
हमें एक ऐसी दीपावली की दरकार है जो साल भर अविराम चलती रहे। हमने अनुभव कर लिया है कि जिस रावण का ‘विजयदशमी’ के दिन दहन होता है वह पूरे साल नष्ट नहीं होता ! राम साल में सिर्फ़ एक बार ही हमारे जीवन की अयोध्या में लौटते हैं। हम पूरे साल राम की प्रतीक्षा में रावण को जीते रहते हैं।
राम की प्रतीक्षा के दीपोत्सव में राष्ट्र अपनी साल भर की उदासी के उपवास को सामूहिक उल्लास के ज़रिए तोड़ता है ! समाज जैसे अपनी संपूर्ण देह और चेतना के साथ एक रात के लिये प्रार्थनाओं के एक घने जंगल में प्रवेश कर पेड़ों से ज़मीन पर गिर कर सूख चुके पत्तों पर दीप-नृत्य करते हुए शोर पैदा करता है !
अमावस्या का अंधकार जैसे-जैसे गहरा रहा है, हम उतने ही ज़्यादा डरते हुए रोशनी और शोर में इजाफा करते जा रहे हैं। न तेज़ रोशनी आँखों को चुभ रही है और न चीखता हुआ क्रूर शोर कानों को भेद रहा है ! रोशनी और शोर हमारी सामूहिक उदासी को तात्कालिक रूप से लील जाते हैं। त्योहार को मनाने का उत्साह जैसे साल भर की उदासी,एकाकीपन और रिक्तता से अस्थायी मुक्ति का अवसर प्रदान करता है ,उसकी समाप्ति के बाद महसूस होने वाली थकान अपने को पीड़ाओं के पुराने जंगल में वापस लौटाने का भय होती है !
राम के रूप में एक नायक के वनवास से लौटने की उत्कंठा में हम वास्तव में अपने-अपने संघर्षों की कथाओं के किसी सुखद समापन की संभावनाएँ तलाशते हैं। संघर्ष उन शक्तियों के ख़िलाफ़ जो हमारी सामूहिक चेतना को अवसाद की लंकाओं में परिवर्तित करते रहते हैं ! इसीलिए हम राम को आदर्श और नायक दोनों ही रूपों में एकसाथ आत्मसात करना चाहते हैं।
हम जब बखान करते हैं कि हमें अपनी अयोध्या में राम की प्रतीक्षा है तो स्वीकार नहीं करना चाहते कि हम कितने भयभीत हैं ! हम राम की वापसी उनका वैभव उन्हें वापस सौंपने के लिए नहीं बल्कि अपने वैभव की रक्षा की कामना के लिए करना चाहते हैं। दीयों के तेज प्रकाश के बीच हमारे चमचमाते हुए चेहरे इतने भयातुर हैं कि अपने भगवान को अयोध्या की सीमाओं पर ही रोककर अपनी महत्वाकांक्षाओं के सारे वनवास उनके हवाले कर देना चाहते हैं !
हक़ीक़त यह है कि राम की अयोध्या वापसी के पर्व को हम अपनी जड़ों में वापस लौटने का संबल बनाना चाहते हैं ! हम थक चुके हैं और बहुत सारी जगहों के वनवासों, लड़ाइयों से मुक्त होकर अपनी-अपनी अयोध्या में वापस लौटना चाहते हैं ! हम डर रहे हैं कि उत्सव की समाप्ति के साथ ही हमें अपने अवसादों के बियाबानों में फिर वापस लौटना पड़ेगा। हमें एक ऐसी दीपावली की ज़रूरत है जो राम की प्रतीक्षा में साल भर चलती रहे और हमारी आत्माओं में बसे हुए ‘राम’ रोज़ अपने घर आते रहें !
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