संविधान : राष्ट्र की नैतिक स्मृति

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The Constitution; the moral memory of the nation
फोटो : विकीपीडिया से आभार

Parichay Das

— परिचय दास —

संविधान दिवस का यह क्षण हमें न केवल इतिहास के उस गौरवपूर्ण मोड़ की याद दिलाता है, जब 26 नवंबर, 1949 को देश ने अपने संविधान को अंगीकृत किया था, बल्कि यह भी पूछता है कि आज इस दस्तावेज़ की आत्मा किस मार्ग पर चल रही है। संविधान के निर्माण की पूरी प्रक्रिया किसी एक व्यक्ति का चमत्कार नहीं थी, बल्कि विचार, अनुभव, मतभेद, विमर्श और सहमति की एक दीर्घ, गहन और बहुस्तरीय यात्रा थी, जिसमें विविध भारत की पूरी संवेदनशीलता सम्मिलित थी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उनका नेतृत्व इस प्रक्रिया का नैतिक आधार था। उनके संतुलन, उनके धैर्य और उनके नैतिक संबल ने पूरी सभा को वह वातावरण दिया, जिसमें मतभिन्नता संघर्ष में नहीं बल्कि अंतिम दस्तावेज़ की सामूहिक बुद्धि में रूपांतरित होती चली गई। इसी तरह डॉ. भीमराव अंबेडकर संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे—उनका योगदान असंदिग्ध, प्रखर और अत्यंत महत्त्वपूर्ण था—परंतु उन्हें अकेला ‘समस्त संविधान का निर्माता’ कहना ऐतिहासिक रूप से सही नहीं। संविधान सदस्यों की सामूहिक मंथन-परंपरा का परिणाम था जिसमें ध्येय भारत का भविष्य था, किसी एक प्रतिभा का स्व-अभिधान नहीं।

आज इस महान ग्रंथ के समक्ष जो चुनौतियाँ उभर रही हैं, वे कहीं अधिक जटिल और दुरूह हैं। संविधान की प्रस्तावना में स्वप्नित ‘न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ के चारों स्तंभ हमारे समय में नए प्रकार के दबावों से गुजर रहे हैं। राजनीति का चरित्र बदल रहा है; सत्ता का स्वभाव अधिक केन्द्रीयकृत होता जा रहा है; नागरिक का अधिकार धीरे-धीरे नागरिक की जिम्मेदारियों की गलियों में दबने लगता है; और डिजिटल युग में सूचना का प्रवाह इतनी गति से बढ़ा है कि सत्य का चेहरा कई बार धुँधला पड़ जाता है। संविधान ने एक ऐसे समाज का स्वप्न देखा था जो संवाद और सहिष्णुता पर आधारित हो, परंतु आज विभाजन की रेखाएं अधिक तेज नज़र आती हैं—विचारधाराओं, समुदायों, भाषाई पहचानों और राजनीतिक निष्ठाओं के बीच।

आज की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि संविधान को मात्र विधिक दस्तावेज़ न समझकर उसे एक जीवंत सामाजिक संहिता के रूप में पढ़ा जाए। लोकतंत्र की शक्ति केवल चुनावों में नहीं बल्कि नागरिकों की भागीदारी, सक्रियता और विवेकशीलता में है। यदि नागरिक उदासीन होते हैं तो संविधान का तंत्र धीमे-धीमे अपनी आत्मा खो देता है। संविधान ने हमें अधिकार दिए, लेकिन उन अधिकारों को जीवित रखने के लिए आवश्यक संवैधानिक आचरण की संस्कृति आज सबसे अधिक विखंडित है। समाज में असहमति को देश-विरोध से जोड़ने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है, जबकि संविधान की आत्मा असहमति को लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण प्राणवायु मानती है।

न्यायपालिका पर दबाव, प्रशासन की राजनीतिक अनुकूलता, और मीडिया की निष्पक्षता का क्षरण—ये सभी मुद्दे संविधान के मूल ढांचे की स्थिरता को चुनौती देते हैं। संस्थाओं का स्वस्थ स्वतंत्र रहना ही लोकतंत्र की रीढ़ है। यदि यह रीढ़ कमजोर होती है, तो नागरिक अधिकार धीरे-धीरे औपचारिकता बन जाते हैं। संविधान सभा ने हमें ऐसे संस्थान दिए थे जो सत्ता के दुरुपयोग को रोकने की सामर्थ्य रखते थे, परंतु आज प्रश्न यह है कि क्या इन संस्थाओं की स्वतंत्रता उतनी ही सुरक्षित है जितनी 1950 में थी?

समानता का सपना भी नई चुनौतियों से घिरा है। आर्थिक असमानता लगातार बढ़ रही है; सामाजिक विभाजन अब भी कम नहीं हुए; और अवसरों की समानता आज भी करोड़ों भारतीयों के लिए दूर का सपना है। संविधान ने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जहाँ जन्म, जाति, लिंग या धर्म किसी मानव के मूल्य या अवसर को निर्धारित न करे परंतु आज भी सामाजिक विषमता अनेक रूपों में विद्यमान है। डिजिटल असमानता, शिक्षा में असमानता, स्वास्थ्य सुविधाओं में असमानता—ये सब मिलकर उस प्रगतिशील दर्शन को चुनौती देते हैं जो संविधान के भीतर धड़कता है।

स्वतंत्रता का यह युग भी नए प्रकार की गुलामी पैदा कर रहा है—सूचना का दुरुपयोग, निगरानी की चिंता, निजी डेटा का क्षरण, और सोशल मीडिया द्वारा निर्मित वैचारिक बुलबुले। ऐसे समय में व्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना और उसकी निजता का सम्मान करना नए संवैधानिक दायित्व हैं, जिन्हें गंभीरता से समझने की आवश्यकता है।

बंधुत्व—संविधान की वह सबसे कोमल, सबसे नैतिक और सबसे कठिन प्रतिज्ञा—जिसके बिना कोई भी राष्ट्र केवल भूगोल रह जाता है। आज समाज में सौहार्द की जो टूटन दिखाई देती है, वह संविधान के इस मूल्य को सबसे अधिक चुनौती देती है। बंधुत्व केवल एक आदर्श नहीं, बल्कि राज्य और समाज के हर निर्णय के केंद्र में रखने योग्य आधार है। यदि बंधुत्व कमजोर होता है, तो बाकी तीन मूल्य—न्याय, स्वतंत्रता और समानता—भी अपनी शक्ति खोने लगते हैं।

इस संविधान दिवस पर महत्त्व यह नहीं कि हम केवल 26 नवंबर की तारीख को याद करें; महत्त्व यह है कि हम यह याद करें कि संविधान एक प्रतिज्ञा है—नागरिक और राष्ट्र के बीच। यह कोई बीता हुआ दस्तावेज़ नहीं, बल्कि सतत निर्माणशील समझौता है, जिसमें हर पीढ़ी को अपनी जिम्मेदारी निभानी होती है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. अम्बेडकर और अनेक सदस्यों ने इसे लिख दिया था, पर इसे जीवित हमें रखना है। संविधान किसी एक व्यक्ति की प्रतिभा नहीं—यह एक राष्ट्र की सामूहिक चेतना का स्फटिकीकृत रूप है।

आज की चुनौतियों के बीच संविधान हमें यह स्मरण कराता है कि लोकतंत्र चुनाव से नहीं, व्यवहार से जीवित रहता है; आज़ादी कानून से नहीं, संवेदना से बचती है; और समानता आदेश से नहीं, सामाजिक नैतिकता से जन्म लेती है। यदि हम इस मूलभूत सत्य को समझ लें, तो संविधान केवल पुस्तकालय का ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन की ध्वनि बन सकता है—उस ध्वनि की तरह जो हमें बार-बार याद दिलाती है कि भारत केवल एक राष्ट्र नहीं, बल्कि अनेकताओं के बीच एकता का कठिन और सुंदर प्रयास है, जिसे जीवित रखना ही हमारी सबसे बड़ी सामूहिक जिम्मेदारी है।

संविधान दिवस का अर्थ तभी पूर्ण होता है जब हम यह समझें कि संविधान केवल राज्य-व्यवस्था का ढाँचा नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है—एक ऐसा दायित्व जो नागरिकों को विवेकशील, सहानुभूतिशील और जागरूक बनने की प्रेरणा देता है। आज जब समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है, तब इस दस्तावेज़ की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। संविधान का केंद्रीय तत्त्व—लोकतंत्र—किसी एक समूह का नहीं, समग्र समुदाय का होता है। यदि किसी एक समुदाय के अधिकार क्षीण होते हैं, तो धीरे-धीरे पूरे लोकतंत्र की संवेदनशीलता घटती है। यही कारण है कि संविधान ने हमें अल्पसंख्यकों, कमजोर वर्गों और वंचित समुदायों के अधिकारों की रक्षा का न केवल कानूनी प्रावधान दिया, बल्कि नैतिक आधार भी दिया।

आज चुनौतियों में एक बड़ा संकट यह भी है कि नागरिक अधिकार और कर्तव्य के बीच का संतुलन बिगड़ता दिखता है। कई बार नागरिक अधिकार तो मांगता है, लेकिन संवैधानिक कर्तव्यों के प्रति उतना उत्तरदायी नहीं रहता। यह असंतुलन उस सामूहिक धैर्य और अनुशासन को कमजोर करता है, जो किसी भी लोकतांत्रिक समाज में आवश्यक है। संविधान क़ानून का शासन स्थापित करता है, लेकिन उसकी सफलता तभी संभव है जब समाज न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका—इन तीनों संस्थाओं के प्रति सम्मान बनाए रखे। आलोचना का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है, परंतु आलोचना को दुराग्रह में बदलने से संस्थाओं का मूल्य घटता है और लोकतंत्र स्वयं दुर्बल होता है।

एक और गंभीर चुनौती है ‘संवैधानिक समझ’ की कमी। हमारे देश में अब भी बड़ी जनसंख्या संविधान को केवल परीक्षा का विषय मानती है, न कि जीवन-पद्धति का। नागरिक यदि संविधान की भावना से अनभिज्ञ हों, तो न सिर्फ अधिकारों की रक्षा कठिन होती है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्य भी धीरे-धीरे खोने लगते हैं। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में संविधान की वास्तविक शिक्षा, उसके नैतिक मूल्यों पर आधारित पाठ्यक्रम और नागरिक संवाद की संस्कृति विकसित करना अत्यंत आवश्यक है। संविधान का मूल्य तभी समझ आता है, जब उसे केवल पढ़ा न जाए, बल्कि जीवन में जिया जाए।

भारतीय लोकतंत्र का एक और संकट ‘आर्थिक असुरक्षा’ भी है। संविधान समानता का अधिकार देता है, लेकिन आर्थिक असमानता समानता की जड़ को खोखला कर देती है। यदि नागरिक आर्थिक रूप से असुरक्षित होते हैं, तो वे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में पर्याप्त भाग नहीं ले पाते। गरीबी, बेरोजगारी, ग्रामीण विषमता, कृषि संकट और शहरी सुविधाओं की असमानता—ये सब संवैधानिक समानता पर सीधा प्रहार करते हैं। आर्थिक न्याय के बिना राजनीतिक और सामाजिक न्याय अधूरा रह जाता है। संविधान ने राज्य को दिशा तो दी थी, लेकिन उसे पूरा करना हमारे समय का कर्तव्य है।

इस समय समाज में डिजिटल युग ने एक नई चुनौती भी दी है—सूचना की बिना-जांच फैलाई जाने वाली तरल संस्कृति। सोशल मीडिया की तीव्रता ने सत्य और असत्य के बीच की रेखा को धुँधला कर दिया है। किसी भी लोकतंत्र में स्वस्थ संवाद आवश्यक होता है, परंतु संवाद तभी स्वस्थ होता है जब वह तथ्य, संवेदना और विवेक पर आधारित हो। आज जब अफवाहें, विकृत सूचनाएँ और भावनात्मक उकसावे आसानी से लोगों को प्रभावित कर रहे हैं, तब संविधान का मौलिक तत्व—विचार की स्वतंत्रता—एक ओर सशक्त लगता है, पर दूसरी ओर जोखिम में भी। स्वतंत्रता का उपयोग तभी वास्तविक है, जब वह जिम्मेदारी के साथ हो।

आज के भारत में पर्यावरणीय संकट भी एक संवैधानिक प्रश्न बन चुका है। संविधान ने पर्यावरण संरक्षण को राज्य और नागरिक—दोनों का दायित्व माना, पर आधुनिक विकास की दौड़ में प्रकृति लगातार उपेक्षित होती चली गई। जलवायु परिवर्तन, जल-संकट, वायु-प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण केवल वैज्ञानिक मुद्दे नहीं, बल्कि संवैधानिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रश्न हैं—क्योंकि स्वस्थ जीवन का अधिकार अब केवल जीवन के अस्तित्व भर का नहीं, बल्कि गुणवत्तापूर्ण जीवन का अधिकार भी है।

इन सबके बीच आशा की किरण यह है कि संविधान अभी भी भारत की सबसे बड़ी शक्ति है। यह एक ऐसा दस्तावेज़ है, जो समय के साथ बदल सकता है, लेकिन अपनी मूल आत्मा को संरक्षित रखते हुए। संविधान ने 100 से अधिक संशोधन देखे हैं—यह उसकी जड़ता नहीं, उसकी जीवंतता का प्रमाण है। यह सिद्ध करता है कि भारतीय लोकतंत्र में सुधार और पुनर्विचार की क्षमता अंतर्निहित है। हमें केवल इतना सुनिश्चित करना है कि संशोधन संविधान की बुनियाद को मजबूत करें, कमजोर नहीं।

संविधान दिवस केवल स्मरण का अवसर नहीं, आत्मावलोकन का भी अवसर है। यह अवसर है यह पूछने का कि आज हम किस हद तक उस महान कल्पना के प्रति निष्ठावान हैं जो संविधान सभा ने हमारे नाम लिख छोड़ी थी। यह अवसर है यह समझने का कि संविधान का मूल्य केवल अधिकारों में नहीं, बल्कि उस सम्पूर्ण नैतिक-दर्शन में है, जो भारत को एक न्यायपूर्ण, समान और भाईचारा-आधारित समाज बनाने की दिशा देता है। और यह अवसर है यह स्वीकार करने का कि संविधान के प्रति हमारी निष्ठा केवल शब्दों में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में हमारे आचरण में दिखनी चाहिए।

अगर भारत को अपनी विविधताओं के साथ एक आधुनिक, संवेदनशील और न्यायपूर्ण राष्ट्र के रूप में आगे बढ़ना है, तो संविधान उसका सबसे स्थायी मार्गदर्शक है। यह एक अनुबंध है—नागरिक और राष्ट्र के बीच—और यह अनुबंध तभी सशक्त रहेगा जब दोनों पक्ष अपनी भूमिका पूरी निष्ठा और विवेक के साथ निभाएँ। संविधान दिवस इसी संकल्प का दिन है—यह स्मरण कराने का कि भारतीयता का सार किसी एक पहचान में नहीं, बल्कि अनेकताओं को साथ लेकर चलने की उस दुर्लभ क्षमता में है, जिसे इस महान दस्तावेज़ ने शब्दों में ढाला और जिसकी रक्षा करना अब हमारी पीढ़ियों का दायित्व है।


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