जापान में एक कंपनी है – फैमिली रोमांस। यह कंपनी लोगों को पिता, पति, दोस्त और अन्य रिश्तेदार उपलब्ध करवाती है। ऐसी कई पेशेवर एजेंसियां जापान में हैं जो रिश्तों का पेशा कर रही है। ये एजेंसियां खूब पैसा कमा रही है। स्विट्जरलैंड में खाने पीने की कोई कमी नहीं है। यहां तक कि हर तरीके की संपन्नता है, लेकिन वहां सबसे ज्यादा आत्महत्याएं हो रही हैं। एक हमारा देश है कि किसान और युवा संपन्नता के अभाव में आत्महत्या कर रहे हैं। इस दुनिया की बनावट कैसी है कि आदमी हर तरफ बेचैन है? क्या यह सब आर्थिक असंतुलन की वजह से है? आर्थिक असंतुलन देश के अंदर तो है ही, देश और देश के बीच है और यह आर्थिक असंतुलन कुटनीति, छल- छद्म और बुरे मन से साधा जाता है।
क्या यह आर्थिक असंतुलन समाप्त हो जाये तो आदमी के अंदर की अशांति खत्म हो जायेगी? स्विट्जरलैंड में तो कोई आर्थिक कमी नहीं है, तब लोग आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? जापान में रिश्तों की नयी तलाश क्यों है? यह बात सही है कि आर्थिक तंगी भी कई समस्याओं को जन्म देती है। लेकिन आर्थिक तंगी खत्म होने के बाद भी आदमी संतुष्ट कहां रह पाता है? आखिर आदमी क्या ढूंढ रहा है? भारत में अडानी की खूब चर्चा है। नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद उसकी चतुर्दिक आर्थिक वृद्धि हुई है। इतना होने के बाद भी यह आदमी संतुष्ट नहीं है। बहुत बेचैनी भर गई है इसके अंदर। क्या यह चैन की नींद सोता होगा?
सच पूछिए तो मुझे यह आदमी बहुत गरीब नजर आता है। खूब जमा कर रहा है। एक दिन टें बोलेगा तो उसके पास क्या रहेगा? मरते हुए क्या सोचेगा? संपत्ति के पीछे पागल यह व्यक्ति कोई दिन शांति से गुजार पाता होगा? सिकंदर विश्व विजय का ख्वाब लिए मरा। अंतिम समय में होश हुआ और तब लोगों को कहा कि जब मैं मरूं तो अर्थी से मेरे दोनों हाथ बाहर रखना जिससे दुनिया जान सके कि सिकन्दर जब मरा था तो वह दुनिया से कुछ लेकर नहीं गया।
आदमी दुनिया से झूठ बोल सकता है, खुद से झूठ कैसे बोलेगा? आदमी अपने को जानता है। नरेंद्र मोदी जी और अमित शाह जी क्या यह नहीं जानते होंगे कि वे क्या कर रहे हैं? इनका बड़प्पन होता कि सच स्वीकार करते और अपने लोगों को बताते कि कहां कहां उन्होंने गलतियां कीं? गलती स्वीकार करना कोई मामूली बात नहीं है? गांधी ने अपनी आत्मकथा में अपनी गलतियां स्वीकार कीं। साहस था उनमें। लोग उनकी जितनी आलोचनाएं कर लें , मगर गांधी भुलाये नहीं जा सकेंगे? गांधी के आलोचक सिर्फ सावरकरपंथी ही नहीं हैं, मार्क्सपंथी और अंबेडकरपंथी भी हैं।
आजकल मार्क्सपंथी और अंबेडकरपंथी गांधी की आलोचना कम कर रहे हैं, इसकी वजह उनका ह्रदय परिवर्तन नहीं है, बल्कि राजनीतिक पैंतरे हैं। राजनैतिक पैंतरे न भी हों तो तात्कालिक जरुरत है। खैर। मैं थोड़ा आगे बढ़ गया था। सवाल यह है जहां अकूत संपत्ति है, तथाकथित विकास खूब हुआ है, वहां भी लोग परेशान हैं और जहां विकास रूक- रूक कर हुआ या विकास की दावेदारी है, वहां भी आदमी परेशान है। हम आखिर कैसा विकास चाहते हैं? मुझे लगता है कि शरीर की जरूरत आर्थिक है तो मन की जरूरत मानसिक है। दोनों में संबंध है। दोनों दो किनारों की तरह नहीं है कि मिल न सके, लेकिन दोनों का मिलन ऐसा न हो कि तबाही मच जाये। आज तबाही मची हुई है। आज जो विकास हो रहा है, उसमें रिश्तों पर जबर्दस्त आक्रमण है। विकसित देशों में भी और अधकचरे देशों में भी- रिश्ते बुरी तरह से छीज रहे हैं। हमें ऐसा विकास चाहिए, जहां रिश्ते जीवंत हों। रिश्ते की मृत्यु इस बात की भी खबर है कि आदमी मर रहा है।
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