्थक सन्दर्भ में व्यक्त करने का आग्रह किया है। महावीर की प्रतिमा में जैन धर्म की तपस्या और कायिक वेदनाओं का तनाव है। यह तनाव बुद्ध की प्रतिमाओं में नहीं है, क्योंकि बुद्ध का मार्ग सहज था। बुद्ध की यह सहजता विलक्षण है। यह सहजता ही कला की आत्मा है।
इन सांस्कृतिक दृष्टियों के कारण लोहिया ने कई आन्दोलन शुरू किये। मानव अधिकारों के लिए लड़ने में लोहिया अग्रगण्य हैं। जनशक्ति” और “जनइच्छाशक्ति’ को उन्होंने नये तेवर दिये। न्याय-अन्याय के बीच के संघर्ष की उन्होंने व्याख्या की। अन्याय के विरोध में खड़े होने का आधार ढूँढ़ा। उनकी मानवीय संवेदना का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वे रिक्शे पर नहीं बैठते थे। आदमी को आदमी खीचे, यह उन्हें अमानवीय लगता था। रिक्शेवाला पशु की तरह रिक्शा खींचता है। वह स्वयं तो अपमानित होता ही है, रिक्शे पर बैठने वाले को भी अपमानित करता है। वे आदमी को शारीरिक या मानसिक यातना देने के खिलाफ थे। मौत की सजा के खिलाफ तो उन्होंने कई आन्दोलन किये। वे हथकड़ी, बेड़ी डालने, अधिक बोझा ढोने, पैर धोने, पैर छूने आदि के विरुद्ध थे। वे कहते थे, ये सारे व्यवहार मनुष्य की प्रतिभा और उसकी शक्ति को नुकसान पहुँचाते हैं।
व्यक्ति प्रतिष्ठा और लोहिया : व्यक्ति की प्रतिष्ठा के लिए लोहिया जी द्वारा बतायी पाँच बातों का उल्लेख किया है –
१. व्यक्ति के अस्तित्व के प्रति आदर।
२. व्यक्ति के वैयक्तिक जीवन और सामाजिक जीवन में ऐसा समीकरण प्रस्तुत करना जिससे व्यक्ति की मूल चेतना पर कोई दबाव, कोई रुकावट या कोई बाधा न पड़े।
३. व्यक्ति और प्रकृति के सम्बन्ध में उन्होंने सांस्कृतिक और शारीरिक सीमाओं और आकांक्षाओं में ऐसा अनुपातात्मक सम्बन्ध कायम करने की चेष्टा की है
जिससे जैविक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर मनुष्य स्वतंत्रता का अनुभव कर सके।
४. व्यक्ति को मनस्वी के रूप में स्वीकार करके, मन के स्तर पर सोचने-विचारने और बोलने की पूरी आजादी के वे समर्थक थे, किन्तु कर्म को मर्यादित करने के लिए केवल आत्म-अनुशासन तक का बंधन स्वीकार करते हैं।
५. व्यक्ति की इस स्वतंत्रता को निर्भीक और सशक्त बनाने के लिए वे मनुष्य की आर्थिक स्वतंत्रता को भी अनुशासित करने के पक्ष में थे। यानी वे मानते थे कि कोई भी ऐसा उपयोग या प्रयास नहीं किया जाना चाहिए जिसमें मशीन, व्यवस्था या प्रशासन, व्यक्ति के स्वाभिमान पर आक्षेप करे।
वे न तो मनुष्य को मशीन बन जाने देना चाहते थे और न उसे अपमानित होने देना चाहते थे।
संदर्भ ग्रंथ लक्ष्मीकांत वर्मा by डॉ राजकुमार शर्मा
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