
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ असंभव सामाजिक- सांस्कृतिक -राजनीतिक विनिमय है। उनके यहाँ हर चीज संभव से आरंभ होती है लेकिन असंभव और अनिश्चितता में रुपान्तरित हो जाती है। इसके कारण इसमें वर्णित किसी भी विचार या व्यवहार का विनिमय नहीं कर सकते। फलत:इसका तथ्यों , आचार-विचार,परंपरा, संस्कृति , राजनीति आदि के साथ किसी भी किस्म का विनिमय नहीं कर सकते ।साथ ही यथार्थ के साथ भी विनिमय नहीं कर सकते। बल्कि यह कहें तो ज्यादा सही होगा कि ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘में तो हर चीज अनिश्चित और जड है। इसमें वर्तमान जगत के लिए तो कोई जगह ही नहीं है इसलिए इसकी वैधता की किसी भी रुप में पुष्टि नहीं कर सकते। वह ऐसे यथार्थ को पेश करता है जिसको पुष्ट करना संभव नहीं है। वह ऐसी धारणा है जिस पर बहस नहीं हो सकती , आप इसे मानें या खारिज करें।
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ऐसी अवधारणा है जिसके बदले में विनिमय करके आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। इस तरह की अनेक धारणाएँ प्रचलन में हैं उनका विनिमय करना मुश्किल है। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ की हिमायत में जो लोग बोल रहे हैं उनसे सवाल करें कि जीवन या समाज पर किसका शासन होगा ? धर्म का शासन होगा या विज्ञान का शासन होगा ? इसी तरह कलाओं पर किसका असर होगा धर्म का असर होगा या विज्ञान का असर होगा? यह भी ध्यान रखें कि चंद प्रतीकों और चिह्नों के ज़रिए भी ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘का विनिमय नहीं कर सकते।
कोई भी सिस्टम अपना विकास तब ही कर पाता है जब वह समानता के आधार पर अपना विनिमय करे और उसके अपने मूल्य हों। इस तरह के सिस्टम के तदर्थ और स्थायी मक़सद भी होते हैं। जिसके कारण उनका तयशुदा विलोम या विरोध भी होता है। जैसे अच्छा -बुरा,सत्य-असत्य ,सब्जेक्ट -ऑब्जेक्ट आदि। लेकिन ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के पास कोई सुचिंतित धारणा या सिस्टम की समझ नहीं है।
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ वस्तुत: आधारहीन विभाजक विचारधारा है।इसके पास सामाजिक यथार्थ और अंतर्विरोधों को देखने की क्षमता नहीं है। लेकिन वह यथार्थ को विभ्रम में बदलने की क्षमता जरुर रखता है। यह मूलत: डिसरप्टिव व्यवस्था तोडक विचारधारा है।अराजकता इसकी मूल आत्मा है। इसमें कोई चीज स्थिर नहीं रह सकती। भिन्नता और वैविध्य के साथ इसका वैचारिक अन्तर्विरोध है। मुश्किल यह है कि यह जनता के जिस हिस्से पर टिकी है वह जनता अनालोचनात्मक है।
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के तर्क हमेशा यथार्थ के किसी न किसी कोण से शुरु होते हैं , उसके आधार पर यह आभास पैदा करने की कोशिश करता है कि वह वैध अवधारणा है लेकिन वे यह भूल जाते हैं इस अवधारणा के आधार पर विनिमय नहीं हो सकता,आधुनिक समाज नहीं बनाया जा सकता। कोई भी नई चीज या संरचना बना नहीं सकते। क्योंकि इस धारणा का विनिमय मूल्य नहीं है। यह नपुंसक धारणा है। यह धारणा कृत्रिम रुप से बंधक यथार्थ के तहत ही अपनी वैधता का ढोल बजाती है।
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के मौजूदा प्रचार अभियान ने बडे पैमाने पर ‘अनक्रिटिकल जनता ‘तैयार की है। ‘ क्रिटिकल जनता ‘घटी है। ख़ासकर सूचनावर्षा ने सूचना का बेतहाशा कचरा समाज में फेंका है। यही सूचना कचरा बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने इस्तेमाल किया है। सूचना कचरे के रुप के तौर पर जो विषय सामने आए हैं वे हैं -मुस्लिम तुष्टीकरण, भ्रष्टाचार, नैतिक – अनैतिक , सामान्य -असामान्य , छद्म धर्मनिरपेक्षता , हिन्दुत्व, आरक्षण , जाति द्वेष , बीफ या गोमांस आदि । यही वह कचरा है जिसने ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘का परिवेश निर्मित किया है।फलत: ‘सूचना क्रांति ‘और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ में हम गहरा याराना भी देखते हैं, मीडिया के साथ गहरी मित्रता भी देखते हैं।
‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ ने ‘अन्य’ या हाशिए के लोगों प्रति शत्रुता या बदले की भावना को नई बुलंदियों तक पहुँचाया है। बहुलतावाद पर हमले किए गए हैं। अकल्पनीय सामाजिक अव्यवस्था और अशांति की नींव रखी है। ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की मूल विशेषता है कि इसके पास मित्र कम और अपने निजी शत्रु ज्यादा हैं। इसके आधार पर वे सामाजिक व्यवस्था को ही नहीं बल्कि राजनीतिक व्यवस्था और बायलॉजिकल व्यवस्था को भी प्रभावित कर रहे हैं।
दार्शनिक तौर पर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ‘ आइने में अपनी इमेज का गुलाम है। जिस व्यक्ति की इमेज को वे देखते हैं वे उससे भिन्न इमेज स्वीकार नहीं करते।। वे आइने में हिन्दू देखते हैं या फिर धार्मिक पहचान को देखते हैं और उसी को पीटते हैं। इस क्रम में सद्भाव की इमेज का लोप हो जाता है। वे असल में आइने में हिन्दू इमेज देखते हैं तो उसी को दोहराते हैं। वे यही चाहते हैं कि आइने में जिस तरह के व्यक्ति की इमेज वे देखते हैं तो बाद में उसी इमेज को समाज में देखना चाहते हैं। यही अवस्था उनके सपने या यूटोपिया की है वे आइने में अपना जो सपना देखते हैं वही समाज में दोहराते हैं।
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